3 राज्य, 96 सीटें और दलबदलुओं को कमान; जानिए बीजेपी के इस खेल के पीछे क्या है?
9 साल में 3 बार पाला बदलने वाले सम्राट चौधरी को बीजेपी ने बिहार की कमान सौंपी है. बिहार ही नहीं बंगाल, झारखंड और असम में पार्टी दलबदलुओं को बड़ी जिम्मेदारी दे चुकी है. आखिर क्या है वजह?
6 साल पहले ही दलबदल कर पार्टी में शामिल होने वाले सम्राट चौधरी को बीजेपी ने बिहार की कमान सौंपी है. ओबीसी के फायर ब्रांड नेता माने जाने वाले सम्राट चौधरी आरजेडी, जेडीयू और हम में रह चुके हैं. बीजेपी के इस फैसले को नीतीश-तेजस्वी के खिलाफ मजबूत मोर्चेबंदी के रूप में देखा जा रहा है.
जुलाई 2022 में नीतीश कुमार बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़कर महागठबंधन में शामिल हो गए थे. बीजेपी बिहार में भी सम्राट के सहारे लालू और नीतीश के गढ़ को ध्वस्त करने में जुटी है. पिछले 32 सालों से बिहार में लालू और नीतीश की सरकार है. हालांकि, इस दौरान बीजेपी नीतीश के साथ करीब 15 साल तक बिहार की सत्ता में भागीदार रह चुके हैं.
बीजेपी हाईकमान का दलबदुओं को कमान देने का प्रयोग नया नहीं है. बिहार से पहले असम, बंगाल से लेकर झारखंड तक पार्टी दूसरे दल से आए नेताओं को बड़ी जिम्मेदारी दे चुकी है. दलबदलुओं को बागडोर देने का प्रयोग असम में हिट रहा है, जबकि बंगाल में भी बीजेपी को इससे मजबूती मिली.
2014 के मुकाबले बीजेपी 12 से अधिक राज्यों में सरकार बना चुकी है. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी के पास सिर्फ 5 राज्यों में सरकार थी. अब ओडिशा, बंगाल और तेलंगाना जैसे राज्यों में पार्टी जड़ें जमा चुकी है, जबकि महाराष्ट्र और पूर्वोंत्तर के कई राज्यों में गठबंधन के साथ सरकार में है.
पिछले 9 सालों में सत्ता में आने के लिए बीजेपी कई प्रयोग कर चुकी है. इसी में एक प्रयोग दलबदलुओं को तरजीह देने की है. आइए इसे विस्तार से समझते हैं.
बिहार: 9 साल में 3 बार पाला बदल चुके हैं सम्राट
बिहार के कद्दावर ओबीसी नेता शकुनी चौधरी के बेटे सम्राट ने 1990 में छात्र राजनीति से पॉलिटिक्स की शुरुआत की थी. 1999 में बिहार में राजनीतिक उठापटक का दौर जारी था. इसी बीच कोइरी विधायकों को साधने के लिए लालू यादव ने शकुनी चौधरी को साधा.
समझौते के तहत राबड़ी सरकार में 1999 में सम्राट चौधरी को मंत्री बना दिया गया. सम्राट चौधरी के मंत्री बनते ही विपक्ष का हल्लाबोल शुरू हो गया. विपक्ष का आरोप था कि सम्राट चौधरी को लालू यादव ने कम उम्र में मंत्री बनवा दिया है. काफी हंगामा के बाद राबड़ी देवी ने सम्राट से इस्तीफा ले लिया.
2000 में परबत्ता सीट से सम्राट चौधरी विधायक चुने गए. 2010 में लालू यादव ने सम्राट चौधरी को विधानसभा में उपनेता प्रतिपक्ष बनवाया, लेकिन चौधरी 2014 में तब सुर्खियों में आए जब उन्होंने आरजेडी के 13 विधायकों के साथ पार्टी तोड़ दी. 2014 चुनाव से पहले आरजेडी के लिए यह बड़ा झटका माना गया था.
सम्राट पर इस दौरान विधायकों से धोखे में हस्ताक्षर करने का भी आरोप लगा. बाद में सम्राट चौधरी ने पटना हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की और कहा कि सजायफ्ता व्यक्ति किसी पार्टी के अध्यक्ष नहीं रह सकते हैं. हालांकि, कोर्ट ने चौधरी की यह याचिका खारिज कर दी.
2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सत्ता आने के बाद मुख्यमंत्री पद से नीतीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया और जीतन राम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री बनाए गए. सम्राट चौधरी को मांझी कैबिनेट में जगह मिली. एक साल के भीतर ही जेडीयू में खटपट शुरू हो गई और नीतीश ने मांझी से इस्तीफा देने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने बगावत कर दी.
