लव होस्टल का हीरो अहमद उर्फ आशु शौकीन (विक्रांत मैसी) कहता है, ‘एक काम ठीक करने जाता हूं, दो गलत हो जाते हैं.’ लेखक-निर्देशक शंकर रमन की इस फिल्म को देखते हुए भी लगातार महसूस होता है कि वह एक काम ठीक करने जाते हैं और उनसे दो गलत हो जाते हैं. कहीं ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने फिल्म बनाने से पहले या बनाते हुए कहीं ठहर कर कुछ सोचा. न कहानी में दम, न पटकथा में रीढ़, न किरदारों में जान. संवाद को खैर भूल ही जाइए. ऑनर किलिंग के एक सीन से शुरू करते हुए उन्होंने बस, हरियाणवी की छौंक लगा दी. हो गए डायलॉग. यह शोध का विषय हो सकता है कि आखिर ऐसे प्रोजेक्ट बनते कैसे हैं. फिर उसे शाहरुख खान जैसे सितारे की बड़ी कंपनी प्रेजेंट कर देती है और जी5 जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म दर्शकों के सामने परोस देते हैं.




लगभग डेढ़ घंटे की लव होस्टल दर्शक के लिए टॉर्चर रूम जैसी फिल्म है. इसकी पूरी जिम्मेदारी लेखक-निर्देशक की है लेकिन विक्रांत मैसी और सान्या मल्होत्रा का भी दोष इससे कम नहीं हो जाता. विक्रांत मैसी तो टीवी के जमाने से फिल्मों और ओटीटी तक खरामा-खरामा चले आए हैं मगर दंगल, बधाई हो, फोटोग्राफ, पगलैट और मीनाक्षी सुंदरेश्वर जैसी फिल्मों में चमक दिखा चुकीं सान्या के छोटे-से करियर की यह सबसे खराब और गैर-जिम्मेदार भूमिका है. उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि एक्टर का चुनाव ही उसके करियर का ग्राफ तय करता है. वास्तव में दोनों एक्टरों के लिए यहां करने को कुछ खास नहीं था, जबकि बीते दो साल में क्लास ऑफ 83 और आश्रम से कमबैक की फसल उगाने में लगे बॉबी देओल का काम लव होस्टल में हास्यास्पद बन जाता है. वह यहां ‘किलर मशीन’ डागर बने हैं. डागर ऐसे हत्याएं करता है, जैसे गाजर-मूली काट रहा है. न कोई उसे देखने वाला, न रोकने वाला.



लव होस्टल हरियाणा की पृष्ठभूमि में खाप मानसिकता की कहानी कहती है. इसमें अगर आपको कुछ नया देखने को मिलता है तो सरकार द्वारा घर से भाग कर शादी करने वाले आशिक जोड़ों को सुरक्षा देने के लिए बनाए गए ‘शेल्टर होम’. प्रेमियों की इस शरणस्थली का हाल देख कर मोहब्बत के अंजाम पर रोना ही आता है. निर्देशक ने अगर इसी जगह की कहानी ढंग से कह दी होती तो कुछ बात बन सकती थी. लेकिन बात है सोच की. वह यहां हिंदू-मुसलमान करते रहे. उन्हें लगा हो कि शायद अपने वक्त की आवाज मुखर कर रहे हैं. मगर इस आवाज में कोई धार नहीं है.




कसाई परिवार का आशु शौकीन और एक बुजुर्ग कद्दावर विधायक की पोती बिल्लो उर्फ ज्योति दिलावर (सान्या मल्होत्रा) एक-दूसरे से प्यार करते हैं. भाग कर कोर्ट में शादी कर लेते हैं. अब 600 साल की खाप परंपरा की दुहाई देने वाली विधायक दादी के गले यह बात नहीं उतर रही. एक तो प्रेम विवाह और उस पर लड़का मुसलमान. यहीं पर डागर (बॉबी देओल) को इस जोड़े की सुपारी दे दी जाती है. अब शौकीन और ज्योति आगे-आगे, डागर पीछे-पीछे. वह अदालत के आदेश पर प्रेमियों की शरणस्थली में पहुंचाए गए इस जोड़े तक पहुंच जाता है और दोनों वहां से भागते हैं.




इस बीच लेखक-निर्देशक ने ज्यादा दिमाग लगाते हुए मुस्लिम का आतंकी कनेक्शन ट्रेक, शेल्टर होम में बद-दिमाग पुलिस वाले का ट्रैक, डागर के पीछे लगे एक अच्छे पुलिस वाले का ट्रैक, ज्योति के परिवार में लड़की के भागने पर लगी आग का ट्रैक, आशु शौकीन के पता नहीं किस चीज की अवैध डिलीवरी का ट्रैक और वगैरह-वगैरह ट्रैक से कहानी में ईंधन में डालने की कोशिश की है. मगर पेट्रोल यहां पानी साबित होता है. इसके अतिरिक्त भी यहां काफी कुछ इतने बेसिर-पैर का है कि एक समय के बाद दर्शक के धीरज की कड़ी परीक्षा लेता है.




शंकर रमन की मुश्किल यह भी है कि वह कहानी को रियल रखने की कोशिश करते-करते अचानक इसे बॉलीवुडिया बनाने पर उतर आते हैं. सच्चाई की आंच पर पकती कहानी में वह एकाएक चलताऊ मसाले डालने लगते हैं. अंततः उन्हें खुद पता नहीं चलता कि क्या बनाना है या फिर क्या बन गया है. फिल्म सच्चाई के क्रूर धरातल से उठ कर प्रेमियों को मिलाने के लिए अचानक रूमानी बादलों में पहुंच जाती है. लव होस्टल न तो क्राइम पर टिकी रहती है और न ही थ्रिल पर. यह न तो ढंग की ट्रेजडी है और न कॉमेडी. रोमांस का तो सख्त अभाव है. अच्छा गीत-संगीत भी यहां नहीं है. एकमात्र कैमरा वर्क जरूर आकर्षक है. कुल जमा लव होस्टल ऐसी फिल्म है, जो किसी लिहाज से प्रभावित नहीं करती. यह भी संभव है कि जब 2022 की सबसे कमजोर फिल्मों की सूची बने तो उसमें इसका नाम शुमार हो. हालांकि अभी लंबा वक्त सामने है। बहुत फिल्में आनी हैं. फिर भी लव होस्टल को आप कम नहीं आंक सकते.


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