The Goat Life Review: पृथ्वीराज सुकुमारन और ब्लेसी की ये फिल्म बताती है कि शानदार सिनेमा अभी जिंदा है, हिला डालेगी नजीब की कहानी
The Goat Life Review: पृथ्वीराज सुकुमारन की फिल्म द गोट लाइफ आज सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है. अगर आप इस फिल्म को देखने का प्लान बना रहे हैं तो पहले पढ़ लें रिव्यू.
ब्लेसी
पृथ्वीराज सुकुमारन, के आर गोकुल, अमाला पॉल
सिनेमाघर
The Goat Life Review: कुछ फिल्में सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर 500 या 600 करोड़ बनाने के लिए ही नहीं होती, कुछ फिल्में सिर्फ अवॉर्ड्स के लिए ही नहीं होती, तारीफ के लिए ही नहीं होती, बल्कि इसलिए होती हैं कि अच्छे सिनेमा में भरोसा कायम रहे, ये यकीन रहे कि शानदार फिल्में अब भी बनती हैं, ये सनद रहे कि एक्टिंग का मापदंड अभी भी काफी ऊंचा है, इस फिल्म को बनाने में 16 साल लगे हैं और फिल्म देखकर आप 16 साल का दर्द महसूस भी करते हैं.
कहानी
ये फिल्म साल 2008 में आए Benyamin के नॉवेल aadujeevitham पर आधारित है और सच्ची घटना पर आधारित है, साल 2008 में ही जब ब्लेसी ने ये नॉवेल पढ़ा तो इसपर फिल्म बनाने का सोचा, लेकिन कई दिक्कतों के बाद ये फिल्म अब बन पाई है, ये कहानी है नजीब नाम के शख्स की जो मजदूरी करने सऊदी जाता है और वहां एक बूचड़खाने में फंस जाता है जहां उसे बकरियों की देख रेख करने का काम करना पड़ता है, वो कैसे वहां से बचता है, यही इस फिल्म में दिखाया गया है.
कैसी है फिल्म
ये फिल्म हिला डालती है, किसी दूसरे देश में जब कोई फंस जाता है तो उसके साथ क्या कुछ हो सकता है, वो इस फिल्म में जिस तरह से दिखाया गया है वो आपको हिला डालता है, आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि क्या अपना देश छोड़कर जाना चाहिए, पहला हाफ अच्छा है, फिल्म मुद्दे पर आती है लेकिन दूसरे हाफ में जो होता है वो आप देख नहीं पाते, पानी की एक बूंद के लिए तरसते लोग, जानवरों के बीच जानवरों की तरह रहते इंसान, ये सब देखकर आपको यकीन नहीं होता कि ऐसा भी होता है, विदेशियों की भाषा समझ नहीं आती लेकिन शायद जो दर्द नजीब महसूस करता है वो दर्द डायरेक्टर आपको भी महसूस कराना चाहता है इसलिए वहां सब टाइटल नहीं डाले गए . फिल्म आपको उस दर्द को बड़े अच्छे से महसूस करा देती है, ये यकीन दिला देती है कि शानदार सिनेमा अब भी बन सकता है, बनाने वाला चाहिए, फिल्म की एक कमी ये है कि फिल्म थोड़ी लंबी लगती है, लगता है थोड़ी कट सकती है
एक्टिंग
अदाकारी का अगर कोई ऊंचा मुकाम या मापदंड़ होता है तो पृथ्वीराज यहां उसे छूकर आगे निकल गए हैं, शुरू में वो एक आम मल्याली शख्स लगते हैं जिसका वजन कोई 90 किलो होगा, बिल्कुल आम सा दिखने वाला शख्स, लेकिन फिर वो जानवरों के बीच रहते हैं जानवर जैसा बन जाता है, उसके कपड़े इतने ढीले हो जाते हैं कि उसे अपनी पैंट संभालने के लिए रस्सी बांधनी पड़ती है, सेकेंड हाफ में जब वो रेगिस्तान से भागता है तो उसका दर्द आप महसूस करते हैं, पृथ्वीराज ने इस फिल्म में ऐसा काम किया है जो बहुत कम एक्टर कर पाते हैं, ये किरदार एक्टिंग की तमाम वर्कशॉप्स में पढ़ाया जाना चाहिए, आप इन्हें कितने अवॉर्ड दे दें, काफी नहीं होंगे, के आर गोकुल ने हकीम के किरदार में शानदार काम किया है, इब्राहिम कादरी बने jimmy jean louis की एक्टिंग भी कमाल की है, नजीब की पत्नी के किरदार में अमाला पॉल का काम जबरदस्त है.
डायरेक्शन
ब्लेसी ने इस फिल्म को लिखा है और डायरेक्ट किया है और कहना होगा कि वो इस फिल्म की आत्मा हैं, ब्लेसी ने इस किरदार के दर्द को जिस तरह से दिखाया है वो एक शानदार डायरेक्टर ही दिखा सकता है, ब्लेसी ने एक एक फ्रेम पर जिस तरह की मेहनत की है वो काबिले तारीफ है.
म्यूजिक
ए आर रहमान का म्यूजिक फिल्म में एक नई जान डालता है, फिल्म को मूड पर पूरी तरह से सूट करता है और कहानी को सधे हुए तरीके से आगे बढ़ता है.
अच्छा सिनेमा देखना चाहते हैं तो देख डालिए.
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