Radhe Shyam Review: अमेरिकी लेखक टॉम कॉनेलन की बेस्ट सेलर किताब है, 1%फार्मूला. यह जीवन में एक फीसदी का महत्व समझाती है कि कोशिशों में रह गई इतनी-सी कमी या दूसरों से एक प्रतिशत अतिरिक्त प्रयास कैसे नतीजों को बदलते हैं. लेखक-निर्देशक राधा कृष्ण कुमार की फिल्म राधे श्याम कहती है कि यही एक फीसदी की ताकत कई बार 99 फीसदी के पलड़े पर भारी पड़ जाती है. मामला यहां हाथों की लकीरों यानी ज्योतिष का है. फिल्म में हीरो ‘इंडिया का नास्त्रेदमस’ है. वह जिसके भी हाथ की लकीरें पढ़कर कुछ बताता है, वह कभी नहीं बदलता. लगभग 1975 में शुरू होने वाली कहानी में हीरो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का हाथ देखकर बता देता है कि वह देश में इमरजेंसी लगाने वाली हैं. इसके बाद उसका भारत में रहना मुश्किल हो जाता है. वह यूरोप में निकल जाता है.
राधे श्याम पामिस्ट्री यानी हस्तरेखा शास्त्र के बहाने विज्ञान और ज्योतिष में संतुलन बैठाने की कोशिश करती है. इसका एक ज्योतिषी किरदार कहता है कि विज्ञान का अर्थ है, जो समझ से बाहर है उसे समझने और समझाने की कोशिश हो, न कि उसका विरोध किया जाए. दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं - एक, जो ज्योतिष विज्ञान को मानते हैं और दूसरे, जो ज्योतिष विज्ञान को नहीं मानते. लेकिन न मानने वालों को ज्योतिष कभी-कभी चौंका देता है. फिल्म की कहानी में भी कुछ यही होता है.
दुनिया के सबसे खूबसूरत शहरों में एक रोम (इटली) में रहने वाली नायिका डॉ. प्रेरणा चक्रवर्ती (पूजा हेगड़े) को असाध्य ब्रेन ट्यूमर है और ज्यादा से ज्यादा तीन महीने की सांसें उसके खाते में हैं. प्रेरणा समेत उसके डॉक्टर चाचा (सचिन खेडेकर) और पूरा परिवार इस सच को स्वीकार चुका है. मगर तभी प्रेरणा की मुलाकात आदित्य (प्रभास) से होती है. आदित्य प्रेरणा को बताता है कि उसके हाथों में लंबी उम्र की लकीर है. वह दो सुंदर बच्चों की मां बनेगी, अपना अस्पताल खोलेगी और आगे चलकर दुनिया का बड़ा मेडिकल पुरस्कार भी उसे मिलेगा. यहां से विज्ञान और आदित्य का ज्ञान टकराते हैं. दूसरी टक्कर यह भी है कि आदित्य को पता है, उसके हाथों में प्यार और शादी की लकीर नहीं है. इसलिए वह लड़कियों से सिर्फ फ्लर्ट करता है. जबकि प्रेरणा उससे प्यार करने लगी है और वह भी मन ही मन उसे चाहने लगा है. इन विरोधाभासी बिंदुओं के आगे कहानी क्या मोड़ लेगी, यह राधे श्याम देखने पर पता चलता है. क्या लकीरों का लिखा नहीं बदलेगा या फिर इंसानी जज्बा जिंदगियों की नई इबारत लिखेगा.
करीब 350 करोड़ रुपये के बजट के साथ भारत की सबसे महंगी फिल्मों में बताई जा रही राधे श्याम के बारे में यह बात साफ हो जानी चाहिए कि यह हिंदी फिल्म है. डब नहीं. यह तेलुगु में भी समानांतर बनाई गई है. राधे श्याम की एकमात्र खूबसूरती यह है कि इसे किसी पेंटिंग की तरह बनाया-सजाया गया है. इसमें एक-एक चीज को बहुत सजाकर-सहेज कर रखा गया है. उदासी भरे दृश्यों में भी यहां हर चीज चमकती है. रेल के इंजन के पहिये भी पर्दे पर आते हैं, तो उनमें ग्रीस नहीं दिखता बल्कि पहियों को जोड़ती स्टील की रॉड जगमगाती है. यह तमाम सौंदर्य इतना स्थिर दिखता है कि उसके मुर्दा होने का आभास होता है. इस लिहाज से पूरी फिल्म प्लास्टिक के फूल की तरह है. जो आंखों को तो अच्छा लगते हैं लेकिन उसमें खुशबू नहीं होती. रोमांस करते हुए प्रभास असर नहीं छोड़ पाते. पूजा हेगड़े सुंदर दिखी हैं. सचिन खेडेकर और भाग्यश्री औसत हैं. लव स्टोरी होने के बावजूद राधे श्याम के गीत-संगीत में दम नहीं है.
जहां तक कहानी का सवाल है तो निर्देशक दोनों पलड़ों को बराबर रखना चाहते हैं. वह कहते हैं कि ज्योतिष में सब कुछ पहले ही बताने की ताकत है, लेकिन एक फीसदी की गुंजाइश भी है. यह गुंजाइश किसी और वजह से नहीं बल्कि उन लोगों की इच्छाशक्ति से पैदा होती है, जो खुद अपने हाथों से जीवन-रथ के पहिये मोड़ देते हैं. असल में यही वे लोग हैं, जो इतिहास रचते हैं. आदित्य और प्रेरणा की कहानी सुना रही बिग बी की आवाज में पर्दे के अंतिम दृश्य के साथ संवाद गूंजता है, ‘किस्मत तुम्हारे हाथों की लकीरें नहीं, तुम्हारे कर्मों का नतीजा है.’
राधे श्याम की रफ्तार धीमी है और खास तौर पहला हिस्सा धैर्य की परीक्षा लेता है. दूसरे हिस्से में थोड़ी रफ्तार बढ़ती है, लेकिन कहानी के तमाम सिरे खुल जाते हैं और आप बगैर देखे भी जानते हैं कि अंत में क्या होगा. इस तरह फिल्म प्रेम के कुछ भावुक पलों के बावजूद बांध नहीं पाती. पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को जरूर यह फिल्म थोड़ी अधिक पसंद आ सकती है. राधे श्याम दो-तीन दशक पुरानी प्रेम कहानी जैसी मालूम पड़ती है. फिल्म को जरा अलग अंदाज में लिखा गया होता तो इसका रोमांच बढ़ सकता था. फिल्म खत्म होते-होते डॉ.बशीर बद्र का यह शेर याद आता हैः ‘कभी मैं अपने हाथों की लकीरों से नहीं उलझा, मुझे मालूम है किस्मत का लिखा भी बदलता है.’