Swatantrya Veer Savarkar Review: बचपन में हिस्ट्री की किताब में हमने पढ़ा था कि कैसे मिली हमें स्वतंत्रता, क्यों बुलाया जाता है महात्मा गांधी को राष्ट्रीय पिता, किन किन के बलिदान के बाद मिली हमें अंग्रेजों की गुलामी से आजादी लेकिन क्या आज की फिल्मों में दिखाया जाता है पूरा सच, क्या जिन स्वतंत्रता सेनानी के नाम हम जानते हैं उतने काफी हैं? शायद नहीं, क्योंकि अब जो फिल्म रणदीप हुड्डा लेकर आए हैं वो दिखाती है ऐसे ही एक सेनानी की कहानी जिनके बारे में हमने ना ज्यादा पढ़ा और ना सुना, बात हो रही है वीर सावरकर की. फिल्म तो बनी, रणदीप हुड्डा ने करैक्टर में जान भी डाली लेकिन वो मजा नहीं आया जो रंग दे बसंती, लगान या गांधी जैसी फिल्मों में आया था.  


कहानी
कहानी है विनायक दामोदर सावरकर की जो क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, इतिहासकार और राजनेता थे. वो सावरकर जिन्होंने अंग्रेजो के सामने कभी सिर नहीं झुकाया, जो हिंदुत्व की विचारधारा लेकर आए, जिन्होंने अपना एक इंडिपेंडेंट ग्रुप बनाया जिसका लक्ष्य रहा अखंड भारत और जो अहिंसा में नहीं बल्कि अपने हक के लिए हिंसा तक करने के लिए तैयार थे. वो सावरकर जिन्होंने लंदन में पढ़ाई की और साथ ही सबको समझाया की अंग्रेज ऐसे नहीं जाएंगे, उनसे लड़ना होगा और उसके लिए अगर बम भी बनाने पड़े तो वो पीछे नहीं हटेंगे. हालांकि, स्वराज्य चाहते महात्मा गांधी भी थे लेकिन उनके और सावरकर की विचारधारा कभी एक जैसी नहीं रही. वीर सावरकर के वीर बनने की कहानी और उनके संघर्ष को दिखाती है ये फिल्म जिसे डायरेक्ट भी एक्टर रणदीप हुड्डा ने किया.


कैसी है फिल्म
फिल्म शुरुआत से दिखाती है वीर सावरकर की कहानी, उनका परिवार, उनके जीवन पर उनके बड़े भाई गणेश का प्रभाव जो शुरुआत में तो अच्छा लगता है लेकिन जल्द ही हर सीन सिर्फ सावरकर पर फोकस करने लगता है. फिल्म को काफी डार्क सेटिंग में शूट किया गया जो एक टाइम के बाद आपको परेशान भी करेगा. क्योंकि हमने इतिहास पढ़ा है तो हम सभी सेनानी को पहचान पाते हैं लेकिन फिल्म में कहीं किसी के नाम लिखे नहीं आते जो उनके लिए दिक्कत पैदा कर सकता है जिन्हे इतिहास अच्छे से याद नहीं और वो आधा टाइम सिर्फ यही सोचेंगे की ये कौन सा करैक्टर हो सकता है. फिल्म 3 घंटे लम्बी है और कई सीन काफी ज्यादा लंबे हैं जिनकी जरुरत नहीं थी जैसे जेल से लिखे जाने वाली सावरकर की ब्रिटिश सरकार के लिए पिटीशन. बाकि जेल में हुए कैदियों पर अत्याचारों को बखूबी दिखाया गया जहां आपकी रूह भी कांप उठेगी. रणदीप हुड्डा ने जेल के सीन में सबसे कमाल का काम किया. वहीं, भगत सिंह और चंद्र शेखर आजाद और सुभाष चंद्र बोस का नाम तो आया लेकिन उनके करैक्टर पर कुछ नहीं दिखाया गया जो आपको थोड़ा अटपटा लग सकता है. फिल्म को बहुत दिनों से प्रोपेगैंडा बताया जा रहा था और जिस तरह से फिल्म में महात्मा गांधी को डार्क शेड में दिखाया गया, उससे कहीं न कहीं प्रोपेगैंडा वाली बात भी सच लगने लगती है. लेकिन फिल्म में वीर सावरकर और महात्मा गांधी के बीच के मतभेद वाले सीन काफी दिलचस्प लगते हैं. खैर, वीर सावरकर आपको एक तरफा फिल्म लग सकती है जहां आप इनकी रिसर्च पर भी सवाल उठाएंगे अगर आपको इतिहास याद है. बाकि फिल्म बीच में बहुत बोरिंग हो जाती है जहां जेल के सीन को स्ट्रेच करके लगातार दिखाया गया. ये फिल्म आसानी से 2 घंटे में खत्म की जा सकती थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं, आप बस इंटरवल का वेट ही करते रह जाएंगे.


एक्टिंग
रणदीप हुड्डा ने वीर सावरकर को जिया है, उनका फिल्म में इतना ट्रांसफॉर्मेशन देखकर आप हैरान रह जाएंगे. कई सीन में ये समझना मुश्किल हो जाता है कि ये वही रणदीप हैं जिन्हें हमने हाईवे, किक या मर्डर 3 में देखा था. उनके कई सीन आपकी आंखें भी नम करते हैं तो कई आपको हंसा भी जाते हैं. अमित सिआल ने सावरकर के बड़े भाई का किरदार निभाया और वो इस रोल में बहुद जचे भी वहीं मदन लाल बने मृणाल दत्त का काम भी अलग छाप छोड़ जाता है. अंकिता लोखंडे का ये अवतार हमने पहले नहीं देखा, उन्होंने यमुना बाई के किरदार को बखूबी निभाया है हालांकि महात्मा गांधी बने राजेश खेरा में वो बात नहीं दिखती जो आप इस किरदार में देखना चाहेंगे. इसी के साथ, बाकि कास्ट ने अच्छा काम किया.


डायरेक्शन
बात करें डायरेक्शन की तो ये रणदीप हुड्डा की बतौर डायरेक्टर पहली फिल्म है. इस फिल्म को पहले महेश मांजरेकर डायरेक्ट करने वाले थे लेकिन आपसी मनमुटाव के चलते रणदीप हुड्डा ने पहनी ये कैप. फिल्म के कई फ्रेम बहुत कमाल के हैं, यानी सिनेमेटोग्राफी बहुत बढ़िया है लेकिन डायरेक्शन में कमी वहां दिखती है जहां एडिट पर लम्बे सीन को डायरेक्टर ने छोटा नहीं कराया। एक फिल्म में एक्टर और डायरेक्टर दोनों का किरदार निभाना आसान काम नहीं लेकिन रणदीप हुड्डा की एक्टिंग पर इसका प्रेशर नहीं दिखता पर ये जरूर दिखता है कि फिल्म में उनके करैक्टर पर इतना ज्यादा फोकस किया गया कि सेकंडरी एक्टर्स का काम और उनका करैक्टर ग्राफ उनके सामने बहुत कम लगता है. फिल्म में कई मोनोलॉग हैं जहां रणदीप कैमरा में ही देखकर बात कर रहे हैं लेकिन ये एक टाइम के बाद इतना हो जाता है कि आपको बोर करने लगता है.


खैर, वीर सावरकर उन्हें पसंद आ सकती है जिन्हें इतिहास में दिलचस्पी हो और जिनमें इस लम्बी फिल्म को देखने की सहनशीलता हो वरना इसे मस्ट वॉच फिल्म तो नहीं बुलाया जा सकता.


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