2024 का लोकसभा चुनाव जहां बड़े दलों के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है, वहीं कई छोटी पार्टियों के लिए यह आस्तित्व बचाने की लड़ाई है. क्षेत्रीयता की जंग में उपजी छोटी पार्टियां 90 के दशक में सरकार गिराने और बनाने में बड़ी भूमिका निभाती थी. राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी इन्हीं दलों का दबदबा होता था. 


2014 के बाद केंद्र समेत कई राज्यों से छोटी पार्टियों का दखल खत्म होता गया. बीजेपी-कांग्रेस का चुनावी स्ट्राइक रेट और आमने-सामने की लड़ाई ने छोटी पार्टियों को काफी नुकसान पहुंचाया. हाल ही में कर्नाटक में कांग्रेस और बीजेपी की सीधी लड़ाई में जेडीएस को भारी नुकसान हुआ.


जेडीएस ही नहीं, कांग्रेस और बीजेपी के चुनावी स्ट्राइक रेट बढ़ने से कई छोटी पार्टियों का सियासी रसूख खत्म होने की कगार पर है. चुनाव आयोग के मुताबिक वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर की 6 और करीब राज्य स्तर की 55 पार्टियां प्रभाव में है.




मंडल-कमंडल और क्षेत्रीयता की जंग से उत्पत्ति
भारत में आजादी से पहले भी कई छोटी पार्टियों का गठन हो चुका था, लेकिन 70 के आसपास इसमें बड़े स्तर पर बढ़ोतरी हुई. तमिलनाडु में द्रविड़ की लड़ाई में पहले डीएमके और फिर एआईएडीमके का गठन हुआ.


इसी तरह आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव ने तेलगु देशम नामक पार्टी बनाई. 1977 में इंदिरा के आपातकाल के खिलाफ कई पार्टियों का गठजोड़ भी हुआ और यह सफल भी रहा. 90 के उतरार्द्ध में मंडल-कमंडल की लड़ाई के दौरान कई पार्टियां पनपी.


कांग्रेस से भी टूटकर उत्कल कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, एआईएनआर कांग्रेस और वाईएसआर कांग्रेस जैसी छोटी पार्टियां बनी. अलग राज्यों की मांग को लेकर तेलंगाना राष्ट्र समिति (अब भारत राष्ट्र समिति) और झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसी पार्टियों का भी गठन हुआ. 


90 के दशक में छोटी पार्टियां करीब 20 राज्यों की राजनीति को प्रभावित करती थी. इनमें उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे बड़े राज्य शामिल थे. 


देश में अब कितनी पावरफुल हैं छोटी पार्टियां?
कांग्रेस और बीजेपी की सीधी लड़ाई के बावजूद अभी भी देश में छोटी पार्टियों का कई जगहों पर दबदबा है. देश के 5 राज्यों में छोटी पार्टियों की सरकार है, जबकि 4 राज्यों में छोटी पार्टियां गठबंधन के साथ किंग या किंगमेकर की भूमिका में है.




महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड में राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों की तुलना में छोटी पार्टियां सरकार के ड्राइविंग सीट पर काबिज है, जबकि हरियाणा में बीजेपी के साथ जेजेपी सहयोगी की भूमिका में है. 


2019 की आंकड़ों को देखे तो वर्तमान में छोटी पार्टियों के पास 37.8% वोट है, जो बीजेपी के 37.36% से अधिक है. 2019 के चुनाव में ग्रामीण इलाकों की 353 सीटों में से छोटी पार्टियों ने 120 सीटों पर जीत हासिल की थी. 


शहरी और अर्द्धशहरी सीटों पर भी छोटी पार्टियों का परफॉर्मेंस कई राष्ट्रीय पार्टियों के मुकाबले शानदार रहा. वोट प्रतिशत के मामले में भी डीएमके, तृणमूल और वाईएसआर कांग्रेस जैसी पार्टियां काफी आगे रही.