मांझी के बगावत में सम्राट चौधरी ने भी साथ दिया और वे 2015 में जेडीयू छोड़ हम में शामिल हो गए. 2017 में जीतन राम मांझी से भी उनकी पटरी नहीं बैठी और बीजेपी का दामन थाम लिया. तब से सम्राट बीजेपी में ही हैं. 2020 में बीजेपी ने उन्हें मंत्री बनाया था और 2022 में वे विधानपरिषद में नेता प्रतिपक्ष भी बनाए गए.
सम्राट चौधरी कोइरी जाति से आते हैं, जिसकी आबादी बिहार में 5 फीसदी से अधिक है. शाहाबाद, सीमांचल इलाके में कई सीटों पर कोइरी मतदाताओं का दबदबा माना जाता है. बिहार में यादव के बाद ओबीसी में कोइरी-कुर्मी जातियों का प्रभाव सबसे अधिक है. 1994 में इसे साधने के लिए पटना में नीतीश कुमार भी एक रैली में शामिल हुए थे.
बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं और 2019 में बीजेपी को 17 सीटों पर जीत मिली थी. बीजेपी इस बार 35 सीट जीतने का लक्ष्य रखी है. पार्टी इसके लिए गठबंधन बनाने में भी जुटी हुई है.
पश्चिम बंगाल: तृणमूल के बागी शुभेंदु नेता प्रतिपक्ष
2021 चुनाव से पहले तृणमूल छोड़ बीजेपी में आए शुभेंदु अधिकारी को चुनाव बाद पार्टी ने नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी. अधिकारी ममता कैबिनेट में परिवहन मंत्री थे और उनके भतीजे से सियासी खटपट के बाद तृणमूल से दूरी बना ली थी.
शुभेंदु के नेता प्रतिपक्ष बनाने के हाईकमान के फैसले का बीजेपी में विरोध हुआ था. मुकुल रॉय समेत कई नेताओं ने पार्टी छोड़ दी थी. स्थानीय स्तर पर भी कार्यकर्ताओं ने नाराजगी जताई थी, इसके बावजूद हाईकमान अपने फैसले पर अडिग रहा.
पूर्व केंद्रीय मंत्री शिशिर अधिकारी के बेटे शुभेंदु ने 1998 में तृणमूल कांग्रेस से ही राजनीतिक करियर की शुरुआत की थी. पूर्वी मेदिनीपुर में शुभेंदु अधिकारी का दबदबा माना जाता है. 2021 में नंदीग्राम सीट पर शुभेंदु ने बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को चुनाव में हराया था.
2009 में अधिकारी तब सुर्खियों में आए थे, जब उन्होंने सीपीएम के कद्दावर नेता लखन सेठ को तमलुक सीट से हराया था. अधिकारी अपने आक्रामक बयानों को लेकर भी सुर्खियों में रहते हैं.
बंगाल में लोकसभा की कुल 42 सीटें हैं और 2019 में बीजेपी को 18 सीटों पर जीत मिली थी. हालांकि, 2021 के उपचुनाव में पार्टी को आसनसोल सीट पर हार का सामना करना पड़ा था.
झारखंड- चुनाव बाद बीजेपी में आए और विधायक दल के नेता बने मरांडी
झारखंड में 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की सत्ता चली गई. मुख्यमंत्री रघुबर दास खुद भी विधायकी का चुनाव हार गए. हार के बाद पार्टी में नेता प्रतिपक्ष को लेकर अटकलें लगने लगी, लेकिन बीजेपी ने चुनाव बाद पार्टी में आए बाबू लाल मरांडी के नाम की सिफारिश कर दी.
टेक्निकल वजहों से अब तक मरांडी भले नेता प्रतिपक्ष नहीं बन पाए हों, लेकिन विधायकों का नेतृत्व मरांडी ही करते हैं. मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रह चुके हैं और आदिवासी क्षेत्रों में उनकी काफी पकड़ मानी जाती है.
जेएमएम और कांग्रेस के आदिवासी-मुस्लिम फॉर्मूले को काटने के लिए बीजेपी ने मरांडी को इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी. राज्य में आदिवासी और मुसलमान करीब 50 फीसदी के करीब है. मरांडी को आगे कर 2024 में बीजेपी 5-7 आदिवासी सीटों को साधने की कोशिशों में जुटी है.
झारखंड में 14 में से 12 सीटों पर बीजेपी गठबंधन ने 2019 में जीत दर्ज किया था. पार्टी के लिए इसबार भी यहां पुराना प्रदर्शन दोहराने की चुनौती है.
