Sharmajee Ki Beti Review: 'वुमन एम्पॉवरमेंट' पर रिफ्रेशिंग तरीके से बात करती है 'शर्मा जी की बेटी', डायरेक्टर-राइटर ताहिरा कश्यप ने कमाल किया है
Sharmajee Ki Beti Review: फिल्म में अलग-अलग किरदार इस तरह से पेश किए गए हैं कि सबकी कहानी आपको अपनी सी लगेगी. ऐसी फिल्में जरूर बनती रहनी चाहिए. जानिए क्यों
Tahira Kashyap Khurrana
Sakshi Tanwar, Divya Dutta, Saiyami Kher, Sharib Hashmi
Amazon Prime
Sharmajee Ki Beti Review: किसी बड़े शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी और आपाधापी की वजह से खोती मुस्कुराहटों पर बेस्ड कई फिल्में बन चुकी हैं. लेकिन पिछले कुछ समय से ऐसे अच्छे कंटेंट पर बेस्ड फिल्में बननी बंद सी हो गई थीं.
'शर्मा जी की बेटी' ऐसी ही एक फिल्म है, जो आशाओं से भरी है. मुस्कुराहट देती है और जिंदगी की उलझनों को सुलझाने के बेहद हल्के-फुल्के लेकिन सटीक तरीके बताती है. अमेजन प्राइम पर स्ट्रीम हो रही 'शर्मा जी की बेटी' में ताहिरा कश्यप ने बेहद शालीन तरीके से वुमन एंपॉवरमेंट पर नया नजरिया पेश किया है.
कहानी
कहानी का केंद्र मुंबई शहर में रह रहीं कई अलग-अलग शर्मा फैमिलीज हैं. इन फैमिलीज की महिलाओं की जिंदगी इस बड़े शहर की परेशानियों में जल-भुन रही है. एक शर्मा फैमिली ज्योति शर्मा (साक्षी तंवर) और सुधीर शर्मा (शारिब हाशमी) और उनकी बेटी स्वाति शर्मा (वंशिका तपाड़िया) की है.
उसी बिल्डिंग में एक और शर्मा जी की बेटी तन्वी शर्मा (सैयामी खेर) रहती है. एक और शर्मा फैमिली है जिसमें किरण शर्मा (दिव्या दत्ता) और विनोद शर्मा (प्रवीण दबास) और उनकी बेटी गुरवीन शर्मा (अरिस्ता मेहता) हैं.
एक शर्मा फैमिली मिडिल क्लास है जिनके लिए पैसे और समय दोनों की बहुत कीमत है. दूसरी शर्मा फैमिली के पास पैसा है लेकिन छोटे शहर से बड़े शहर में शिफ्ट हुए हैं. इसलिए इस घर में दिव्या दत्ता वाला कैरेक्टर अकेलेपन से जूझ रहा है.
दूसरी ओर सैयामी खेर वाला कैरेक्टर एक क्रिकेटर का है, जो क्रिकेट में अपने लिए मुकाम खोज रहा है. उसका एक बॉयफ्रैंड है, जिसे ये मंजूर नहीं है कि वो किसी स्ट्रॉन्ग महिला की तरह बिहेव करे. वो उसकी फिजिटल अपीयरेंस को लेकर टोकता रहता है.
इन सबके बीच पहली और दूसरी फैमिली की बेटियां एक-दूसरे की दोस्त हैं और एक साथ एक ही स्कूल में पढ़ भी रही हैं. ये टीनएजर हैं तो इनकी अपनी समस्याएं हैं.
कैसी है फिल्म?
फिल्म को आयुष्मान खुराना की पत्नी ताहिरा कश्यप ने लिखा भी है और डायरेक्ट भी किया है. फिल्म देखने के बाद ये कहना गलत नहीं होगा कि उन्होंने इस फील्ड में अपनी किस्मत आजमाने में देर क्यों कर दी. फिल्म का हर एक सीन और डायलॉग मीनिंगफुल हैं. फिल्म में बड़े शहर में खुद की कैद में रह रहे लोगों की उलझनों को बेहद रिफ्रेशिंग तरीके से दिखाया गया है.
