Guthlee Ladoo Review: एक छोटी जात वाला एक बड़ी जात वाले के घर की साइकिल छू लेता है. उसे खूब खरी-खोटी सुनने को मिलती है. फिर साफ सफाई के बदले उसे बड़ी जात वाली महिला 50 रुपए देती है और 20 रुपए जबरदस्ती वापस मांगती है. छोटी जात वाला कहता है कि मेरे छुए पैसे आप कैसे रख लोगे तो बड़ी जात वाली महिला कहती है लक्ष्मी है ये लक्ष्मी. लक्ष्मी के कमल में कीचड़ भी लगता है तब भी वो कमल ही होता है. ये फिल्म सही सवाल उठाती है कि जात-पात कब तक हमारे समाज में रहेगा और अगर छोटी जात वाला अफसर बन गया तो बड़ी जात वाले को उससे हाथ मिलाने में दिक्कत नहीं लेकिन अगर वो सफाई करने वाला है तो उसके छूने से भी काफी तकलीफ हो जाती है. आज के दौर में बनी ये फिल्म सवाल उठाती है कि ऐसी फिल्में कब तक बनती रहेंगी और अगर ऐसा हो रहा है तो कब तक होता रहेगा.


कहानी
ये कहानी है गुठली और लड्डू नाम के दो बच्चों की जो छोटी जाति के हैं. उनका परिवार साफ सफाई का काम करता है लेकिन गुठली पढ़ना चाहता है. वो स्कूल की खिड़की से वो सब समझ लेता है जो क्लास में बैठे बच्चे नहीं समझ पाते लेकिन क्योंकि वो छोटी जाति से है उसे स्कूल में एडमिशन नहीं मिलता. स्कूल के प्रिंसिपल संजय मिश्रा पहले उसे नापसंद करते हैं लेकिन फिर चाहते हैं कि उसे एडमिशन मिल जाए. गुठली के पिता भी कोशिश करते हैं को बेटा पढ़ ले लेकिन क्या गुठली को एडमिशन मिल पाता है. क्या एक छोटी जाति का बच्चा बड़ी जाति के बच्चों के साथ स्कूल में पढ़ पाता है. यही इस फिल्म की कहानी है और ये कहानी कहीं ना कहीं आपको परेशान करती है और सोचने पर मजबूर भी करती है.


कैसी है फिल्म 
इस फिल्म में स्कूल हेडमास्टर बने संजय मिश्रा कहते हैं. पूजा पर ध्यान ना दें...सरस्वती पूजा पर ध्यान दें. लक्ष्मी खुद ही चलकर घर आ जाएगी लेकिन क्या लक्ष्मी और पढ़ाई पर सिर्फ बड़ी जाति वालों का हक होता है. ये फिल्म एक एक करके कई सवाल उठाती है और वो सवाल आपको जायज लगते हैं और आप सोचते हैं कि क्या आज भी ऐसा होता है. एक सीन में गुठली अपनी मां से कहता है कि हलवाई का बेटा भी तो अपने घर की सफाई करता है तो वो भी तो उसी जाति का हुआ जिसके हम हैं तो उसकी मां कहती है कि वो अपने घर में सफाई करता है और हम बाहर तो गुठली कहता है तो वो घर के अंदर उस जाति का हुआ और हम घर के बाहर. इस तरह के डायलॉग आपको झकझोरते हैं. आज के मॉर्डन जमाने के स्कूलों में शायद ये सब नहीं होता या फिर बहुत कम होता है लेकिन कहीं ना कहीं तो ये होता होगा. या फिर हुआ होगा. इन्हीं सब सवालों के साथ ये फिल्म आगे बढ़ती है. एक के बाद एक कई सीन ऐसे आते हैं जो आपको परेशान करते हैं. आपके दिल को छूते हैं, आपको दिमाग के तारों को हिलाते हैं.


एक्टिंग
संजय मिश्रा कमाल के एक्टर हैं. वो हर किरदार को जीते हैं. वो करियर में इस मुकाम पर हैं कि शायद उनकी एक्टिंग को रिव्यू नहीं किया जा सकता. उनकी एक्टिंग को नंबर में नहीं तौला जा सकता और यहां भी वो ऐसा ही काम करते हैं कि आपको वो स्कूल हेडमास्टर ही लगते हैं. गुठली के किरदार में छोटे बच्चे धनय सेठ ने शानदार काम किया है. संजय मिश्रा जैसे एक्टर के आगे वो एक्टिंग कर गए ये बड़ी बात है और कमाल की एक्टिंग कर गए ये और भी बड़ी बात है. लड्डू के किरदार में हीत शर्मा ने भी अच्छा काम किया है बाकी के कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है और अपने किरदार के साथ न्याय किया है. 


कुल मिलाकर ऐसी फिल्में चकाचौंध वाली फिल्में नहीं हैं. इनमें ग्लैमर नहीं है....तड़क भड़क नहीं है...लेकिन ऐसी फिल्म क्यों बनानी पड़ती हैं. ये सवाल भी उठता है...हम अच्छे कंटेट की अक्सर बात करते हैं लेकिन ऐसी फिल्मों की बात नहीं करते जिनका कंटेंट भी अच्छा होता है. इनमे मुद्दा भी अच्छा होता है और ये देखने लायक भी होती हैं. ये फिल्म शायद बॉक्स ऑफिस पर करोड़ों ना कमाए लेकिन दिलों में जरूर उतरेगी तो अगर ऐसा सिनेमा देखने के शौकीन हैं तो देख डालिए.


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