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Rautu Ka Raaz Review: हल्के-फुल्के अंदाज में सस्पेंस परोसती फिल्म है 'रौतू का राज', देसी शरलॉक होम्स बने नवाजुद्दीन सिद्दीकी पसंद आएंगे आपको

Rautu Ka Raaz Review: ये फिल्म कुछ अलग है. सस्पेंस के साथ सोशल मैसेज देती ये फिल्म हल्के-फुल्के अंदाज में भारी बातें कह जाती है. इससे पहले कि आप फिल्म देखने का मन बनाएं, यहां इसके बारे में जान लीजिए.

Rautu Ka Raaz Review: 'रौतू का राज' का 28 जून से जी5 पर स्ट्रीम हो चुकी है. काफी समय से सस्पेंस फिल्में आ भी नहीं रहीं, तो ऐसे में ये फिल्म आपके लिए बेस्ट चॉइस हो सकती है. इसके पहले कि आप फिल्म देखने का मन बना रहे हैं, जान लीजिए कैसी है नवाजुद्दीन सिद्दीकी की एक्टिंग से सजी ये फिल्म.

कहानी
उत्तराखंड के एक छोटे से गांव रौतू में चल रहे एक ब्लाइंड स्कूल में अचानक से एक वॉर्डेन की मौत हो जाती है. मौत की ये घटना शुरुआत में नैचुरल डेथ लगती है. लेकिन पूरे शहर में चर्चा का विषय तब बन जाती है, जब ये घटना मौत और मर्डर के बीच उलझती है. इनवेस्टिगेशन ऑफिसर दीपक नेगी बने नवाजुद्दीन सिद्दीकी और उनकी टीम इस गुत्थी को सुलझाने निकलते हैं. 

इस गुत्थी को सुलझाते-सुलझाते नए-नए कैरेक्टर्स की एंट्री होती जाती है और हर कैरेक्टर की एंट्री के साथ एक नया शक पैदा होता जाता है. नवाज का रोल एक 'अजीब' पुलिस ऑफिसर का है जो अपने ही अंदाज में हर चीज का सॉल्व करने की कोशिश में रहता है. फिल्म एक मर्डर मिस्ट्री है, इसलिए कहानी के बारे में ज्यादा बात करने से स्पॉइलर हो सकता है. इसलिए, इस पर बात यहीं रोक देते हैं.

कैसी है फिल्म?
ये एक बेहद साफ-सुथरी और हल्के-फुल्के अंदाज में कहानी कहती फिल्म है. फिल्म की गति में भी कोई तेजी नहीं है और फिल्म की बढ़ती कहानी इसकी स्पीड पर कोई असर भी नहीं डालती. फिल्म में एसएचओ दीपक नेगीके अलावा, उनकी पूरी टीम की भी छोटी-छोटी मजेदार कहानियां पिरोई गई हैं.

फिल्म नॉर्मल मर्डर मिस्ट्री से थोड़ी सी हटकर बनाई गई है. फिल्म में सोशल मैसेज देने की भी भरपूर कोशिश की गई है. जिसमें करप्शन, गंदी राजनीति, महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार जैसी चीजों को भी जगह दी गई है. फिल्म सस्पेंस के साथ-साथ सान्या मल्होत्रा की 'कटहल' वाला फ्लेवर भी परोसती है.

उत्तराखंड के गांव और वहां रहने वालों की भाषा और रहन-सहन का ऐसा ख्याल रखा गया है कि आप खुद को थोड़ी देर के लिए पहाड़ों में महसूस करेंगे. कहानी बढ़ने के साथ धीरे-धीरे एहसास होता है कि ये देसी शरलॉक होम्स जैसी फिल्म है. जिसमें भले ही शरलॉक होम्स जैसी स्पीड न हो, लेकिन आत्मा वही है.

डायरेक्शन
फिल्म का डायरेक्शन आनंद सुरपुर ने किया है. ये वही हैं जिन्होंने 'द फकीर ऑफ वेनिस' जैसी फिल्म बनाई है. उन्होंने फिल्म को बनाते समय छोटी-छोटी रिसर्च करना नहीं भूले. फिल्म में वो पुलिस की जांच में बरती जा रही अनियमितताओं को सटीक तरह से दिखा जाते हैं. पुलिस की हीलाहवाली देखकर आपको इरफान खान की 'तलवार' की याद आ जाएगी. 

फिल्म में एक जगह Viscera preserve की बात होती है जिसे सुनकर लगता है कि हल्के-फुल्के अंदाज में भी भारी चीजें दिखाना इतना भी कठिन नहीं है. ये पोस्टमॉर्टम के बाद की एक मेडिकल प्रैक्टिस है जिसमें जिसमें बॉडी के नमूने संरक्षित किए जाते हैं. कुल मिलाकर डायरेक्टर की मेहनत दिखती है और वो इस लाइन से कहीं हटते हुए भी नहीं दिखते. वो स्पीड में चलने के बजाय आराम से कहानी कहने में विश्वास रखने वाले लगते हैं.