कैसे खत्म हुई छोटी पार्टियों का दबदबा? 
कांग्रेस या बीजेपी जिन-जिन राज्यों में मजबूत हुई, वहां सबसे अधिक नुकसान छोटी पार्टियों को ही उठाना पड़ा है. इसका उदाहरण असम, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र है. आइए इसे विस्तार से जानते हैं...


उत्तर प्रदेश- बीजेपी बढ़ी तो बीएसपी 1 पर आ गई
यूपी की सियासत में पिछले 30 साल से बीएसपी और सपा सत्ता की धुरी बनी रही, लेकिन 2017 के बाद बीएसपी का पतन शुरू हो गया. वजह था- बीजेपी का सियासी उभार. 2007 के मुकाबले 2022 में समाजवादी पार्टी की सीटों में ज्यादा बदलाव नहीं आया, लेकिन 15 साल में बीएसपी एक पर पहुंच गई.


2007 में बीएसपी को 206 सीटें जीतकर अकेले दम पर यूपी में सरकार बनाने में सफल हुई थी. इसके बाद 2012 में उसे सपा ने हरा दिया. इस चुनाव में बीएसपी को 80 सीटें मिली. 2017 के चुनाव में बीजेपी की लहर में सपा के साथ बीएसपी का भी कमजोर हो गई.




हालांकि, 2022 में सपा ने वापसी कर ली और 111 सीटें जीतने में कामयाब रही. सपा के मुकाबले बीएसपी इसमें पिछड़ गई. 2022 में बीएसपी को सिर्फ एक सीटों पर जीत मिली. राजनीतिक जानकारों के मुताबिक पश्चिमी यूपी में बीएसपी का वोटबैंक बीजेपी में शिफ्ट कर गया.


अकेले दम पर सत्ता में आने वाली गण परिषद का बुरा हाल
असम में कभी अकेले दम पर सत्ता में आने वाली असम गण परिषद पार्टी अब बीजेपी के साथ गठबंधन में छोटे भाई की भूमिका में है. इसकी वजह भी बीजेपी और कांग्रेस का चुनावी स्ट्राइक रेट है.


1996 में प्रफुल कुमार महंत के नेतृत्व में असम गण परिषद ने राज्य में सरकार बनाई. यह सरकार पूरे 5 साल तक चली. पहली बार राज्य में गैरकांग्रेसी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया था. 





2001 में तरुण गोगोई के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने एजीपी को बुरी तरह हरा दिया. इसके बाद गोगोई लगातार 3 बार राज्य के मुख्यमंत्री बने. कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव ने एजीपी में उथल-पुथल मचा दी.


एजीपी से बड़े नेता बीजेपी में पलायन करने लगे. कांग्रेस के मुकाबले असम में बीजेपी ने जनाधार बढ़ाना शुरू कर दिया. असम की लड़ाई बीजेपी और कांग्रेस के बीच की हो गई. 


इस लड़ाई की वजह से एजीपी का दायरा सिकुड़ता गया. वर्तमान में बीजेपी के साथ जूनियर पार्टी के रूप में एजीपी सरकार में शामिल है.


कांग्रेस ने तोड़ा जेडीएस के किंगमेकर बनने का सपना
कर्नाटक में हाल के चुनाव में कांग्रेस की बड़ी जीत ने जनता दल सेक्युलर के किंगमेकर बनने का सपना तोड़ दिया. कर्नाटक में 2004 और 2018 के चुनाव बाद सरकार बनाने में जेडीएस ने बड़ी भूमिका निभाई थी. 


इस बार भी चुनाव से पहले जेडीएस का दबदबा माना जा रहा था, लेकिन कांग्रेस का प्रदर्शन ने इस पर पानी फेर दिया. कांग्रेस की जीत की वजह से जेडीएस अपने गढ़ में भी बुरी तरह हार गई. 


जेडीएस के संस्थापक एचडी देवेगौड़ा के पौत्र निखिल कुमारस्वामी अपनी सीट तक नहीं बचा पाए. 


