ईसाई धर्म के संस्थापक ईसा मसीह के जन्मदिन पर मनाया जाने वाला क्रिसमस के त्योहार पर पूरी दुनिया जश्न में डूबी हुई है. यूरोपीय देशों में हफ्ते की भर की छुट्टी हो चुकी है. भारत भी इससे अछूता नहीं है. वैसे तो कई राज्यों में एक या दो दिन की सरकारी छुट्टी होती है लेकिन कॉरपोरेट कल्चर में इसका खुमार होली-दीपावली की तरह ही होता है. कई लोग क्रिसमस से लेकर नए साल के आने तक परिवार के साथ छुट्टी पर चले जाते हैं. 


भारत में ईसाई धर्म को मानने वालों की खासी तादाद है. लगभग हर राज्य में इसको मानने वाले हैं. यह बहुत अहम है कि ईसाई धर्म की बुनियादी बातों और उनको मानने वालों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण इस भारत में कितना काम हुआ है. इसके साथ ही एक सवाल जो अक्सर लोगों के बीच चर्चा में होता है कि भारत में ईसाई धर्म कब और कैसे आया.


इंटरनेट पर कई तथ्यों को खंगालने से पता चलता है कि ईसा मसीह के एक शिष्य सेंट थॉमस 52 ईस्वी में आए और तमिलनाडु में उन्होंने ईसाई धर्म को लेकर कुछ काम किए.  इसी तरह का एक दावा क्रिश्चियन हिस्ट्री इंस्टीट्यूट डॉट कॉम में किया गया है जिसके मुताबिक सेंट थॉमस ने भारत में आकर 7 धार्मिक संस्थाओं या चर्चों की स्थापना की. वहीं कुछ किताबों में दावा किया गया है कि सेंट थॉमस 52 ईस्वीं में केरल के तट पर पहुंचे थे. केरल से वो मद्रास पहुंचे जहां मायलापोर में उनको 72 ईस्वी में मार डाला गया. 


केरल में प्रारंभिक ईसाइयों के वंशज संत थॉमस ईसाई के नाम से जाने जाते हैं. उन्हें सीरियाई ईसाई भी कहा जाता है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि वो सीरिया से आए थे. दरअसल इन लोगों के पूजा करने का तरीका सीरिया के लोगों से मिलता था. इन लोगों ने लैटिन देशों की पूजा पद्धति को नहीं अपनाया था.सीरियाई ईसाइयों ने केरल में एक आंशिक समाज की स्थापना की. यह एक समृद्ध समुदाय था और ऊंची जाति का माना जाता था.


लेकिन सही मायनों में ईसाई धर्म का भारत में सबसे ज्यादा प्रसार 16वीं शताब्दी की शुरुआत में यूरोपीयों के आने का साथ शुरू हुआ. पहले पुर्तगाली मिशनरी आए फिर उसके बाद डच, फ्रांसीसी, अंग्रेज, दूसरे यूरोपीय और अमेरिकी मिशनरियां आने शुरू हो गईं. 


खास बात ये रही कि भारतीयों ने जिस मिशनरी के प्रभाव में आकर ईसाई धर्म अपनाया उसके साथ ही उनकी पूजा के तौर-तरीके भी अपना लिए. नतीजा ये रहा है कि अलग-अलग संप्रदाय और चर्च भी बने.


भारतीयों को रोमन कैथोलिक संप्रदाय में धर्मान्तरित करने में सबसे ज्यादा फ्रांसीसी मिशनरियां कामयाब रहीं. उन्होंने दक्षिण भारत के पूर्वी और पश्चिमी तटों के किनारे पाई जाने वाली आबादी के बीच काम किया. आज भी भारत की कुल ईसाई आबादी में  दो तिहाई संख्या दक्षिणी राज्यों में है. वहीं भारत में कैथोलिक ईसाइयों की संख्या भी बाकी मतों वाले ईसाइयों से ज्यादा है.


साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की कुल आबादी में ईसाइयों की संख्या 2.3 फीसदी है. गोवा, मिजोरम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश में ईसाई बहुसंख्यक आबादी में आते हैं.


