LSD 2 Review: डिस्कलेमर- ये फिल्म कुछ लोगों को समझ आई है और कुछ को समझ नहीं आई है, जिन लोगों को ये समझ आई है उनका कहना है कि ये कम ही लोगों को समझ आएगी, और हम उन्हीं कम लोगों में से हैं जिन्हें ये फिल्म समझ नहीं आई है. एलएसडी ...मतलब किसी फिल्म में अगर ये तीन चीजें हों तो फिल्म चल सकती है लेकिन एलएसडी के पार्ट में सिर्फ धोखा मिलता है, कुछ समझ नहीं आता कि क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, कैसे हो रहा है, कुछ एक सीन आते हैं जिन्हें देखकर लगता है कि ये आज के जेनरेशन से रिलेटिड हैं लेकिन ये जेनरेशन भी इस फिल्म को समझ पाएगी, ये बड़ा सवाल है, आखिर ऐसा सिनेमा क्यों ही बनाया जाए जिसके बारे में ये कहना पड़े कि कॉन्सेप्ट तो अच्छा है लेकिन समझने के लिए इतना दिमाग लगाना पड़ेगा जितने में यूपीएससी क्लीयर हो जाए. 


कहानी
 एक लाइन में कहूं तो समझ से परे है, तीन कहानियां एक साथ चलती हैं , पहले में एक ट्रांसजेंडर के रिएलिटी शो के जरिए दुनिया पर छा जाने की कहानी है, ये शो बिग बॉस की तर्ज पर दिखाई देता है लेकिन इसके जज सारेगामापा की तर्ज पर नजर आते हैं, दूसरी कहानी एक और ट्रांसजेंडर की है जो मेट्रो में काम करती है, इस कहानी में उसका बॉयफ्रेंड और बॉस भी हैं , तीसरी कहानी में वर्चुअल वर्ल्ड की हकीकत दिखाने की कोशिश की गई है, कोशिश इसलिए क्योंकि जो दिखाया गया है वो शायद यूपीएससी में टॉप 10 रैंक लाने वाले योद्धा ही समझ सकते हैं.


कैसी है फिल्म
शुरू में तो मुझे लगा कि कहीं गलत रील तो नहीं चल गई. कहीं ऐसा तो नहीं कि फिल्म का वो वर्जन चला दिया गया जो एडिट हो रहा था, बिल्कुल ऐसा ही लगता है, समझ नहीं आता क्या चल रहा है. बस इतना समझ आता है कि ये टीवी चैनल वाले टीआरपी के लिए रिएलिटी शो में मां के नकली आंसूओं से लेकर तमाम प्रंचड अपना सकते हैं, इंटरवल हो जाता है और आप सोचते हैं कि क्या निकल लिया जाए लेकिन रिव्यू पूरी फिल्म देखकर करना होता है तो रुकने का फैसला लेना पड़ा, दूसरी कहानी में कुछ समझ नहीं आता औऱ तीसरी में ये समझ आता है कि वर्चुअल गेमिंग के चक्कर में कैसे आज की जेनरेशन कैमरे पर अपने कपड़े तक उतराने को तैयार है, फिल्म की स्क्रीप्ले खराब है ये नहीं कहा जा सकता, स्कीनप्ले लिखा गया है ये सवाल उठता है, नया और क्रिएटिव सिनेमा बनाने के नाम पर आप कुछ भी नहीं बना सकते, अगर ये फिल्म चुनिंदा दर्शकों के लिए है तो इसे सीधे ओटीटी पर आ जाना चाहिए था, वैसे भी थिएटर में ज्यादा लोग नहीं थे.


एक्टिंग
फिल्म में नए कलाकारों पर दाव लगाया गया है, स्वरूपा घोष, परितोष तिवारी, बोनिता राजपुरोहित, अनुभव सिंह ने ठीक काम किया है लेकिन स्क्रीनप्ले औऱ डायरेक्शन समझ से परे है. फिल्म के स्केल को बढ़ाने के लिए मौनी रॉय, तुषार कपूर, अनु मलिक को भी डाला गया है पर वो क्या ही कर लेते, सोशल मीडिया सेंसेशन उर्फी जावेद भी फिल्म में हैं, प्रमोशन में भी ये बात भुनाने की कोशिश हुई लेकिन जितना रोल उर्फी का इस फिल्म में है उससे ज्यादा बड़ी तो उनकी इंस्टाग्राम रील्स होती हैं.


डायरेक्शन
दिबाकर बनर्जी का सिनेमा समझना सबके बस की बात नहीं, ऐसा लोग कहते हैं लेकिन भाई ऐसा भी क्या सिनेमा जिसे समझने में बाल नोचने पड़ जाएं, अगर आपको ये संदेश देना ही था कि वर्चुअल दुनिया खतरनाक हो रही है तो थोड़ा बेहतर तरीके से दे देते, जिस जेनरेशन के लिए ये फिल्म बनी है, उसके लिए भी ये फिल्म समझना मुश्किल ही होगा, दिबाकर ने यहां पूरी तरह निराश किया है.


कुल मिलाकर थिएटर में जाकर एसी में सोने का मन हो तो चल जाइएगा.


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