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Mimi Movie Review: तय समय से पहले हुई मिमी की डिलेवरी, कृति सैनन और पंकज त्रिपाठी चमके

सरोगेसी यानी किराये की कोख के मुद्दे पर मिमी एक रोचक फिल्म है. यह अनावश्यक वैज्ञानिक या कानूनी बहस में पड़े बगैर इसके मानवीय और भावनात्मक पक्षों को उभारती है.

Mimi Review: जनसंख्या के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल करीब 35 लाख बच्चे समय से पहले (प्रीमैच्योर) पैदा होते हैं. ऐसे में अगर सरोगेट मदर के विषय पर बनी मिमी तय तारीख से पहले ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आ गई तो आश्चर्य की बात नहीं. नेटफ्लिक्स पर फिल्म 30 जुलाई को रिलीज होनी थी मगर दिन में खबर आई कि मिमी की पायरेसी हो गई और वह इंटनेट पर अवैध रूप से रिलीज कर दी गई है. ऐसे में नेटफ्लिक्स और जियो सिनेमा ने पायरेसी से लड़ने के लिए शाम होते-होते फिल्म अपने-अपने प्लेटफॉर्म पर रिलीज कर दी. मराठी फिल्म मला आई व्हायच (मुझे मां बनना है) का यह हिंदी रूपांतरण है.

विज्ञान की तरक्की ने उन दंपतियों को राहत पहुंचाई है, जो किन्हीं कारणों से माता-पिता नहीं बन सकते. पहले टेस्ट ट्यूब बेबी एक आश्चर्य था, फिर सरोगेट मदर की सुविधा हो गई. सरोगेट मदर के केस में मां-पिता के अंश लेकर लैब में तैयार भ्रूण किसी स्वस्थ महिला के गर्भ में आरोपित कर दिया जाता है और नौ महीने के बाद बच्चा जन्म लेता है. सरोगेसी में मूल दंपति का अंश अन्य महिला के गर्भ में पलता है, अतः इसे सामान्य भाषा में किराये की कोख कहा जाता है. सरोगेसी विज्ञान के साथ धीरे-धीरे धन का और फिर कानून का भी मुद्दा बन गई लेकिन इसके कुछ ऐसे भावनात्मक पक्ष हैं, जो तमाम बातचीत के बाद भी केंद्र में नहीं आ सके. मिमी मानवीय और भावुक पक्षों को उभारती है. अमेरिका से भारत में सरोगेट मदर ढूंढने के लिए आए जॉन (एडन वायटॉक) और समर (एवलिन एडवर्ड्स) जब शेखावटी पहुंचते हैं, तो उनकी नजर मिमी (कृति सैनन) पर पड़ती है. 25 की हो चुकी मिमी डांसर है और उसे बॉलीवुड फिल्मों की हीरोइन बनना है. जॉन-समर को लेकर सैर पर निकला कार ड्राइवर भानुप्रताप पांडे (पंकज त्रिपाठी) उन्हें मिमी से मिलाता है. मिमी को मुंबई जाने और वहां स्ट्रगल के लिए पैसा चाहिए. भानु उसे समझाता है कि वह सरोगेट मदर बनती है तो मोटी रकम मिलेगी, बीस लाख रुपये! सिर्फ नौ महीने की बात है और स्ट्रेच मार्क्स के सवाल पर डॉक्टर मिमी से उल्टा पूछ लेती है कि शिल्पा शेट्टी का फिगर खराब हुआ क्या? मिमी राजी-खुशी तैयार हो जाती है लेकिन बात तब बिगड़ती है, जब प्रेग्नेंसी का लंबा वक्त बीतने के बाद डॉक्टर बताती है कि होने वाला बच्चा मानसिक रूप से विकलांग रहेगा. जॉन और समर को अब यह बच्चा नहीं चाहिए. मिमी क्या करे?

फिल्म सरोगेसी की कानूनी जटिलताओं और तकनीकी बहस में नहीं उलझती. न ही वह रोने-धोने और तनाव पैदा करने वाला ड्रामा दिखाती है. यहां सब कुछ फील-गुड अंदाज में आगे बढ़ता है. थोड़ा हंसाता-गुदगुदाता है और थोड़ा इमोशनल बनाता है. मिमी की कहानी ‘लोग क्या कहेंगे’ वाले चक्कर में भी नहीं पड़ती और सधे हुए ढंग से लगातार आगे बढ़ती है. यहां पटकथा में कसावट है. रोमांस, ऐक्शन, थ्रिलर न होने पर भी फिल्म बोर नहीं होने देती. किरदारों को अच्छे से गढ़ा गया है. मिमी के रोल में कृति सैनन खरी उतरी हैं. मां बनने से पहले और मां बनने के बाद के अपने किरदारों को उन्होंने शिद्दत से जीया है. राजस्थानी लुक में वह वास्तविक दिखती हैं. इसी तरह टूरिस्टो को दिल्ली-राजस्थान घुमाने वाले कार ड्राइवर बने पंकज त्रिपाठी हमेशा की तरह यहां भी छाए हैं. बिना रोमांस-ड्रामा के भी वह अपने अभिनय और सहज संवाद अदायगी से केंद्र में बने रहते हैं. वह मिमी को सरोगेसी के वास्ते राजी करने के लिए लंबी भूमिका बनाते हुए कहते हैं कि बच्चे को कोख में पालना दुनिया का सबसे महान काम होता है और बस चले तो वह भी यह कर लें. मगर सवाल यह कि बच्चा पैदा कहां से करेंगे? पंकज पूरी ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करते हैं. फिल्म में सहायक कलाकारों ने भी अपनी भूमिका बढ़िया से निभाई है. मिमी की सहेली के रूप में सई ताम्हणकर जमी हैं जबकि मिमी के माता-पिता के रूप में सुप्रिय पाठक और मनोज पाहवा भी फिट हैं.

लक्ष्मण उतेकर और रोहन शंकर ने स्क्रिप्ट लिखी है. दो घंटे से अधिक की इस फिल्म में कहीं अतिरिक्त दृश्य नहीं हैं. निर्देशन अच्छा है. गीत-संगीत के मौके फिल्म में थे और उन्हें अधिक निखारा जा सकता था. फिल्म सहज रफ्तार से आगे बढ़ती है और उतार-चढ़ावों के बाद एक इमोशनल मोड़ पर जाकर खत्म होती है. यहां लेखक-निर्देशक ने अनावश्यक दिमाग लगाने वाली किसी बहस के बजाय देखने वालों पर तमाम फैसले छोड़ दिए हैं. दर्शक कहानी देख कर खुद सही-गलत, अच्छा-बुरा तय कर लें. निस्संदेह किराये की कोख के मुद्दे को आसानी से यहां समझाया है. यही निर्देशक और उनकी टीम की सफलता है.

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