एक्टिंग
फिल्म में एक्टिंग की बात करें तो ये फिल्म का एक मजबूत पक्ष है. एसएचओ नेगी के किरदार में एक 'अजीब' और तेज पुलिसवाले की तरह ही लगते हैं. फिल्म को उन्होंने अपने कंधों के जोर से और ऊपर उठाने की कोशिश की है. वो हर सीन में जंचे हैं. इसके अलावा, उनके बाद दूसरे एक्टर 'साराभाई वर्सेज साराभाई' फेम राजेश कुमार ने बहुत दिनों बाद पर्दे पर वापसी की है. उनकी एक्टिंग और टाइमिंग दोनों सधी हुई लगी हैं. साथ ही साथ फिल्म के बाकी छोटे कैरेक्टर्स में आ रहे एक्टर्स भी ठीक काम कर जाते हैं.

फिल्म की कमियां 

  • फिल्म में कई जगह कॉमेडी क्रिएट करने के चक्कर में ढील छोड़ी गई है. जो फिल्म को कमजोर करते हैं. आपको याद होगा कि 90s में कई फिल्मों में किसी खास डायलॉग या सीन का दोहराव पूरी फिल्म में हुआ करता था, जिससे कॉमेडी करने की कोशिश होती थी. इस फिल्म में भी ऐसी ही स्थितियां पैदा कर सीन्स का दोहराव किया गया है. जिसे देखकर समझ नहीं आता कि ऐसा करने की जरूरत क्या थी, जब सब कुछ इतना बढ़िया चल ही रहा था. 
  • कुछ डायलॉग्स जबरन के रखे गए लगते हैं. जो न भी होते तो फिल्म की थोड़ी और लेंथ कम होकर कसाव आता. जैसे एक सीन में काजोल का नाम लेने में नवाजुद्दीन अटकते हैं या फिर नाम भूलते दिखते हैं. ये सीन बिल्कुल भी जरूरी नहीं था. ये सिर्फ एक इग्जैंपल है. ऐसे कई सीन हैं. 
  • कुछ और भी कमियां हैं जैसे एक्टर 20 लाख की रकम को कई जगह 20 लाख तो कई जगह 30 लाख बोलते सुनाई देते हैं. और जब इनवेस्टिगेशन हो रही होती है, तो पहली बार पूरा कमरा चेक किया जाता है, तो कोई कैश नहीं मिलता. जब दूसरी बार चेक किया जाता है को बड़ी रकम मिलती है. ये सीन देखकर ऐसा लगता है मानो कहानीकार ने अपने मुताबिक कहानी कहने के लिए चीजों में अपने हिसाब से बदलाव कर लिया हो.
  • कई और चीजें रह गई हैं, जैसे कुछ कैरेक्टर्स की भाषा में गढ़वाली टोन दिखता है, तो कुछ सीधी-सीधी हिंदी बोलते नजर आते हैं. पूरी फिल्म में दो बुजुर्गों के कई सीन हैं, जो नैरेटर की तरह बीच-बीच में आकर एसएचओ नेगी और मर्डर वाली घटना की बात करते हैं. ये नैरेटर क्यों रखे गए थे, ये बात आपको फिल्म खत्म होने के बाद भी समझ नहीं आएगी.

फिल्म की स्ट्रेंथ

  • फिल्म की सबसे पहली स्ट्रेंथ नवाजुद्दीन सिद्दीकी ही हैं. अगर वो नहीं होते फिल्म में तो शायद फिल्म बिखरी हुई लगती. उनकी स्किल फिल्म को बांधने का काम करती है.
  • फिल्म में सोशल मैसेज बेहद सरल तरीके से दिए गए हैं. जो सुनने में प्रभावी लगते हैं. जैसे एक कैरेक्टर रेप की कोशिश की घटना को ये कहकर आम बनाने की कोशिश करता है कि लड़की रात में हीरोइन बनकर क्यों घूम रही थी. ऐसे में दूसरा कैरेक्टर उसे डांटते हुए ये मैसेज देते दिखाई देता है कि कोई कुछ भी करे कैसे भी रहे, इसका मतलब ये नहीं है कि किसी के साथ इतनी ओछी हरकत की जाए.
  • रेप जैसे जघन्य अपराधों पर सवाल खड़ी करती ये फिल्म फिजिकली हैंडीकैप्ड बच्चों के बेहतर भविष्य से जुड़ी सॉल्युशन भी बताती नजर आती है. और ये सब कुछ फिल्म को बेहतर बनाता है.
  • फिल्म में सस्पेंस बराबर बरकरार रहता है जो इस फिल्म को आखिर तक दिलचस्प बनाकर रखता है.

और पढ़ें: Indian Police Force Review: एक्शन और रोमांच देने की कोशिश में हल्का सा चूक गए रोहित शेट्टी, कैसी है 'इंडियन पुलिस फोर्स'?

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