दुनिया में कई चीजें हमारी समझ के दायरे से बाहर होती हैं.  तब केवल हमारा विश्वास ही उनकी जटिलाओं को सुलझाने के काम आता है.  उन्हें समझने की कोशिश करना बेकार होता है.  अमेजन प्राइम ओरिजनल फिल्म डिबुकः द कर्स इज रीयल 112 मिनिट में कुछ यही बात हमें बताने की कोशिश करती है.  यहां एक डिब्बा या कहें कि संदूक है, जिसमें डर बसा है.  यह डर है ऐसी रूह का, जो जब तक सब बर्बाद नहीं कर देती, रुकती नहीं.  इस रूह से बचाने के लिए सिर्फ रब्बी ही कुछ कर सकते हैं.  डिबुक की पृष्ठभूमि यहूदी मिथक और मान्यताओं को लेकर चलती है.  संभवतः आपने पहले डिबुक शब्द सुना भी न हो और अंग्रेजी में इसकी वर्तनी को पढ़ पाना भी आसान नहीं है.  इसलिए सबसे पहले जानना जरूरी है कि डिबुक क्या है. 



फिल्म बताती है कि 16वीं सदी में कुछ यहूदी एक अनुष्ठान करते थे, जिसमें असंतुष्ट या असहनीय शारीरिक पीड़ा झेल रहे लोगों की आत्माओं को उनके शरीर से अलग करके एक बक्से में बंद कर दिया जाता था.  उसी बक्से को डिबुक कहते हैं.  यहूदी मानते हैं कि डिबुक को कभी खोलना नहीं चाहिए.  इसे खोला तो डिबुक से निकली हुई आत्मा किसी को भी अपने कब्जे में कर सकती है.  यही फिल्म में होता है.  मुंबई से मॉरीशस गए सैम आइजैक (इमरान हाशमी) और माही (निकिता दत्ता) वहां महलनुमा मकान में रहते हैं.  पुरानी चीजों से घर सजाने की शौकीन माही प्राचीन वस्तुओं की बिक्री करने वाली एक दुकान से खूबसूरत नक्काशी वाला लकड़ी का बक्सा ले आती है.  उसे नहीं पता कि यह डिबुक है.  वह इसे खोल देती है और डिबुक में बंद आत्मा उसे अपने शिकंजे में ले लेती है.  हीरो इन बातों को नहीं मानता मगर पादरी उसे समझाता है कि पत्नी को बचाने के लिए जरूरी उपाय करने ही होंगे और ये उपाय हैं, झाड़-फूंक, जंतर-मंतर.  क्या हीरो मानेगा, क्या उसकी पत्नी बचेगी या फिर कहानी में कुछ और ट्विस्ट-टर्न आएंगे.  डिबुक ऐसे ही सवालों की पटरियों पर आगे बढ़ती है. 


रोचक बात यह है कि लेखक-निर्देशक जय के ने प्राचीन काल के विश्वासों/अंधविश्वासों का सहारा लेकर गढ़ी कहानी के सिरों को न्यूक्लियर साइंस से जोड़ा है.  फिल्म की मूल टोन हॉरर है.  इसके बावजूद यह पारंपरिक फिल्मों की तरह नहीं डराती.  इक्का-दुक्का दृश्यों को छोड़ दें तो सिहरन भी नहीं पैदा होती.  इतना जरूर है कि रोमांच बना रहता है कि डिबुक में से जो निकला वह कौन है, माही पर सवार होने के बाद वह क्या करेगा, क्या उसका कोई उद्देश्य भी है या फिर वह निरुद्देश्य ही आतंक फैला रहा है? हॉरर सिर्फ इतना है कि माही को मरे हुए इंसान डरावने रूप में दिखने लगते हैं.  वहीं सैम को घर में अजीब-अजीब आवाजें आती हैं.  वह अनुभव करता है कि रात के अंधेरे में छत पर कोई दौड़ रहा है.  कभी किसी चीज के गिरने की आवाज होती है.  फिल्म में डिबुक का रहस्य जानने वाले रबाई बेन्यामिन (अनिल जॉर्ज) और उसके बेटे मार्कस (मानव कौल) पर हीरो-हीरोइन को मुश्किल से निजात दिलाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है. 


डिबुक की रफ्तार धीमी है और कहानी एक सीध में चलती है.  डिबुक में बंद आत्मा एजरा (इमाद शाह) की कहानी में न नयापन है और न रोमांच.  फिल्म जब आखिरी मिनटों में अचानक ट्रेक बदलती है तो मजा फीका हो जाता है क्योंकि जिन सवालों के जवाब आप ढूंढ रहे होते हैं, वह फोकस से बाहर निकल जाते हैं.  नया फोकस जबरन गढ़ा हुआ मालूम पड़ता है.  बावजूद इसके डिबुक उन लोगों को पसंद आ सकती है, जिन्हें लगता है कि डर के आगे मजा है.  जो इमरान हाशमी के फैन हैं.  इमरान अच्छे अभिनेता हैं मगर उनकी फिल्मों का चयन बहुत औसत है.  यही वजह है कि वह तमाम कोशिशों के बावजूद निरंतर एक स्तर से ऊपर उठने का संघर्ष करते नजर आते हैं.  निकिता दत्ता, मानव कौल, इमाद शाह, डेंजिल स्मिथ और गौरव शर्मा ने अपनी भूमिकाओं का निर्वाह अच्छे से किया है.  लेकिन रब्बी बेन्यामिन के छोटे से रोल में अनिल जॉर्ज अपने व्यक्तित्व से प्रभावित करते हैं.  डिबुक 2017 की मलयालम फिल्म एजरा का रीमेक है.  अंत में यही कि इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि कोई भी प्राचीन बक्सा या बाबा आदम के जमाने का नक्काशियों से सजा डिब्बा कितना ही आकर्षक क्यों न लगे, उसे खोलने से पहले सौ बार सोचना चाहिए.  प्राचीन डिब्बों में भूत भी हो सकते हैं.