पूरी दुनिया में जिस तरह से ईसाई धर्म पंथ, संप्रदायों में बंटा हुआ है वैसे ही भारत में भी इसके कई हिस्से हैं. ईसाई धर्म में दो प्रमुख भाग हैं, पहला प्रोटेस्टैंट और दूसरा कैथोलिक. भारत में प्रोटेस्टैंट समुदाय चर्च ऑफ नॉर्थ इंडिया और चर्च ऑफ साउथ इंडिया में बंटा हुआ है. वहीं बाकी ईसाई समुदाय रोमन कैथोलिक, एंग्लिकन और सीरियाई ईसाई हैं. इन सबकी अलग-अलग पहचान है.


भारतीय ईसाइयों में सबसे बड़ा समुदाय रोमन कैथोलिक है जो लैटिन और सीरियाई पद्धति में बंटा हुआ है और इनके रीति-रिवाज भी बिलकुल अलग-अलग हैं.


ईसाई धर्म की स्थापना और विश्वास
आज से 2 हजार साल पहले ईसा मसीह का जन्म हुआ था. 33 साल की अवस्था तक वो जीवित रहे. जीवन के अंतिम 3 सालों में उन्होंने कई चमत्कार किए. बीमारों की सेवा कीं, आश्चर्यजनक काम किए. मान्यता ये भी है कि उन्होंने मृतकों को भी जीवित कर दिया. उन्होंने अपने शिष्यों को परमेश्वर के मुताबिक चलने की शिक्षा दी. ईसाइयों को विश्वास है कि ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाए जाने, उनकी मौत और कब्र में रखे जाने के तीसरे दिन वो फिर जिंदा हो गए. ईसा मसीह खुद परमेश्वर की संतान बताते थे. अपने जीवन में ईसा मसीह ने कई शिष्य बनाए लेकिन इन लोगों ने कभी कोई चर्च या समुदाय नहीं बनाया.


यहूदी धर्म से निकली हैं जड़ें
ईसाई धर्म के संस्थापक ईसा मसीह हैं लेकिन इस धर्म की जड़ें यहूदी धर्म से जुड़ी हैं. इस्लाम और यहूदी धर्म की तरह ही ईसाई धर्म में भी एक परमेश्वर की मान्यता है. ईसाई धर्म से जुड़ी बातों का संग्रह बाइबिल में मिलता है. जो इस धर्म का सबसे मान्यता प्राप्त और पवित्र ग्रंथ है. 


बाइबिल के दो भाग हैं जिसको पुराना नियम और नए नियम में बांटा गया है. पुराने नियम में ईसा मसीह के जन्म से पहले ही बातें हैं जो मूल रूप से हिब्रू भाषा में लिखा गया है. नए नियम में ईसा मसीह से जुड़ी बातें, उनके शिष्यों के कामों का जिक्र किया गया है जो कि यूनानी भाषा में  लिखा गया है.


मुगलकाल में भारत आया था ईसाई धर्म
16वीं शताब्दी के इतिहास में जब यूरोपीय देशों के लोग दक्षिण के तट पर पहुंचे तो उस समय भारत के बड़े हिस्से में मुगलों का शासन था. भारत में यूरोपीयनों का पहुंचना दक्षिण एशिया के इतिहास का बड़ा पड़ाव था.  यूरोपीय लोगों को शुरुआत में भारत में पहुंचते ही मुगलों की सेनाओं का सामना करना पड़ा. पुर्तगाल से आए लोग भारत में मसालों के व्यापार पर नियंत्रण के इरादे से पहुंचे थे जिस पर मुस्लिम व्यापारियों का कब्जा था. 


लेकिन ये लड़ाई कुछ ही सालों में व्यापारिक संबंधों में बदल गई क्योंकि न तो मुगलों का समुद्र पर नियंत्रण का कोई इरादा था और न पुर्तगालियों को पूरे देश पर. 


लेकिन 18वीं शताब्दी में मुगलों की सत्ता कमजोर होने लगी थी और दूसरी ओर ब्रिटेन से आए अंग्रेज और फ्रांस से आए यूरोपीय भारत और उसके व्यापार पूरी तरह से नियंत्रण करना चाहते थे. 1857 की क्रांति असफल के होने के बाद देश में पूरी तरह से अंग्रेजों का कब्जा हो गया और इसके साथ ही भारत में ईसाई धर्म के प्रसार को भी नया रास्ता मिला. 


