जलसा मतलब होता है कोई उत्सव, कोई आयोजन, कोई विशाल सभा. निर्देशक सुरेश त्रिवेणी की इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है. तनाव भरी कहानी के आखिरी क्षणों में जब नायिका हैरान-परेशान लौट रही है, तो एक कारोबारी-नेता के जन्मदिन का छोटा-सा जुलूस सड़क पर निकल रहा है और वहां स्क्रीन पर टाइटल चमकता है, जलसा. जबकि फिल्म शुरू हुए एक घंटा 49 मिनट बीत जाते हैं. हिंदी सिनेमा की यह संभवतः पहली फिल्म होगी, जहां अंत से बमुश्किल पांच मिनट पहले स्क्रीन पर फिल्म का नाम आता है. बाकी दुनिया में भी ऐसा उदाहरण ढूंढना भूसे में सुई तलाशने जैसा काम होगा. फिल्म देख कर लगता है कि इसका नाम जलसा के बजाय हादसा बेहतर रहता क्योंकि पूरी कहानी एक हादसे से इर्द-गिर्द घूमती है. इस हादसे में जलसा कहां है, यह समझना दर्शक के लिए बहुत कठिन है.
अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई दो घंटे से कुछ अधिक की यह फिल्म मनोरंजन से दूर है. जबकि विद्या बालन ने अपनी एक फिल्म में सिनेमा का मतलब ‘एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट’ बताया था. असल में यह कंटेंट के नाम पर प्रयोग है. अखबारों की दुनिया तो कब से फिल्मों में हाशिये पर चली गई थी, अब टीवी से भी दूरी की शुरुआत हो गई है. यहां नायिका माया मेनन (विद्या बालन) एक ऑनलाइन पोर्टल की स्टार पत्रकार है. सच की वकालत करते हुए, निर्णायक बात कहने वाली माया के हाथों हुए हादसे को लेखक-निर्देशक नहीं छुपाते और आप देखते हैं कि शराब के नशे में वह अपनी तेज रफ्तार कार से रात तीन बजे एक लड़की को सड़क पर ठोक देती है. यह लड़की कोई और नहीं बल्कि माया के घर में काम करने वाली रुखसाना (शेफाली शाह) की जवान बेटी आलिया है. रुखसाना, पूरे घर के साथ माया के मानसिक रूप से कमजोर बेटे की भी देखभाल करती है. इस तरह हादसे के साथ ही कहानी के दोनों मुख्य किरदार दो विपरीत छोरों पर खड़े हो जाते हैं.
जलसा का केंद्रीय मुद्दा यही हादसा है. बाकी चीजें आस-पास चलती हैं. माया मौका-ए-वारदात से भाग निकली थी. वह अब क्या करेगी. क्या सड़क के सीसीटीवी कैमरों में हादसे का फुटेज कैद नहीं होगा. क्या आलिया जिंदा बचेगी. क्या रुखसाना को सच पता चलेगा कि किसकी वजह से उसकी बेटी मौत के मुंह में पहुंची. फिर लोग यह भी पूछेंगे कि लड़की रात को तीन बजे घर से बाहर क्या कर रही थी. माया के दफ्तर में एक ट्रेनी पत्रकार रोहिणी जॉर्ज (विधात्री बंदी) भी है, जो हादसे की सच्चाई का पता लगाने में जुटी है. क्या वह सच सामने लाएगी. पुलिस जांच में क्या होगा. पुलिस मामले को कैसे लेगी. इन बातों के बीच माया की पर्सनल जिंदगी भी फिल्म में उतरती है.
कुल मिलाकर शुरुआती हादसे के बाद जलसा लगातार एक तनाव बुनती है. अपराधी को सजा मिलेगी या नहीं मिलेगी. पूरे मामले को माया किस नजरिये से देख रही है, यहां यह बात खास ढंग से उभरती है. फिल्म में रफ्तार है, लेकिन सच की वकालत करने वाले लेखक-निर्देशक कहीं निर्णायक स्टैंड नहीं लेते. वे नहीं बाते कि आखिर में क्या हुआ. वे दर्शक पर छोड़ देते हैं कि वह कहानी को चाहे जिस दृष्टिकोण से देखे और अपना अंत बुन ले. आम दर्शक के हिसाब से कहानी बेनतीजा रहती है. ऐसी बेनतीजा कहानियों का अंत न फिल्म के लिए अच्छा होता है और न दर्शक के लिए. इस लिहाज से जलसा दो बेहतरीन अभिनेत्रियों के शानदार काम के बावजूद निराश करती है.
फिल्म में समाज के अमीर और गरीब तबकों के दो किरदार और उनके हालात दिखाते हुए भी निर्देशक दबी आवाज में गलती करने वाले के पक्ष में संवेदना जगाने की कोशिश करता है. वह पैसों से सत्य की जलेबी बनाता है लेकिन उसे न्याय की चाशनी में नहीं डूबने देता. इस प्रकार फिल्म छोटी बात करती है. कोई बड़ा संदेश नहीं देती. निश्चित ही विद्या बालन और शेफाली शाह ने बढ़िया काम किया है लेकिन उनके किरदारों में याद रखने जैसी बात नहीं हैं. विद्या पत्रकार के साथ मां, बेटी और पति से अलग हो चुकी पत्नी भी हैं. मगर उनका हर मूड लगभग एक-सा है.
कभी परिणीता, इश्किया, द डर्टी पिक्चर और कहानी जैसी मनोरंजक फिल्में कर चुकीं विद्या शायद अब कंटेंट फिल्मों तक सिमट गई हैं. शकुंतला देवी, शेरनी और अब जलसा. इन फिल्मों में उन्हें किरदार जीने का सुख मिल सकता है, ढेर सारे दर्शक नहीं. अतः उन्हें नए सिरे से सोचने की जरूरत है. शेफाली शाह के किरदार में लेखकों-निर्देशकों ने यहां विविधता की खास गुंजाइश नहीं निकाली. मानव कौल दो-ढाई सीन के लिए हैं ताकि आपको विद्या के साथ तुम्हारी सुलू की याद दिला सकें. ट्रेनी पत्रकार के रूप में विधात्री बंदी का काम अच्छा है, लेकिन लेखकों ने पत्रकारी दफ्तरों पर रिसर्च किया होता, तो यहां गड़बड़ियां नहीं होतीं. फिल्म में गीत-संगीत, रोमांस, ऐक्शन की कोई गुंजाइश नहीं थी. इसलिए वे यहां नहीं हैं. अगर आप हादसे में एंटरटेनमेंट ढूंढ सकते हैं, तो यह फिल्म देख सकते हैं.