महान फिल्मकार और लेखक सत्यजित रे का यह जन्म शताब्दी वर्ष है. नेटफ्लिक्स इस मौके पर उन्हें याद करते हुए वेबसीरीज/एंथोलॉजी लेकर आया है. नाम है, रे. इसमें तीन फिल्म निर्देशकों ने अपनी-अपनी कलात्मकता के साथ रे की लिखी कहानियों को पर्दे पर उतारा है. औसतन 50-50 मिनिट की चार कहानियां सत्यजित रे के दौर से आगे बढ़ कर निर्देशकों ने हमारे समय में रची हैं. इसके लिए उन्होंने कुछ रचनात्मक छूट भी ली है.


मुख्य रूप से ये कहानियां मनुष्य के मन और मस्तिष्क में लगातार उमड़ने-घुमड़ने वाले विचारों पर केंद्रित है. कभी ये उसके स्वभाव को बताती हैं तो कभी उसके स्वार्थ को सामने लाती हैं. इनमें व्यंग्य की धार भी है. रे की खूबी है, इनके अभिनेता. पुरुष केंद्रित इन कहानियों में मनोज बाजपेयी, केके मेनन, हर्षवद्धन कपूर, अली फजल और गजराज राव अभिनय किया है. श्वेता बसु प्रसाद और राधिका मदान भी अपनी भूमिकाओं में जमी हैं.




श्रीजित मुखर्जी ने इस एंथोलॉजी की दो कहानियों की पुनर्रचना करते हुए उन्हें निर्देशित किया है. ‘फॉरगेट मी नॉट’ और ‘बहुरूपिया’. ‘फॉरगेट मी नॉट’ रईस इप्सित नायर (अली फजल) की कहानी है, जिसकी याददाश्त कंप्यूटर की तरह तेज है और वह कभी कुछ नहीं भूलता. लेकिन उसकी जिंदगी में अचानक एक लड़की आती है और बताती है कि कुछ समय पहले वे मिले थे. उन्होंने एक होटल में शानदार सप्ताह बिताया था. मगर इप्सित को कुछ याद नहीं. वह इसी याद की तलाश में अपने दिल-दिमाग को खंगालता है और उसकी जिंदगी उथल-पुथल हो जाती है. क्या है पूरा मामला?


अली फजल ने इस रोल को बढ़िया ढंग से निभाया है. वहीं श्रीजित ने रे की एक अन्य कहानी ‘बहुरूपिया’ को भी बढ़िया ढंग से पर्दे पर उतारा है. इंद्रेश शाह (के के मेनन) ने मेकअप करके रूप बदलने की कला अपनी दादी से सीखी थी और अब वह मरने के बाद बहुरूपिया बनने के रहस्यों वाली किताब उसे जायदाद के साथ दे गई है. इंद्रेश इस कला को और निखारता है मगर रूप बदल कर गलत काम भी करने लगता है.




कोई उसे पकड़ नहीं पाता. तभी उसे पता लगता है एक संत शहर में आए हैं और लोगों की जिंदगी के आर-पार देख कर भूत-भविष्य सब बता देत हैं. इंद्रेश रूप बदल कर संत की परीक्षा लेने का मन बनाता है. क्या वह संत की सचाई लोगों का सामने लाएगा या उसकी ही जिंदगी दांव पर लग जाएगी? यह रोचक कहानी है, जिसमें के के मेनन पूरे रंग में दिखते हैं.


अभिषेक चौबे ने रे की कहानी (हंगामा है क्यों बरपा) को मनोज बाजपेयी और गिरिराज राव के साथ बनाया है. वह इस कहानी को बंगाल से निकाल कर भोपाल-दिल्ली ले गए हैं. यहां मनोज बाजपेयी गजल गायक मुसाफिर अली के अवतार में हैं. मुसाफिर अली रेल में भोपाल से दिल्ली का सफर कर रहे हैं और उनकी मुलाकात सामने बैठे बेग साहब (गजराज राव) से होती है.


करीब दस साल पहले भी दोनों ने साथ-साथ सफर किया था और तब का एक हादसा मुसाफिर अली को लगातार असहज बनाता रहता है. कहानी में खुलते अतीत के पन्ने इसे रोचक और मनोज बाजपेयी तथा गिरीराज राव का अभिनय खूबसूरत बनाता है. आखिरी कहानी वासन बाला ने  निर्देशत की है, जिसे रे ने भी स्पॉटलाइट नाम से लिखा था.


कहानी एक फिल्म स्टार विक (हर्षवर्द्धन कपूर) की है, जो राजपुताने के एक महलनुमा होटल में रुका है. मगर तभी वहां एक महिला धर्मगुरु, दीदी (राधिका मदान) आ जाती है. जिसके कारण होटल प्रबंधन विक से उसका पसंदीदा मैडोना सूट लेकर दीदी को दे देता है. विक के अहंकार को ठेस पहुंचती है और वह जानना चाहता है कि आखिर उसके जैसे फिल्म स्टार से बड़ी यह दीदी कौन है? फिल्म एक कलाकार के स्टारडम के मन-मस्तिष्क पर लगी चोट को दिखाती है.




रे अपनी कहानियों में मानव मन की गहराइयों में उतरते हैं. ये चारों कहानियां भी अपने मुख्य किरदारों के मन की परतों को उघाड़ती है. घटनाओं और किरदारों की मानसिक स्थिति के द्वंद्व के बीच रे सच को सामने लेकर आते हैं. सभी निर्देशकों ने अपना काम बढ़िया ढंग से किया है.


यह रे का पहला सीजन है और नेटफ्लिक्स की योजना आगे उनकी और कहानियों को लाने की है. स्क्रीन पर बदलते सिनेमा के दौर में एंथोलॉजी रे दर्शकों के मन में बैठी इस भ्रांति को दूर करती है कि सत्यजित रे सिर्फ गंभीर सिनेमा बनाया करते थे. सच यह है कि वह बढ़िया लेखक भी थे और उनकी रंग-बिरंगी कहानियों का संसार बांग्ला साहित्य को हरा-भरा बनाता है. उसकी एक झलक आप यहां रे में देख सकते हैं.