Lantrani Review: लंतरानी का मतलब होता है बड़ी-बड़ी हांकना या फिर अगर कनपुरिया, उन्नाव, लखनऊ या फतेहपुर में इस शब्द के इस्तेमाल को लेकर बात की जाए तो ये अलग-अलग तरह से इस्तेमाल होता है. जैसे कि जल्दबादी करके किसी भी बात में आगे-आगे होना, उसमें घुसना या फिर 'बकइती' करना. इन सभी मतलबों को एक साथ एक ही फिल्म में तीन अलग-अलग कहानियों के साथ तीन अलग-अलग नैशनल अवॉर्ड विनर डायरेक्टर्स ने पिरोया है. ये फिल्म आज से ओटीटी प्लैटफॉर्म Zee5 पर स्ट्रीम हो रही है.


लंतरानी एक एंथोलॉजी है यानी एक ही फिल्म में अलग-अलग कहानियां दिखाई गई हैं जिनका एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है. इस फिल्म में तीन कहानियां हुड़ हुड़ दबंग, धरना जारी है और सैनेटाइज्ड न्यूज के जरिए पेश की गई हैं. इन सबका आपस में कोई संबंध न होने के बावजूद मूल में एक संबंध जरूर है वो है लंतरानी.






कहानी: पहली कहानी 'हुड़-हुड़ दबंग' एक पुलिस सिपाही (जॉनी लीवर) और एक मुजरिम की है. जिंदगी के आखिरी पड़ाव में आ चुका सिपाही अपने साथ एक मुजरिम को पेशी के लिए ले जाता है. आधे घंटे की कहानी में जिंदगी और समाज के अलग-अलग आयामों पर सिचुएशनल तरीके से बात की गई है.


दूसरी कहानी 'धरना जारी है' महिला प्रधान और उसके पति की है जिनकी कुछ मांगें हैं जिन्हें लेकर वो अपने जिले के डिवेलपमेंट ऑफिसर के दफ्तर के सामने धरने में बैठे हुए हैं.


और तीसरी कहानी है- 'सैनिटाइज्ड न्यूज'. इसमें मीडिया जगत और वहां काम करने वाले पत्रकारों और दूसरे वर्कर्स की मजबूरियों को उकेरा गया है. तीनों कहानियां अलग-अलग तरीके से सच को बेहद ही व्यंग्यात्मक तरीके से दिखाती हैं. तीनों कहानियों में व्यंग्य के साथ-साथ सच का आइना तो दिखाया जाता है, लेकिन सब कुछ सिचुएशनल है.


कैसी है फिल्म?: फिल्म की सबसे खास बात ये है कि ये सोचने के लिए लालायित करती है. फिल्म की हर कहानी बेहतरीन तरीके से पेश की गई है वो भी सिर्फ आधे-आधे घंटे में. इसे देखते वक्त आप बोर तो बिल्कुल भी नहीं होंगे. फिल्म की हर कहानी सटायर करते हुए सवाल खड़े करती है, लेकिन जवाब नहीं देती है. क्योंकि जिन मुद्दों पर सवाल खड़े किए गए हैं उनके जवाब किसी मास मसाला और हैप्पी एंडिंग वाली फिल्म में ही दिखाए जा सकते हैं. सच ये है कि असल जिंदगी में इनमें से हर सवाल का जवाब हम आज भी ढूंढ ही रहे हैं. 


एक्टिंग: सबसे ज्यादा अगर किसी ने चौंकाया है तो वो हैं जॉनी लीवर. इससे पहले वो कभी इस तरह के रोल में दिखे ही नहीं. उन्हें अगर आप आंखें बड़ी करके लाउड कॉमेडी करने वाले एक्टर की तरह पहचानते हैं, तो यहां उन्होंने ऐसी पहचान को फिर से पर्दे पर दोहराने से रोका है. उनकी कहानी हंसाती है लेकिन सिचुएशनल तरीके से. वो हंसाने के लिए मेहनत नहीं करते. वो सिर्फ सहज एक्टिंग करते नजर आए हैं.


वहीं दूसरी कहानी में जितेंद्र कुमार उर्फ जीतू भइया और निमिषा सजयन ने गांव के दबे-कुचले तबके से आने वाले लेकिन कॉन्फिडेंट लोगों का किरदार बढ़िया तरीके से निभाया है. इसके अलावा, जिसू सेनगुप्ता, भगवान तिवारी और बोलोराम दास ने अपने-अपने किरदारों में जान फूंकी है.


डायरेक्शन: फिल्म की पहली कहानी 'हुड़-हुड़ दबंग' का डायरेक्शन कौशिक गांगुली ने किया है. कौशिक गांगुली बंगाली सिनेमा के बड़े नाम हैं. वो अपने काम में कितने माहिर हैं, वो आपको इस कहानी में देखने को मिलेगा. वो इस कहानी के हर सीन में कुछ न कुछ मैसेज सटायरिकल तरीके से देते हैं. उन्होंने इनसिक्योर पुलिसवाले की कहानी के साथ-साथ 'समाज की नजरों' में घिनौना काम करने वाले मुजरिम की कहानी दिखाई है. ऐसा मुजरिम जो सही मायने में मुजरिम है भी या नहीं? कौशिक गांगुली ने कचहरी के अंदर का माहौल ऐसा दिखाया है मानो उन्होंने सालों खुद कचहरी में बिताए हों. वकीलों की बातें, खराब पंखा और जज-मुजरिम के बीच की डिस्कशन सब कुछ ऐसा लगता है मानों सच में हो रहा हो. कहानी में एलजीबीटीक्यू समुदाय की परेशानियों और झल्लाहट को महीन तरीके से उकेरते हुए सवाल पूछ गए हैं.



