Maharani Review: सोनी लिव पर वेबसीरीज महारानी देखते हुए आपको मानना पड़ता है कि भीमा भारती (सोहम शाह) की लालू प्रसाद यादव से, रानी भारती (हुमा कुरैशी) की राबड़ी देवी से और नवीन कुमार (अमित सयाल) की नितीश कुमार से समानता आंशिक और संयोग मात्र है. यह पूर्ण सच नहीं है. शो रचने वाले सुभाष कपूर बीते बरसों में कुछ नामचीन लोगों की जीवनियों पर काम कर रहे थे.


हालांकि उनकी गुलशन कुमार की बहु-प्रचारित बायोपिक चार साल की माथापच्ची के बावजूद नहीं बन सकी, लेकिन उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और दलित नेता मायावती से प्रेरित फिल्म ‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ (2021) बनाने में वह सफल रहे. अब वह 1990 के दशक के आखिरी दौर वाले बिहार में लालू-राबड़ी शासन से प्रेरित हुए हैं. नतीजा है, महारानी. यहां उन्होंने असली किरदारों और घटनाओं के रेशे लेकर कल्पनाओं से कहानी बुनी है, जिसमें बिहार की राजनीति के तमाम रंग हैं.


बिहार की जन-चेतना में राजनीति सदा शीर्ष पर रही है, मगर विडंबना है कि वहां की जनता ने लोकतंत्र के चर्चित और हास्यप्रद प्रयोग देखे हैं. गद्दी खोने वाला मुख्यमंत्री रातोंरात अपनी सुहागन-गृहस्थ पत्नी को, जो शायद कभी किसी बैठक या सभा में नहीं गई, राजनीतिक वारिस बना कर अपनी कुर्सी पर बैठा देता है. सफेद खद्दर के कुर्ते और जैकेट वाले मुख्यमंत्री की जगह पार्टी के मंत्रियों-विधायकों-नेताओं को सूती-बनारसी साड़ियां ओढ़े, चौड़े माथे पर बड़ा गोल टीका लगाए उसकी पत्नी लीडर के रूप में मिलती है. जो पद की शपथ ग्रहण करते हुए थरथराती, गलत शब्द उच्चारती और हस्ताक्षर की जगह अंगूठा लगाती है. वह राज्य की जनता की सर्वोच्च प्रतिनिधि बन जाती है. इस दौर में बिहार की राजनीति फंतासी से अधिक रोचक थी. यह देश के इतिहास में दर्ज है.




सुभाष कपूर और निर्देशक करन शर्मा इस कहानी को आगे बढ़ाते हैं कि फिर क्या हुआ? इस ‘फिर क्या हुआ’ को वे इतिहास से अलग अलग दिशा में ले जाने में कामयाब हैं. दस कड़ियों की यह वेब सीरीज उनके लिए है, जिनकी बिहार के राजनीतिक इतिहास में रुचि है. जहां आर्थिक मुश्किलों और जातीय संघर्ष में फंसे राज्य की मुख्यमंत्री की कुर्सी की कहानी के साथ दलित-सवर्ण संघर्ष है. अपनों के और विरोधियों के षड्यंत्र हैं. अफसरों की चापलूसी और चालें हैं. विधानसभा में बहुमत और अल्पमत की सौदेबाजी है. नक्सल और पुलिस है. हत्याएं और सिस्टम के घोटाले हैं.


मगर लेखक-निर्देशक ने तेजी से राजनीतिक दांव-पेंच सीखती और सही-गलत में फर्क करती रानी भारती को केंद्र में रखा है. उसके काम धीरे-धीरे पार्टी के लोगों को संकट में डालने लगते हैं. वह करोड़ों रुपये के घोटाले की नब्ज पर हाथ रखती है. ‘चारा’ यहां ‘बीज’ बन गया है. रानी भारती पति से कहने में नहीं हिचकती कि वह पत्नी के रूप में अलग है और मुख्यमंत्री के रूप में अलग. यहीं द्वंद्व पैदा होता है. अफसरों को उसके दिशा-निर्देश पूर्व मुख्यमंत्री पति के लिए भी समस्याएं पैदा करते हैं.




लेखक-निर्देशक ने सीरीज को खांटी हिंदी पट्टी का बनाए रखा. भाषा, परिधान, माहौल, लोगों के सोच-विचार और समझ तक. 1990 के दशक में आज जैसी तकनीकी उन्नति नहीं थी, यह साफ दिखता है. एक सीमा के बाद यह महिला मुख्यमंत्री की कहानी नहीं रह जाती. बल्कि राजनीति की दुनिया में एक स्त्री के पुरुष प्रधान इलाके में संघर्ष को दिखाती है. जहां कपटी नेताओं के साथ घाघ अफसर, संस्थानों के मठाधीश, फर्जी मगर ताकतवर बाबा कंबल ओढ़ कर साथ-साथ घी पीते हैं.


यहां राज्यपाल भी एक ताकतवर और अहम भूमिका में है. महारानी आगे बढ़ते हुए सिर्फ बिहार की दशा-दिशा तक सिमटी नहीं रहती है. देश-समाज का राजनीतिक चरित्र भी यहां महसूस होने लगता है. इस मोड़ पर बिहार ‘राजनीतिक स्टेट’ भर नहीं रह जाता, बल्कि राजनीति में ‘स्टेट ऑफ माइंड’ बन जाता है. अतः एक स्तर पर आप महारानी को राजनीति की पाठशाला भी कह सकते हैं.


बीच के कुछ ढीले एपिसोड छोड़ दें तो महारानी की पटकथा कसी और संवाद रोचक हैं. कहीं-कहीं निर्माता-निर्देशक-लेखक कहानी को अतिरिक्त खींचने के मोह से बच सकते थे. मगर ऐसा नहीं हुआ. हुमा कुरैशी अपने रोल में फिट हैं मगर कुछ मौकों पर बिहारी लहजा पकड़ने में गच्चा खा जाती हैं. हुमा का काम देख कर लगता है कि बॉलीवुड के ग्लैमर के चक्कर में उन्होंने अपनी प्रतिभा से खुद ही न्याय नहीं किया. उन्हें सावधानी से भूमिकाएं चुननी थीं. वैसे, वह इस रोल में याद रहेंगी. सोहम शाह चुनिंदा काम करते हैं और यहां जमे हैं. दोनों लीड ऐक्टरों को अमित सयाल और विनीत कुमार का बढ़िया साथ मिला. प्रमोद पाठक और ईमान उल हक भी निखर कर आते हैं. इन चारों कलाकारों ने अपनी भूमिकाओं में जान डाली है.


बिहार आधारित इस सीरीज में मोहरे की तरह राजनीतिक बिसात पर सजाई गई रानी भारती कुछ आदर्शों के साथ महारानी के रूप में उभरती है. मगर सचाई है कि राजनीति में आदर्शों की सांसें उखड़ चुकी हैं. सीरीज देखते हुए राजनीतिक कवि स्व.श्रीकांत वर्मा की ‘मगध’ कविता श्रृंखला याद आती है. जिसमें वह एक जगह कहते हैं, ‘तुम भी तो मगध को ढूंढ रहे हो, बंधुओं/यह वह मगध नहीं/तुमने जिसे पढ़ा है/किताबों में/यह वह मगध है/जिसे तुम/मेरी तरह गंवा/चुके हो.’