महाराष्ट्र में बीजेपी ने बढ़ाई शिवसेना के भीतर संकट
कभी मराठा पॉलिटिक्स में बीजेपी के पांव जमाने में मदद करने वाली शिवसेना अब उसी की वजह से संकट में है. 2014 के बाद महाराष्ट्र में बीजेपी का दायरा लगातार बढ़ता गया. 2014 के चुनाव में बीजेपी और शिवसेना अलग-अलग चुनाव लड़ी.


हालांकि, रिजल्ट में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. शिवसेना को बीजेपी ने जूनियर पार्टनर बना लिया, लेकिन 2019 के बाद शिवसेना ने समझौता करने से इनकार कर दिया. बीजेपी के पास इस बार भी जादुई आंकड़ा नहीं था.




शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली, लेकिन आंतरिक बगावत की वजह से 2 साल में ही सरकार गिर गई. इतना ही नहीं शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के हाथ से पार्टी की कमान भी फिसल गई.


अब कोर्ट और स्पीकर के पास यह पूरा मामला है. 


इन वजहों ने भी कम किया छोटी पार्टियों का रसूख


1. सियासी यू-टर्न लेने भी आगे है छोटी पार्टियां- कई छोटी पार्टियां सत्ता में बने रहने के लिए यू-टर्न लेने से भी परहेज नहीं करती है. इसका उदाहरण जेडीयू और डीएमके जैसी पार्टियां हैं. जेडीयू पिछले 10 साल में 5 बार यूटर्न ले चुकी है. हालांकि, इस दौरान जेडीयू के वोट प्रतिशत में गिरावट भी आई.


इसी तरह डीएमके का रिकॉर्ड भी यू-टर्न लेने में जेडीयू की तरह ही है. 1980 के बाद डीएमके 3 बार कांग्रेस और 2 बार बीजेपी के साथ जा चुकी है. हालांकि, डीएमके का यह गठबंधन राष्ट्रीय स्तर का ही रहा है. 


इसी तरह टीडीपी भी कई दफे यूटर्न ले चुकी है. रामविलास पासवान के वक्त लोजपा को भी दलबदल का प्रतीक कहा जाता था. सियासी गलियारों में पासवान को मौसम वैज्ञानिक की उपाधी दी गई थी. 




2. नेता के बाद बेटा ही पार्टी में सुप्रीम- डीएमके, शिअद, सपा, शिवसेना (अब शिवसेना यूबीटी), आरजेडी, जेएमएम, नेशनल कॉन्फ्रेंस और जेडीएस समेत कई ऐसी पार्टियां हैं, जिसका उत्तराधिकारी पिता के बाद बेटा को ही बनाया गया है.


टीडीपी में रामाराव के रहते उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू को कमान मिली. इसी तरह बीएसपी और तृणमूल के संस्थापक अपने बाद भतीजे को कमान देने की तैयारी में है. जेडीयू और एजीपी को छोड़ दिया जाए तो देश की सभी छोटी पार्टियां परिवारवाद की जकड़ में है.


3. पारिवारिक झगड़ा भी वजह- छोटी पार्टियों के कमजोर होने की एक वजह पारिवारिक झगड़ा भी है. हरियाणा में इनेलो सत्ता के केंद्र में रहती थी. लोकदल के वक्त केंद्र में भी बड़ी भूमिका निभाती थी, लेकिन 2018 में परिवारिक टूट के कारण अब कमजोर हो गई है.


ओम प्रकाश चौटाला के पोते दुष्यंत ने खुद की जेजेपी बना ली, जिसने हरियाणा चुनाव में इनेलो को नुकसान पहुंचाया. 2019 के चुनाव में इनेलो एक सीट पर सिमटकर रह गई, उसके वोट प्रतिशत में भी भारी कमी आई. 


यही वजह है कि इन पार्टियों का आधार लगातार कम हो रहा है. हालांकि इसको लेकर दलों का अपने-अपने तर्क भी हैं.