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Kasoombo Review: अलाउद्दीन खिलजी से अपने मंदिरों को बचाने की 51 योद्धाओं की ये कहानी है जबरदस्त, खुद पर अहसान कीजिए, देख डालिए ये फिल्म 

Kasoombo Review: कसुंबो देश के गौरवशाली इतिहास के एक शानदार पन्ने को बयां करती एक रियल स्टोरी पर बनी फिल्म है. रिव्यू में जानिए कैसी है ये फिल्म?

Kasoombo Review: इन दिनों हर जगह एक ही बात की चर्चा है कंटेट इज किंग, 12TH फेल और लापता लेडीज जैसी फिल्में इस बात को साबित कर चुकी हैं कि बड़ी स्टारकास्ट, महंगे सेट, बड़े स्टार्स, करोडो़ं की मार्केटिंग से कुछ नहीं होता, अगर फिल्म में दम है तो चलेगी, और यही बात Kasoombo भी साबित करती है. ये गुजराती फिल्म हिंदी में आई है, ना कोई ज्यादा मार्केटिंग हुई, ना प्रमोशन, बस रिलीज कर दी गई . इस फिल्म को देखते हुए मुझे ये लगा कि क्यों ऐसी फिल्मों के साथ अन्याय किया जाता है, क्यों ऐसी शानदार फिल्मों के बारे में दर्शकों को बताया तक नहीं जाता ताकि वो जाकर देखें. इस रिव्यू को पढ़िए और अगर अच्छा और सधा हुआ सिनेमा देखने को शौकीन हैं तो देख डालिए हमारे गौरवशाली इतिहास के एक शानदार पन्ने को बयां करती ये कमाल की फिल्म

कहानी
कासुम्बो  एक असली कहानी है, ये विमल कुमार धामी के उपन्यास अमर बलिदान पर आधारित है, ये 14 वीं सदी की कहानी है जब अलाउद्दीन खिलजी अपना साम्राज्य बढ़ा रहा था. वो गुजरात के शत्रुंज्य हिल्स पर बने पवित्र मंदिरों पर कब्जा करना चाहता था, उन्हें तोड़ देना चाहता था  और इस खूंखार दुश्मन के सामने 51 बहादुर योद्धा खड़े हो गए, अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए उन्होंने क्या कुछ किया, ये आपको थिएटर जाकर जरूर देखना चाहिए

कैसी है फिल्म
अलाउद्दीन खिलजी को संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म पद्मावत में भी दिखाया है, ये वाला खिलजी उतना ग्लैमरस नहीं है लेकिन ये आप पर असर छोड़ता है. यहां जब वो कहता है कि मुझे यहां से अब दौलत नहीं चाहिए, मुझे तो यहां के शानदार मंदिरों जैसा अपना महल बनवाना है. यहां डायरेक्टर ने खिलजी के मुंह से हमारी संस्कृति की जिस तरह से तारीफ करवाई है वो काबिले तारीफ है. ये फिल्म बड़े सिंपल तरीके से बनाई गई है. कोई बड़े सेट नहीं, कोई स्पेशल इफेक्ट नहीं लेकिन फिल्म दिल को छूती है.फिल्म में आपको ईमानदारी नजर आती है. फिल्म में एक डायलॉग आता है -बड़े बड़े युद्ध बल से नहीं बुद्धि से जीते जाते हैं और वहां आपको लगता है कि अच्छी फिल्में बड़े बजट से नहीं अच्छे कंटेंट से बनाई जाती हैं. एक और डायलॉग आता है कि आपके सिपाहियों से लड़कर मुझे ये अहसास हो गया कि मेरी तलवार पुरानी और कमजोर हो गई है. यहां भी लगता कि क्या बॉलीवुड पुराना और कमजोर हो गया है. और रीजनल सिनेमा कहीं ना कहीं उसपर भारी पड़ रहा है. ये फिल्म हमारी संस्कृति को बड़े शानदार तरीके से पेश करती है. ना कोई वल्गर सीन, ना कोई चीख चिल्लाहट. ये फिल्म सधे हुए तरीके से चलती है और आपका दिल जीत लेती है.

एक्टिंग
इस फिल्म में काम करने वाले ज्यादातर कलाकारों को शायद हिंदी दर्शक नहीं जानते होंगे लेकिन सबने शानदार काम किया है, धर्मेंद्र गोहिल ने दादू बरोट के किरदार में जान डाल दी है जो इन सबके मुखिया हैं. वो अपनी आंखों से ही बहुत कुछ कह देते हैं औऱ ये दिखा देते हैं कि अपना असर दिखाने के लिए चिल्लाना जरूरी नहीं है. रौनक कामदार ने अमर बरोट के किरदार को बखूबी निभाया है. उनकी एक्टिंग में सधापन दिखता है, दर्शन पांडया खिलजी बने हैं, वो रणवीर सिंह जैसी खिलजी भले नहीं है लेकिन असर उससे ज्यादा छोड़ते हैं और इसका क्रेडिट जाता है इस किरदार की लिखावट को . बाकी के सारे कलाकारों ने कमाल का काम किया है.

डायरेक्शन
वियजगिरी बावा ने फिल्म को डायरेक्ट किया है औऱ राम मूरी के साथ मिलकर उन्होेंने फिल्म को लिखा है, और उन्होंने ये साबित कर दिया है कि अगर लिखावट अच्छी हो, स्क्रीनप्ले मजबूती से लिखा जाए तो शानदार फिल्म बनाने के लिए आपको बड़ा बजट नहीं चाहिए, बड़े स्टार्स नहीं चाहिए, फिल्म काफी ईमानदारी से बनाई गई है, रिसर्च अच्छी है, इतिहास के इस पन्ने के बारे में शायद बहुत लोगों को नहीं पता और उन्हें पता होना चाहिए.

कुल मिलाकर ऐसी फिल्में देखनी चाहिए, ऐसी फिल्मों पर बात होनी चाहिए, अच्छे सिनेमा पर बात होगी तभी तो अच्छा सिनेमा बनाेगा.

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