  • दूसरी कहानी 'धरना जारी' है को पंजाबी सिनेमा के बड़े नाम गुरविंदर सिंह ने डायरेक्ट किया है. कहानी ऐसे प्रधान परिवार की है, जिनका निचली जाति से होना उनके लिए अभिशाप बन गया है. प्रधान बन जाने के बावजूद प्रधान की शक्तियां उसके पास नहीं हैं. धरने पर बैठी इस महिला प्रधान को सालों बीत जाते हैं, लेकिन हैप्पी एंडिंग जैसा कुछ भी नहीं मिलता. इस कहानी में डायरेक्टर ने पूरा ख्याल रखा है कि सरकारी बाबू और सरकारी दफ्तरों में काम कैसा होता है, इसे सजीव तरीके से दिखाया जा सके. एक-एक चीज रियल लोकेशन में शूट करके जान फूंकी गई है.  गुरविंदर सिंह की ये पेशकश देखकर पता चलता है कि उन्हें अपने काम को सफाई से और कम बजट में करना कितने बढ़िया तरीके से आता है.

  • तीसरी कहानी को असम सिनेमा के डायरेक्टर भास्कर हजारिका ने डायरेक्ट किया है. उन्होंने कोरोना काल को बैकग्राउंड में रखा है. महामारी के दौरान आर्थिक तंगी से जूझ रहा एक न्यूज ऑर्गनाइजेशन कैसे उससे उबरने की कोशिशों में उसूलों से कंप्रोमाइज करता है, ये दिखाने का तरीका काबिलेतारीफ है. अगर आप मीडिया जगत को अंदर से थोड़ा-बहुत भी जानते हैं, तो आप समझ पाएंगे कि डायरेक्टर की समझ का लेवल कितना अच्छा है. प्राइमटाइम में खबरें कैसे चलती हैं, स्पॉन्सर्स और ऐड देने वाले क्लाइंट कैसे अच्छे पत्रकारों को भी अपनी उंगलियों में नचा सकते हैं, ये सब कुछ व्यंग्यात्मक तरीके से भले ही दिखाया गया हो. लेकिन डराता है. डराता है तो मान सकते हैं कि वो अपनी कहानी कहने में सफल हुए हैं. इस कहानी में टिकर, पीसीआर, प्राइमटाइम, वर्क फ्रॉम होम शब्दों का इस्तेमाल ही दिखा जाता है कि असम के इस डायरेक्टर को यूं ही नैशनल अवॉर्ड नहीं मिल गया.


क्यों देखें?: लंतरानी समझने के लिए देखें, ये समझने के लिए देखें कि लंतरानी का मतलब ऐसा भी कुछ हो सकता है.



  • फिल्म को तीन-तीन अलग सिनेमा जगत को नैशनल अवॉर्ड विनर्स ने डायरेक्ट किया है. इनमें से कोई भी बॉलीवुड के लिए नहीं जाना जाता. कोई असम से कोई बंगाल से तो कोई पंजाबी सिनेमा जगत का सितारा है. तीनों ने मिलकर एक साथ एक जगह व्यंग्य का पिटारा खोल दिया है. उसे समझने के लिए देखें.

  • तीनों कहानियां बेशक अलग-अलग हों, लेकिन उनका मूल एक ही है. और तीनों डायरेक्टर्स ने उस सामंजस्य को बिठाकर रखा है. उस बेहतरीन सामंजस्य को महसूस करने के लिए देखें.

  • कहानियां सवाल उठाती हैं और सच दिखाती हैं. लेकिन बोझिल नहीं होतीं. हंसाते-हंसाते परेशान करती हैं. खुद से पूछने के लिए मजूबर करती हैं कि ऐसा क्यों है. उन सवालों को अपने मन में उफनाते हुए फील करने के लिए देखें.

  • कम बजट और कम रिसोर्स में इतनी बेहतरीन फिल्म भी बनाई जा सकती है, ये समझने के लिए देखें.

  • फिल्म में स्वच्छता अभियान और उसे लेकर आम लोगों की समझ, एलजीबीटीक्यू समुदाय की झल्लाहट, सरकारी दफ्तरों का करप्शन और धरने का लेकर कैसी मिसइनफॉर्मेशन फैलाई जाती है. ये सब आपने फील तो किया ही होगा, लेकिन उसे पर्दे पर देखना ये संतुष्टि देता है कि सिर्फ हम ही नहीं हैं, जो इन चीजों का सामना कर रहे हैं. और भी लोग हैं जो ये समझ रहे हैं. बस इस भावना से सराबोर होने के लिए देखें.


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