Sunflower Review: रोमांच पैदा नहीं कर पाती ये सीरीज, जरूरी सवालों का जवाब दिए बिना खत्म हुई कहानी
Sunil Grover Web Series Sunflower Review: सुनील ग्रोवर के बढ़िया अभिनय के बावजूद वेब सीरीज सनफ्लावर कमजोर है तो इसकी वजह मनोरंजक कहानी की कमी है. सशक्त लेखन और कल्पनाशील निर्देशन के अभाव में सनफ्लावर के निर्माताओं के पास कहने के लिए कुछ नहीं है. चर्चित ऐक्टरों की टीम जुटा कर विकास बहल ने बस अपने नाम को कैश कराने की कोशिश की है.
विकास बहल, राहुल सेनगुप्ता
सुनील ग्रोवर, रणवीर शौरी, गिरीश कुलकर्णी, मुकुल चड्ढा, आशीष विद्यार्थी
फूल धीरे-धीरे खिलता है. विकास बहल की वेब सीरीज सनफ्लावर भी धीरे-धीरे विकसित होती है. हर फूल की रंगत, खुशबू और एहसास अलग होता है. सनफ्लावर भी अलग दिखने-करने की कोशिश करती है. सीरीज में एक किरदार सवाल करता है कि मरे आदमी और फ्रिज में क्या अंतर है. जवाब मिलता है कि एक ठंडा होता है और दूसरा ठंडा करता है.
मृत्यु को लेकर एक और रोचक डायलॉग यहां हैः ‘बार-बार बटन दबाने से लिफ्ट जल्दी नहीं आएगी. ये मौत की तरह है, जब आनी है तभी आएगी.’ बात यहां एक आदमी (कपूर) के मर्डर से निकलती है और दूर तलक जाती है. आप अपनी आंखों से देखते हैं कि किसने हत्या की और कैसे की. पुलिस तफ्तीश करने आती है. शुरुआती मिनटों में हुई हत्या के बाद अंत तक यही देखना होता है कि कानून के लंबे हाथ कातिल तक आखिर कैसे पहुंचेंगे. यही सनफ्लावर का ताना-बाना है.
सनफ्लावर सोसायटी में कई खट्टे-मीठे-टढ़े-मेढ़े किरदार हैं. जैसा कि हमेशा होता है, अपराधी के पकड़ में आने तक पुलिस की नजर में तमाम लोग संदिग्ध होते है. यहां भी वही है. सोसायटी का बैचलर सोनू सिंह (सुनील ग्रोवर) प्यारा इंसान है. वह हमेशा राज कपूर की तरह मुस्कराता है. सबको हाय-हैलो बोलता है. प्यार बांटता चलता है. अपने लिए प्यार ढूंढता भी है. वह भोला है मगर तेज है. इसीलिए तो कंपनी में उसे बेस्ट एंप्लॉई, बेस्ट सेल्समैन और बेस्ट बिहेवियर का अवार्ड एक ही साल में मिला. क्या ऐसा सोनू मर्डर कर सकता है? कपूर के सामने वाले फ्लैट में रहने वाला रसायनशास्त्र का प्रो.आहूजा (मुकुल चड्ढा) भी पुलिस-रडार पर हैं क्योंकि दोनों के बीच बात-बात पर झगड़े-मारपीट होती थी. कपूर की घरेलू नौकरानी और बिल्डिंग का सिक्योरिटी गार्ड भी शक के घेरे में हैं. यहां जांच कर रहे पुलिसवाले हैं, इंस्पेक्टर डीजी (रणवीर शौरी) और सब इंस्पेक्टर तांबे (गिरीश कुलकर्णी).
