(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
Looop Lapeta Review: तापसी ने फिर लगाई तेज रेस, लेकिन घटनाओं का दोहराव थ्रिल का असर कर देता है कम
Review: घटनाओं के दोहराव के बावजूद लूप लपेटा में एक बात है कि इसमें थ्रिल है, जो पिछले कुछ समय से हिंदी फिल्मों में गायब था. समय हो तो जर्मन फिल्म रन लोला रन की यह रीमेक एक बार देखी जा सकती है.
आकाश भाटिया
तापसी पन्नू, ताहिर राज भसीन, दिव्येंदु भट्टाचार्य
Looop Lapeta Review: मोहब्बत होने में एक लम्हा लगता है, लेकिन उम्र गुजर जाती है वो लम्हा भुलाने में. जिंदगी को कोई एक लम्हा कैसे सिर के बल खड़ा कर देता है, फेसबुक पर मिलने वाली ऐसी शायरियों से आप भी जान सकते हैं. फिल्म लूप लपेटा भी एक घटना पर किसी लम्हे में अलग-अलग दी गई प्रतिक्रियाओं से नतीजों में आने वाले बदलाव की फिलॉसफी समझाती है. अंग्रेजी में इसे बटरफ्लाई इफेक्ट कहते हैं. मतलब यह कि अगर किसी बात के प्रारंभिक बिंदु में हल्का-सा भी बदलाव हो जाए तो उसकी स्पेस और स्पीड दोनों बदल जाते हैं. अगर यह बातें समझने में लच्छेदार लगें तो आप नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई तापसी पन्नू-ताहिर राज भसीन की लूप लपेटा देख कर इन्हें समझ सकते हैं. यह फिल्म 1998 में आई जर्मन फिल्म रन लोला रन (लेखक-निर्देशकः टॉम टायक्वेर) का हिंदी रीमेक है.
बॉलीवुड के रीमेक-भरोसे हो जाने की बहस इधर तेज है और यहां मूल आइडियों के अकाल को आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि दुनिया भर में कामयाब रही और खूब देखी गई इस जर्मन फिल्म को अपने यहां 23 साल बाद नए सिरे से बनाया गया है. हालांकि राहत की बात सिर्फ इतनी है कि चार लेखकों की टीम ने पटकथा पर कड़ी मेहनत करते हुए इसका सफलतापूर्वक हिंदीकरण किया है. उन्होंने रन लोला रन का बाहरी फ्रेम ज्यों का त्यों लेते हुए इसे हिंदू पौराणिक आख्यानों में मिलने वाली सत्यवान-सावित्री की कहानी में पिरो दिया है. इस आख्यान में मृत्यु के देवता यम सत्यवान के प्राण हरने के बाद उसे यमलोक ले जाने लगते हैं और सावित्री अपनी बुद्धिमत्ता से उनसे पति के प्राणों को वापस लेकर सत्यवान को नया जीवन दिलाती है.
लूप लपेटा भी यही है. पृष्ठभूमि गोवा की है. सत्या (ताहिर राज भसीन) एक रेस्तरां में काम करता है, जिसका मालिक विक्टर (दिव्येंदु भट्टाचार्य) क्रूर और अपराधी है. एक दिन वह सत्या को एक व्यक्ति से 50 लाख रुपये लाने की जिम्मेदारी देता है. सत्या को कसीनो में जुआ खेलने की लत है. लेकिन वह जुए में नहीं बल्कि एक अजीब हादसे में नोटों से भरा बैग खो देता है. सत्या को विक्टर ने पहले ही पिस्तौल देकर भेजा था कि खाली हाथ आने के बजाय तुम खुद को गोली मार लेना. सत्या अपनी गर्लफ्रेंड सावी (तापसी पन्नू) को फोन करके हादसा बयान करता है. अब घंटे भर में 50 लाख रुपये नहीं मिले तो मौत तय है. सावी क्या करे. वह कहां से लाएगी घंटे भर में 50 लाख. यहीं से कहानी उड़ान भरती है और सावी भविष्य में होने वाली सत्या की मौत देखती है. क्या सावी बदल सकेगी अपनी आंखों के आगे दिख रहे भविष्य को. क्या यह सिर्फ सपना है या हकीकत किसी ख्वाब की तरह उसकी आंखों के आगे तैर रही है. सच क्या है. 50 लाख का फेर क्या सिर्फ सत्या के साथ है या फिर और भी किरदार इस लूप में हैं. कथानक में भारतीय हो जाने के बावजूद लूप लपेटा अपने कैमरा वर्क, कलर और मेकिंग में यूरोपियन फिल्म जैसा आभास देती है.
लूप लपेटा पूरी तरह से तापसी पन्नू की फिल्म के रूप में सामने आती है. उन्होंने फिर साबित किया है कि वह अकेले दम पर कहानी में जान फूंक सकती हैं. उन्होंने यहां लंबे किसिंग सीन और अंतरंग दृश्य देने में भी परहेज नहीं किया है. लूप में दोहराती हुई घटनाओं में ताहिर एक समय के बाद असर खो देते हैं लेकिन तापसी ऊर्जावान मौजूदगी को लगातार दर्ज कराती हैं. उन्होंने इस फिल्म को फीका पड़ने से बचाया है क्योंकि आप घटनाओं को थोड़े हेर-फेर से कहानी में तीन बार देखते हैं और ऐसे में तापसी हर बार घटनाओं को मोड़ने की कोशिश में कुछ अलग करती नजर आती हैं.
लूप लपेटा में कसावट है लेकिन दोहराव की वजह से इसमें कई जगहों पर पूर्वानुमान बहुत आसान है. अतः कहानी के रोमांच से खुद को जोड़े रखने में दर्शक को प्रयास करना पड़ता है. कहानी में एक रोचक ट्रेक दो भाइयों का है, जो पैसों के लिए अपने सख्त ज्वैलर पिता को लूटने का इरादा रखते हैं और हर बार नाकाम होते हैं. दोहराव के अतिरिक्त लूप लपेटा की समस्या यह है कि इसमें घटनाएं बहुत थोड़ी हैं. इस बात का निर्देशक ने ध्यान रखा होता तो फिल्म की लंबाई कम हो सकती थी. जो कहानी यहां 130 मिनट के लगभग जाती है, वह मूल फिल्म में मात्र 81 मिनिट में दिखा दी गई थी. घटनाओं का फैलाव और अनावश्यक संगीतमय स्थितियां लूप लपेटा को कमजोर करती हैं. बावजूद इसके यह फिल्म एक बार देखी जा सकती है. इसमें कम से कम वह थ्रिल है, जो हाल की कई फिल्मों में गायब था.