Vadh Review: मर्डर और वध में क्या फर्क होता है, आप कहेंगे एक ही तो बात है लेकिन नहीं, एक बात नहीं है. क्यों नहीं है, ये आपको संजय मिश्रा और नीना गुप्ता की ये फिल्म देखकर समझ आता है. ये एक शानदार फिल्म है जो आपको सीट से हिलने का मौका नहीं देती. ट्विस्ट एंड टर्न होश उड़ा देते हैं और आप हैरान हो जाते हैं कि एक बुजुर्ग ऐसा भी कर सकता है. 


कहानी
शंभूनाथ मिश्रा यानि संजय मिश्रा एक रिटायर्ड टीचर हैं और अपनी पत्नी मंजू मिश्रा यानि नीना गुप्ता के साथ ग्वालियर में रहते हैं. बेटे के पढ़ाने के लिए कर्ज लिया था. बेटा विदेश जाकर सेटल हो गया है और और अब उसके पास मां बाप से बात तक करने की फुर्सत नहीं है. जिनसे कर्ज लिया है वो संजय मिश्रा को परेशान कर रहे हैं और इसी बीच कुछ ऐसा होता है कि संजय मिश्रा से हो जाता है एक वध. और इसके बाद हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि वो थाने जाकर सब बता भी देते हैं लेकिन फिर भी पकड़े नहीं जाते. ऐसा क्यों होता है कहानी में ऐसे क्या ट्विस्ट एंड टर्न आते हैं कि आप बार बार चौंक जाते हैं. इसके लिए थिएटर जरूर जाइए क्योंकि ये कहानी थिएटर में देखनी चाहिए. ये कहानी उन काफी सारे बुजुर्ग माता पिता के दर्द को भी दिखाती है जिनके बच्चे उनसे दूरी बना लेते हैं.


एक्टिंग

संजय मिश्रा ने कमाल का काम किया है. एक बुजुर्ग जो गुंडों के आगे बोल भी नहीं पाता वो कैसे एक वध कर देता है और फिर कैसे अपने इस गुनाह को छिपाता है. इस किरदार को संजय मिश्रा ने पूरी परफेक्शन से निभाया है. बेटे की बेरुखी के बाद उनके चेहरे पर आने वाले एक्सप्रेशन आपको भी परेशान करते हैं और वध के बाद वो जिस तरह से रिएक्ट करते हैं वो आपको हैरान करता है. ये शायद संजय मिश्रा के सबसे बेहतरीन किरदारों में से एक है. नीना गुप्ता ने भी शानदार काम किया है. कैसे बच्चे की बेरुखी के बाद भी मां की ममता कम नहीं होती. ये नीना का किरदार शानदार ढंग से दिखाता है. सौरभ सचदेवा नेगेटिव रोल में हैं और उनका काम भी काफी अच्छा है. पुलिसवाले के किरदार में मानव विज काफी इम्प्रेस करते हैं.



कैसी है फिल्म

शुरुआत थोड़ी स्लो लगती है. लगता है कहानी तो बड़ी धीरे धीरे आगे बढ़ रही है लेकिन ये एक शानदार कहानी का बिल्ड अप होता है जो आपको बाद में समझ आता है. सेकेंड हाफ फिल्म की जान है और आपको सीट से हिलने का मौका नहीं देता. एक के बाद एक ट्विस्ट आते हैं और आप खूब हैरान होते हैं.

 

डायरेक्शन
जसपाल सिंह संधू और राजीव बर्नवाल ने फिल्म को लिखा और डायरेक्ट किया है और इन दोनों ने ये काम शानदार तरीके से किया है. फर्स्ट हाफ को थोड़ा औऱ कसा जा सकता था लेकिन सेकेंड हाफ के शुरू होती ही आप सब भूल जाते हैं. बच्चों की बेरुखी से परेशान बुजुर्गों के दर्द को एक थ्रिलर के जरिए दिखाना वाकई कमाल है.

 

कुल मिलाकर ये फिल्म थिएटर में देखी जानी चाहिए ,अच्छे सिनेमा को सपोर्ट नहीं करेंगे तो अच्छा सिनेमा बनेंगा कैसे.