जी5 पर रिलीज हुई सनफ्लावर आठ कड़ियों में कातिल को ढूंढने की पुलिस-प्रक्रिया दिखाते हुए ऐसे मोड़ पर खत्म होती है, जहां तमाम सवालों के जवाब स्थगित हैं. जबकि वेब सीरीज के दूसरे सीजन की घोषणा नहीं हुई है. इस लिहाज से सनफ्लावर मुकम्मल नहीं है. यह है, जैसे बिना खुशबू का फूल. सनफ्लावर की समस्या यह है कि इसमें कहानी नहीं किरदार रचे गए हैं. इनमें भी अधिकतर हाईपर हैं. नॉरमल नहीं. किरदारों के बीच सलीकेदार कनेक्ट भी यहां नहीं है. वे अपना-अपना परफॉरमेंस देकर निकल लेते हैं. कोई किरदार स्क्रीन पर मजबूत ताल नहीं ठोकता. डिटेलिंग के नाम पर इतना विस्तार है कि जिस कहानी में घोड़े जैसी रफ्तार चाहिए, वह घोंघा-चाल में बदल जाती है. न सस्पेंस. न थ्रिल. कॉमेडी ढीली और बिखरी. कॉमेडी का फील कराने वाले कई दृश्य उबाऊ हो जाने की हद तक खींचे गए हैं.
सनफ्लावर मूलतः ऐसे विभिन्न चरित्र दिखाना चाहती है, जिनके रंग-ढंग-मिजाज अलग-अलग हैं. परंतु बात नहीं बनती क्योंकि यहां न किसी की जिंदगी में उतार-चढ़ाव हैं, न भावानात्मक गहराई. सोसायटी के चेयरमैन चुनाव में यहां आशीष विद्यार्थी सबसे बड़े दावेदार हैं. उन्हें और सोसायटी के कुछ सदस्यों को बार-बार ऐसे लोगों का इंटरव्यू लेते दिखाया गया है, जो किरायेदार के रूप में आना चाहते हैं. इस बहाने बताया गया है कि बाहर दुनिया बदल रही है जबकि सोसायटी के अधिकांश पदाधिकारी परंपरा और संस्कारों के नाम पर कुएं के मेंढक बने हुए हैं. बदलाव की यहां नो एंट्री है. विकास बहल सनफ्लावर को संभवतः फूल चिह्न वाली राजनीतिक पार्टी से जोड़ कर सांकेतिक रूप से बात कहना चाहते हैं लेकिन उनकी आवाज फुसफुसाहट से भी धीमी है.
सनफ्लावर न राजनीतिक-सामाजिक वक्तव्य देती है और न समय के बदलावों को रेखांकित करती है. मर्डर मिस्ट्री के रूप में रोमांचित करने में भी यह नाकाम है. विकास बहल के पास अगर दूसरे सीजन का आइडिया था तो बेहतर होता होता कि वह इसे च्युइंगम की तरह खींचने के बजाय एक ही बार कसावट से बुन देते. पटकथा में बिखराव है और किरदार पंख फैला कर नहीं उड़ते. वे हर दृश्य में लगभग खुद को दोहराते हैं. प्रो.आहूजा की बीवी हमेशा उसके पीछे रहती है, उसे ड्रिंक बना कर देती है और खुश करने की कोशिश में है. प्रो.आहूजा और कपूर के बीच झगड़े-मारपीट के सिवा कुछ नहीं है. सुनील ग्रोवर का किरदार स्त्रैण है. वह कपिल शर्मा शो वाले अंदाज और हाव-भाव में ही हैं. फर्क इतना है कि वह यहां पुरुषों के कपड़े पहने हैं.
हालांकि इसमें संदेह नहीं कि सुनील ने अपने किरदार को बहुत मेहनत से निभाया और उनके फैन्स को इसमें मजा आएगा. आशीष विद्यार्थी, रणवीर शौरी और गिरीश कुलकर्णी के चेहरों पर कोई वैरायटी नहीं दिखती. बावजूद इसके कुलकर्णी चमक छोड़ते हैं. धीमी रफ्तार के बीच हत्या की जांच का रोचक ठंडा पड़ जाता है. सनफ्लावर सिनेमा के नजदीक कम और टीवी सीरियल/सिटकॉम के अधिक पास है. आपके पास बेरोजगार दिनों में लंबा खाली वक्त हो तो बगैर किसी खास उद्देश्य के इसे देखा जा सकता है.