Sardar Udham Review: विश्व इतिहास के सबसे जघन्य और निंदनीय सामूहिक नरसंहारों में जलियांवाला बाग हत्याकांड दर्ज है. 13 मार्च 1919 को अमृतसर स्थित इस बाग में एक जनसभा में शामिल हजारों निहत्थे लोगों पर अंग्रेज अफसर जनरल डायर ने गोलियां चलवा दी थीं. सैकड़ों लोग मारे गए, सैकड़ों घायल हुए, सैकड़ों अपंग हुए. इस शर्मनाक घटना को 100 साल से अधिक हो चुके है, ब्रिटिश राजपरिवार के किसी सदस्य या ब्रिटिश सरकार ने आज तक इसके लिए भारत से माफी नहीं मांगी. जनरल डायर अपनी मौत मरा लेकिन षड्यंत्र की रूपरेखा खींचने वाले तत्कालीन पंजाब प्रांत के गवर्नर माइकल ओ ड्वायर को मां भारती के सच्चे सपूत उधम सिंह ने लंदन जाकर करीब बीस साल बाद गोली मारी और बदला लिया.
निर्देशक शूजित सरकार की फिल्म सरदार उधम इसी वीर स्वतंत्रता सेनानी की बायोपिक है. अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई यह फिल्म तथ्यों के साथ आंशिक रचनात्मक आजादी लेते हुए सरदार उधम की जिंदगी की कहानी बताती है. जो निश्चित ही जानने और देखने योग्य है. भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के कई शहीदों को अभी न्याय और सम्मान मिलना बाकी है. वह जो इतिहास के पन्नों में कुछ पंक्तियों में सिमट गए और वह भी जो राजनीतिक रस्साकशी में हाशिये पर कर दिए गए. इस लिहाज से सरदार उधम की कहानी के लिए शुजित सरकार के काम की प्रशंसा करनी चाहिए क्योंकि उन्होंने इसे सिर्फ फिल्म न रखते हुए किसी दस्तावेज की तरह पर्दे पर उतारा है.
शुजित की फिल्म में 1900 से 1941 के दौर में भारत और लंदन जीवंत हो उठे हैं. चाहे जगहें-इमारतें-सड़कें हों, सभा भवन हों, किरदारों के परिधान हों, उस समय का माहौल हो या दृश्यों में नजर आने वाली तमाम प्रॉपर्टी. आप अतीत को अपनी आंखों के सामने मौजूद पाते हैं. फिल्म में शेर सिंह/उधम सिंह (विक्की कौशल) का शुरुआती सफर जेल से निकल कर रूस के रास्ते लंदन पहुंचने तक दिखाया गया है. लंदन में उधम को जनरल माइकल ओ ड्वायर (शॉन स्कॉट) की तलाश है. उसे भारतीयों से थोड़ी ही मदद मिलती है लेकिन वह इस सिरफिरे अंग्रेज को ढूंढ निकालता है और एक जलसे में गोली मार देता है. वह भागता नहीं और पुलिस को गिरफ्तारी देता है. इसके बाद उधम पर अंग्रेजों के जुल्म और अदालती मुकदमा है, जिसमें ज्यादा कुछ कहे-सुने अंग्रेज न्यायाधीश फांसी का फैसला लिख देता है.
जिंदगी का मकसद पूरा करने के बाद से उधम की जिंदगी की कहानी निर्देशक ने छोटे-छोटे फ्लैशबैक में बताई है. जिसमें जलियांवाला बाग हत्याकांड, इससे उधम का पर्सनल कनेक्ट, भगत सिंह के साथ दोस्ती, आयरिश बागियों से मिलने वाली मदद और उनके निजी जीवन के पल शामिल हैं. विक्की कौशल ने उधम सिंह के किरदार को जीवंत बना दिया है. उनका अभिनय और हावभाव सधे हुए हैं. किसी भी दृश्य में वह जरा नहीं लड़खड़ाए. वयस्क उधम से लेकर किशोरवय लड़के की भूमिका विक्की कौशल ने मंजे हुए अंदाज में निभाई है. अपनी प्रतिभा का परिचय वह पहले भी दे चुके हैं लेकिन यह रोल उनके करियर का ग्राफ ऊंचा कर देता है. वह इंडस्ट्री के बेहतरीन ऐक्टरों की कतार में मजबूत दावेदारी पेश करते हैं. बनिता संधु की भूमिका में विस्तार अधिक नहीं है. वह यहां संवाद भी नहीं कहतीं लेकिन हाव-भाव से असर पैदा करने में कामयाब हैं. माइकल ओ ड्वायर बने शॉन स्कॉट और उधम के वकील के रूप में स्टीफन होगन भी अपने किरदारों में फिट हैं. अमोल पाराशर यहां शहीद भगत सिंह के रोल में हैं.
फिल्म उधम सिंह के किरदार के साथ उस दौर में चल रही वैश्विक उथल-पुथल और आंदोलनों की बात भी करती है. इस तरह इसका कैनवास बड़ा हो जाता है. फिल्म बताती है कि स्वतंत्रता के लिए लड़ाई कैसे अलग-अलग स्तरों पर चल रही थी. देश में आजादी के दीवाने सड़कों पर उतर कर जेल जा रहे थे तो कई विदेश में रह कर मदद कर रहे थे या फिर मदद हासिल करने की कोशिशें कर रहे थे. फिल्म का कैमरा वर्क और कलर सुंदर है. इनमें सादगी है और रंग आंखों को नहीं चुभते. फिल्म का लुक रियल है.
सरदार उधम की लंबाई करीब पौने तीन घंटे की है. इसमें किसी तरह की रफ्तार या जल्दबाजी नहीं है. ऐसे में दर्शक के लिए सबसे जरूरी यह होगा कि वह पर्याप्त समय रखते हुए इसे देखे और धैर्य रखे. शूजित ने इसे आम मसाला बॉलीवुड पीरियड बायोपिक की तरह नहीं बनाया, इसलिए इस फिल्म को उस तरह नहीं देखा सकेगा. यह शुजित की महत्वाकांक्षी फिल्म है, जिसमें उन्हें पूरी टीम का अच्छा सहयोग मिला है. गेंद अब दर्शकों के पाले में है.