फिल्म कई मामलों में वर्जनाएं तोड़ती दिखती है. ये कोशिश काबिलेतारीफ है कि 13-14 साल के बच्चे कैसे सोचते हैं, उन्हें जल्दी बड़े होने का कितना शौक होता है और टीनएज में कौन-कौन सी प्रॉब्लम्स से जूझ रहे होते हैं, इन सबको बेहद सहज और सरल अंदाज में दिखा जाना.
इस मामले में ताहिरा की तारीफ और भी बनती है कि उन्होंने हिम्मत दिखाई कि कम उम्र में बच्चों के शारीरिक और मानसिक बदलावों को उन्होंने बेहद सरल तरीके से दिखाया जाए. मैंस्ट्रुअल साइकल और शारीरिक बदलावों के साथ सेक्शुअलिटी को लेकर टीनएज बच्चों का सोचना कैसा होता है, इसे दिखाने का तरीका भी साफ-सुथरा है.
फिल्म कहीं-कहीं धीमी होती है, लेकिन फिल्म का धीमापन खलता नहीं. फिल्म के इमोशनल सीन्स माहौल को इमोशनल बनाकर धीमेपन को नेगेटिव नहीं साबित होने देते. सबसे अच्छी बात ये है कि फिल्म में विमेन एम्पॉवरमेंट की बात करते हुए ताहिरा हल्का सा भी इधर-उधर नहीं भटकी हैं. उन्होंने महिलाओं के अंदर पनप रहे गुस्से, परेशानी और उनके अकेलेपन पर बात तो की है, लेकिन फिल्म में मौजूद पुरुष कैरेक्टर्स को विलेन नहीं बनाया है.
कई बार फिल्मों में सच को सच की तरह तो दिखाया जाता है लेकिन उसे या तो जरूरत से ज्यादा ग्रे और घिनौना बना दिया जाता है जरूरत से ज्यादा खूबसूरत बनाने की कोशिश की जाती है. इस फिल्म में ऐसा नहीं है. फिल्म में सच को सच की तरह दिखाते हुए उसका सॉल्यूशन भी बेहद सरलता से बताया गया है. एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर, समलैंगिकता, टीनएज की समस्याओं सबको एक साथ पिरोकर फिल्म का सीक्वेंस ऐसा रखा गया है कि फिल्म खूबसूरत बन पड़ी है.
फिल्म के डायलॉग्स आम बोलचाल वाले हैं. इनमें फिल्मी जैसा कुछ नहीं है, लेकिन वो सुनने में सुकून देने वाले लगते हैं. कम बजट में बेहतरीन कंटेंट दिखाने की कोशिश में ताहिरा पास हुई हैं.
एक्टिंग
कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि किसी फिल्म के अच्छे होने या उसके बेहतर कर पाने के पीछे की वजह कोई एक एक्टर होता है. और वही अपने कंधों पर फिल्म का भार उठाए दिखता है. यहां ऐसा नहीं है. यहां फिल्म का हर कैरेक्टर अपना काम करता है. उसे जैसा दिखना है वैसा दिखता है और जैसा एक्ट करना है वैसा ही एक्ट करता है.
अकेलेपन की शिकार और कुछ नया करने के सपने संजो रही दिव्या दत्ता से लेकर मिडिल क्लास फैमिली वाले इश्यूज से जूझ रही साक्षी तंवर तक, सबने जान फूंकी है.
फिल्म में दो नए चेहरे वंशिका और अरिस्ता भी दिखे हैं, जो फिल्म की जान हैं. इनका साथ में हर सीन आपको गुदगुदाएगा. सैयामी खेर और शारिब हाशमी ने भी अपने रोल्स में ईमानदारी दिखाई है.
डायरेक्शन
फिल्म का डायरेक्शन ताहिरा कश्यप ने किया है. डायरेक्शन में बहुत ज्यादा कुछ नया न होने के बावजूद रिफ्रेशिंग है. वो धीमे सीन्स में भी तेजी ले आती हैं. उनका डायरेक्शन उम्मीद जगाता है कि आगे चलकर उनकी और भी कई अच्छी फिल्में देखने को मिल सकती हैं. आखिर में एक बात ये कि फिल्म देखने के बाद ये सवाल मन में जरूर आता है कि- ताहिरा आपने इतना लेट क्यों कर दिया, कहां थीं आप अब तक? शुक्रिया एक जैसी फिल्मों के बीच कुछ अच्छा करने का दम दिखाने के लिए.