Yeh Kaali Kaali Ankhein Review: नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई इस वेब सीरीज का नाम अगर इन आंखों की मस्ती भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि कहानी का इसके टाइटल से कोई सीधा संबंध नहीं है. सिवा इसके कि तमाम एपिसोड्स में गाहे-ब-गाहे शाहरुख खान की फिल्म बाजीगर (1993) का प्रसिद्ध गाना ये काली काली आंखें... नए वाद्य यंत्रों के साथ बज जाता है. अपने नाम से सीरीज भले ही रोमांटिक होने का भ्रम देती है लेकिन मूलतः यह क्राइम थ्रिलर है.
शुरुआती मिनटों के बाद कहानी में रोमांस पीछे छूट जाता है और आपराधिक मानसिकता हावी हो जाता है. हिंदी में वेब सीरीज बनाने वाले प्लेटफार्मों, निर्माताओं और लेखकों की समस्या यह है कि वह शुरू होने से पहले ही मान लेते हैं कि कहानी का दूसरे-तीसरे सीजन में विस्तार होगा. नतीजा यह कि वह पहले सीजन को मजबूत बनाने पूरा फोकस नहीं करते. इससे कहानी की कसावट में ढील के कारण सिलवटें पड़ जाती हैं.
ये काली काली आंखें में भी यही होता है. अव्वल तो कहानी का शुरुआती बिंदु बहुत विश्वसनीय नहीं लगता कि सात-आठ साल की एक बच्ची स्कूल में एक बच्चे पर मोहित हो जाती है और फिर कुछ महीनों-साल बाद बाहर पढ़ने चली जाती है. कई साल बाद जब वह लड़की लौटती है, तब लड़के के प्रति उसका सम्मोहन जुनून में बदल चुका होता है. खैर, यहां पूर्वा (आंचल सिंह) यूपी के एक शहर के मनी और मसल पावर वाले क्रूर नेता अखेराज अवस्थी विद्रोही (सौरभ शुक्ला) की बेटी है. वह जिस चीज को पसंद करती है, पिता उसे दिला देता है.
पूर्वा ने बचपन में स्कूल में साथ पढ़ने वाले पिता के अकाउंटेंट (बृजेंद्र काला) के बेटे विक्रांत सिंह चौहान (ताहिर राज भसीन) से पूछा थाः हमसे फ्रेंडशिप करोगे. तब विक्रांत ने मना कर दिया था क्योंकि उसे पहली ही नजर में समझ आ गया था कि पूर्वा उसकी जिंदगी की नेवर-एंडिंग-साढ़ेसाती साबित होगी. यही पूर्वा जवान होकर भी विक्रांत के पीछे पड़ी है, जो पढ़-लिखकर इंजीनियर बन चुका है और उसे नौकरियों को ऑफर भी मिलने लगे हैं. खास बात यह कि इस बीच उसी शहर की लड़की शिखा (श्वेता त्रिपाठी शर्मा) से विक्रांत को मोहब्बत हो गई है. शिखा और विक्रांत, दोनों हाथों में हाथ डाले मोहब्बत की मंजिल की तरफ बढ़ रहे हैं. मगर जब राक्षसी तबियत के अखेराज के दिल के टुकड़े जैसी पूर्वा की नजरें विक्रांत पर है, तब मोहब्बत करने वालों का मिलन कैसे हो सकता है.
यह वेब सीरीज औसतन 35-35 मिनट की आठ कड़ियों में फैली है. जिनमें पहले तीन-चार एपिसोड तक तो ग्राफ ऊपर चढ़ता है लेकिन उसके बाद वह अंडाकार ढंग से नीचे आते हुए, ऑमलेट में बदल जाता है. इस ऑमलेट को राइटर-डायरेक्टर उलटते-पलटते रहते हैं और आखिर में दूसरे सीजन के लालच में जला डालते हैं. वेब सीरीज के थ्रिल की धार धीरे-धीरे टीवी के किसी कछुआ चाल वाले धारावाहिक की तरह टपकने लगती है. खास तौर पर श्वेता त्रिपाठी शर्मा की कहानी में री-एंट्री के साथ ये काली काली आंखें थकने लगती है.
इससे पहले लगता है कि अकेले ताहिर राज भसीन ही सीरीज की कमजोर कड़ी हैं लेकिन श्वेता उनसे ज्यादा कमजोर साबित होती हैं. दोनों एक्टर और उनके किरदार यहां बुरी तरह निराश करते हैं. मिर्जापुर के दूसरे सीजन में भी श्वेता का किरदार सबसे कमजोर साबित हुआ था. यहां वह उसी के एक्सटेंशन की तरह नजर आती हैं.
ताहिर राज भसीन में यूपी के लड़कों वाली बात नहीं दिखती. स्क्रीन पर भी वह हीरो नहीं हैं. शुरू से अंत तक पिटे हुए हैं. उनके किरदार की रीढ़ यहां गायब है, जो धीरे-धीरे एक भावुक-मूर्ख में बदलता जाता है. प्रेम का पक्ष अगर इस कहानी में कहीं नजर आता है तो वह पूर्वा के किरदार में है, जिसे खलनायिका की तरह पेश किया गया है. पूर्वा कहानी की शुरुआत में भले कमजोर दिखती है लेकिन आगे बढ़ने के साथ लगातार मजबूत होती है. एक समय के बाद वह सीरीज पर पूरी तरह छा जाती हैं. आपकी दिलचस्पी सिर्फ पूर्वा में रह जाती है क्योंकि किसी भी वह कुछ नया कर सकती है.
आंचल सिंह का अभिनय बहुत बढ़िया है और वह याद रह जाती हैं. इस तरह सौरभ शुक्ला भी दमदार हैं. वह अपने काम से प्रभावित करते हैं. बृजेंद्र काला के हिस्से की कुछ बढ़िया दृश्य आए हैं. ये काली काली आंखें अपने खूबसूरत टाइटल के बावजूद कमजोर राइटिंग और लचर निर्देशन से मात खा गई है. अगर आपके पास लंबा खाली वक्त है तो अपनी आंखों को तकलीफ दे सकते हैं.