असम में प्रयोग हो चुका है सफल, हिमंत बने हैं सीएम
2021 में दोबारा असम में सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने कांग्रेस से आए हिमंत बिस्वा शर्मा को राज्य की कमान सौंप दी. शर्मा 2015 में कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हुए थे. वे तरुण गोगोई सरकार में मंत्री थे और सरकार के अधिकांश विधायकों का उनके पास समर्थन प्राप्त था.
2016 के चुनाव में असम में कांग्रेस की करारी हार हुई. शर्मा बीजेपी के लिए कांग्रेस के कई गढ़ में सेंध लगाने में कामयाब रहे. 2016 में उन्हें सर्बानंद सोनोवाल सरकार में मंत्री बनाया गया. 2021 में पार्टी ने सोनोवाल की जगह हिमंत को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया.
हिमंत पर पूर्वोत्तर भारत में भी बीजेपी को मजबूत करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है. हाल ही में मेघालय और नगालैंड में सरकार बनाने में हिमंत ने बड़ी भूमिका निभाई थी.
विपक्षी राज्यों में दलबदलुओं को कमान क्यों, 4 प्वॉइंट्स...
संगठन के माहिर और पुराने चेहरे के सहारे केंद्र की सत्ता में दखल रखने वाली बीजेपी कई राज्यों में दलबदेलुओं के सहारे सत्ता में आने की कोशिशों में जुटी है. बीजेपी की इस रणनीति की आलोचना भी हो चुकी है. फिर भी पार्टी का यह प्रयोग बदस्तूर जारी है. 4 प्वॉइंट्स में वजह जानते हैं.
1. मजबूत संगठन नहीं- बीजेपी अभी भी जिन राज्यों में विपक्ष में है, उनमें अधिकांश जगहों पर संघ और बीजेपी का मजबूत संगठन नहीं है. उदाहरण के लिए बिहार और बंगाल में कई जिलों में बीजेपी के पास जमीनी नेताओं की घोर कमी है. यानी पार्टी इन राज्यों में लोगों तक मजबूती से अपनी विचारधारा को नहीं पहुंचा पा रही है.
यही वजह है कि पार्टी दलबदलुओं नेताओं के सहारे यहां पकड़ बनाना चाहती है. पार्टी दूसरे दल के उन नेताओं को साधती है, जिसका एक बिरादरी या क्षेत्र पर पकड़ हो और पार्टी में नेपृथ्य में चल रहे हो. शुभेंदु, हिमंत और सम्राट का किस्सा भी इसी तरह का है.
शुभेंदु तृणमूल में, हिमंत कांग्रेस में और सम्राट जेडीयू-आरजेडी में अलग-थलग चल रहे थे. इन नेताओं को साथ लाकर बीजेपी अपने कोर वोटबैंक में इजाफा कर मजबूत उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है.
2. आक्रमक छवि वाले नेताओं की कमी- बिहार, बंगाल समेत अधिकांश विपक्षी राज्यों में पार्टी के आक्रामक छवि वाले नेताओं की कमी है. इसी की भरपाई करने के लिए पार्टी दलबदलुओं को कमान सौंप रही है.
शुभेंदु अधिकारी बंगाल में सीधे ममता बनर्जी से टकराने के लिए जाने जाते हैं. बाबूलाल मरांडी भी झारखंड में सीधी तौर पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सरकार पर हमलावर रहते हैं. सम्राट की छवि नीतीश विरोधी मानी जाती है.
3. माहौल बनाने में माहिर- दलबदल कर आए नेता बयानों के जरिए माहौल बनाने में माहिर होते है. इन नेताओं को मीडिया का भी खूब फुटेज मिलता है, जिससे राज्य में लोगों के बीच बीजेपी की चर्चा चलती रहती है.
इतना ही नहीं, दलबदलु नेताओं के पास अन्य पार्टियों के रणनीति के बारे में भी जानकारी रहती है, जिसका काट खोजने में मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ता है.
4. बिहार और बंगाल में दलबदल का ज्यादा असर नहीं- बिहार और बंगाल जैसे राज्यों में दलबदल का ज्यादा असर नहीं होता है. पार्टी स्तर से लेकर छोटे स्तर पर नेता एक-दूसरी पार्टी में आसानी से आते-जाते रहते हैं.
शीर्ष के नेता ममता, नीतीश और हेमंत सोरेन भी सरकार बचाने और बनाने के लिए खेमा बदलते रहे हैं. इसलिए बिहार और उससे लगे राज्यों में दलबदल का ज्यादा असर नहीं होता है.