Rocket Boys Review: आज यह कहने-सुनने में गर्व होता है कि भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में बड़ी ऊंचाइयां हासिल की हैं. चांद पर अपना यान उतार दिया है, मंगल तक यान भेज दिया है. साथ ही आज हम विश्व की प्रमुख परमाणु शक्ति भी हैं. मगर यह कोई रातों रात हुआ चमत्कार नहीं है. इसके पीछे देश के भविष्य को देखने वाली दृष्टि से लेकर भारत को विश्व में सम्मानजनक स्थिति दिलाने की दृढ़ इच्छाशक्ति वाले वैज्ञानिक, विचारक और राष्ट्रीय नेता शामिल हैं. सोनी लिव पर रिलीज हुई वेब सीरीज रॉकेट बॉय्ज यहां उन दो महान वैज्ञानिकों की कहानी कहती है, जिन्होंने सोते-जागते भारत के लिए संपन्न, समृद्ध, स्वाभिमानी और सशक्त भविष्य के सपने देखे. ये रॉकेट बॉय्ज हैं, भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के जनक डॉ. होमी जहांगीर भाभा और भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की संकल्पना करने वाले डॉ. विक्रम साराभाई.
करीब 40-40 मिनिट की आठ कड़ियों वाली रॉकेट बॉय्ज की कहानी शुरू होती है 1962 में चीन के हाथों भारत की सैन्य पराजय के साथ. तब होमी (जिम सारभ) तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू (रजित कपूर) से कहते हैं कि जरूरी नहीं कि चीन भविष्य में हमलावर नहीं होगा, इसलिए जरूरी है कि हम परमाणु बम बनाएं. नेहरू असमंजस में हैं. होमी के मित्र और कभी उनके छात्र रहे विक्रम साराभाई (इश्वाक सिंह) परमाणु बम बनाए जाने का खुला विरोध करते हैं क्योंकि दुनिया दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराए परमाणु बमों से हुई तबाही देख चुकी है. होमी और विक्रम के इस टकराव के साथ कहानी फ्लैशबैक में 1930 के दशक में चली जाती है और फिर दोनों का जीवन यहां से आकार लेता नजर आता है.
होमी विश्व युद्ध के दौरान भारत लौट कर कलकत्ता के एक साइंस कॉलेज में प्रोफेसर हो जाते हैं, जबकि विक्रम कैंब्रिज में अपना रिसर्च छोड़ कर घर आ जाते हैं. होमी जहां परमाणु विज्ञान में दिलचस्पी रखते हैं, वहीं विक्रम की सपना देश का पहला रॉकेट बनाने का है. अपनी चाल चलता समय दोनों को एक मुकाम पर लाता है और वे मिल कर काम करते हैं. जहां होमी प्रोफेसर हैं और विक्रम उनके स्टूडेंट. धीरे-धीरे दोनों दोस्त बन जाते हैं. बावजूद इसके कि दोनों के विचार कई मुद्दों पर मेल नहीं खाते और तकरार लगातार चलती है, उनकी दोस्ती बरकरार रहती है. दोनों के व्यक्तित्व यहां विरोधाभासी नजर आते हैं.
1942 में महात्मा गांधी के अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन से प्रभावित होकर होमी और विक्रम कॉलेज में एक दिन अंग्रेजों का यूनियन जैक उतार कर स्वराज का तिरंगा लहरा देते हैं और उनका मुश्किल वक्त शुरू होता है. होमी कॉलेज से अपनी नौकरी छोड़ कर मुंबई चले जाते हैं और जेआरडी टाटा के साथ उनका नया सफर शुरू होता है. दूसरी तरफ विक्रम पढ़ाई के साथ-साथ कपड़ा मिल मालिक पिता के कारोबार में हाथ बंटाने लगते हैं. वे कपड़ा मिलों को आधुनिक बनाना चाहते हैं लेकिन यूनियन लीडरों का विरोध सहना पड़ता है. ऐसे में उनका रॉकेट बनाने का सपना पीछे चला जाता है. रॉकेट बॉय्ज की कहानी यहां से दोनों महान-मस्तिष्कों की उलझनों, सपनों को साकार करने में आने वाली रुकावटों, निजी जिंदगी के उतार-चढ़ावों और भावनात्मक उथल-पुथल को सामने लेकर आती है. विक्रम जहां एक डांसर मृणालिनी (रेजिना कैसेंड्रा) से प्रेम में पड़ कर विवाह कर लेते हैं, वहीं वकील पीप्सी (सबा आजाद) से होमी की मोहब्बत अधूरी रहती है. यहां सीवी रमन और एपीजे अब्दुल कलाम (अर्जुन राधाकृष्णन) जैसे महान वैज्ञानिक भी कहानी का हिस्सा बन कर आते हैं. हालांकि फोकस इन पर नहीं है.
रॉकेट बॉय्ज चुनिंदा दर्शकों के लिए है. खास तौर उनके लिए, जिनकी दिलचस्पी साइंस में है. जो देश के अंतरिक्ष और परमाणु इतिहास में दिलचस्पी रखते हैं. जो डॉ. होमी भाभा और डॉ. विक्रम साराभाई की जिंदगी के बारे में जानना चाहते हैं. सीरीज की समस्या यह है कि इसकी रफ्तार धीमी है. बहुत सारी साइंस की बातें हैं. जो हर किसी के समझ नहीं पड़ेगी. रोमांस थोड़ा है. थोड़ा थ्रिल भी पैदा होता है, जब कहानी में अमेरिका द्वारा होमी की जासूसी कराए जाने वाला एंगल आता है. लेकिन आम दर्शक के लिए यह नाकाफी है. सीरीज के लगभग आधे संवाद अंग्रेजी में हैं. ऐसे में ठेठ हिंदी भाषी दर्शकों के यहां जमे रहने की गुंजायश कम है. इस वेबसीरीज को सिर्फ एंटरटेनमेंट के लिहाज से नहीं देखा जा सकता.
होमी और विक्रम के किरदार यहां खूबसूरती से उभरे हैं. जिम सरभ और इश्वाक सिंह ने अपनी भूमिकाएं प्रभावी ढंग से निभाई हैं. जिम सरभ अपने अंदाज से यहां याद रह जाते हैं जबकि इश्वाक सिंह की सादगी मोहने वाली है. रेजिना कैसेंड्रा और सबा आजाद भी अपने किरदारों में जमी हैं. होमी के प्रतिद्वंद्वी के रूप में रजा मेहदी बने दिव्येंदु भट्टाचार्य का काम अच्छा है. स्वतंत्र भारत के शिल्पी कहे जाने वाले प्रथम प्रधानमंत्री पं.नेहरू के किरदार को रॉकेट बॉय्ज में जिस तरह उकेरा गया है, उसे देख कर कहीं-कहीं लगता है कि यह उन्हें जानबूझकर कमजोर और संशयग्रस्त दिखाने की कोशिश है. यह एक अलग बहस का विषय है.