लेकिन ऐसा नहीं था कि भारत में अंग्रेजों के कब्जे के बाद से ही ईसाई धर्म को विस्तार मिला. ईसाई धर्म के विद्वानों और मुस्लिमों विद्वानों के बीच बहस अकबर और जहांगीर के दरबार में होती रही है. 


सन 1542 में फ्रांस से रोमन कैथोलिक से जुड़े धार्मिक शख्स फ्रांसिस जेवियर भारत आए और यहां के क्रिश्चियन समुदाय के बीच काम करना शुरू किया इसके साथ ही उन्होंने हिंदुओं को ईसाई धर्म अपनाने के लिए भी प्रेरित किया. 


इसके साथ ही मुस्लिम राजाओं ने भी ईसाई धर्म के विद्वानों को अपने दरबार में बुलाना शुरू किया और उनके साथ धार्मिक चर्चाओं में हिस्सा लिया. बीजापुर के सुल्तान अली आदिल शाह ने गोवा के आर्कबिशप को धार्मिक चर्चा में हिस्सा लेने के लिए ईसाई विद्वानों को भेजने का निमंत्रण दिया. जवाब में आर्कबिशप ने एक डोमिनकन संत, एक रोमन कैथोलिक संत और एक क्रिश्चियन व्यापारी को सुल्तान के दरबार में भेजा.  


उत्तर भारत में करीब 50 साल तक शासन करने वाले मुगल बादशाह अकबर के जमाने में अमेरिकी व्यापारियों का आना शुरू हुआ और वो भारत में आकर बसने लगे. अकबर दरबार में भी ईसाई धर्म के विद्वानों और संतों के साथ कई तरह की धार्मिक चर्चाएं जारी रहीं.


1580 में अकबर के शासनकाल की राजधानी फतेहपुर सिकरी में दो ईसाई संतों के आने का जिक्र मिलता है. इनको मुगल बादशाह के निमंत्रण पर ही भेजा गया था. मुगलकाल में बाइबिल और पर्सियन ग्रंथों के अनुवाद, लिपिबद्ध करने का भी खूब काम हुआ है.


इतिहास के कुछ तथ्यों की मानें तो अकबर ईसाई धर्म से बहुत प्रभावित था. इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म के विद्वानों के बीच धार्मिक ग्रंथों को लेकर खूब बहस होती थी. 


1595 में अकबर के ही निमंत्रण पर फ्रांस से रोमन कैथोलिक संतों का एक प्रतिनिधिमंडल आया जिसमें इरोम जेवियर शामिल थे. फ्रांसिस जेवियर के ही परिवार के थे. ये प्रतिनिधिमंडल लाहौर पहुंचा जो उस समय तक अकबर की राजधानी बन चुकी थी. अकबर के दरबार में इरोम जेवियर ने तीखी धार्मिक बहस की और बाद में खुद पर्सियन भाषा के अध्ययन पर केंद्रित कर लिया.


इसी समय 1597 में लाहौर में एक चर्च बनाया गया. साल 1601 में अकबर के दरबार से एक फरमान जारी किया गया जिसके मुताबिक शहर में ईसाई को उनके धार्मिक क्रियाकलापों की छूट मिल गई. इसी तरह 1599 में आगरा में भी एक चर्च बनाया गया. जो 'अकबर चर्च' के नाम से मशहूर हुआ. इरोम जेवियर ने क्रिश्चियन-मुस्लिम संबंधों पर कई किताबें लिखीं जिसमें से एक 'द मिरर ऑफ हॉलिनेस, दैट इज द लाइफ ऑफ द लॉर्ड जीसस' है.


इसी तरह उनकी एक प्रमुख किताब 'द ट्रुथ-शोइंग मिरर' है जिसको पुर्तगाली भाषा में लिखा और बाद में पर्सियन भाषा में अनुवाद किया गया. हालांकि मुगल या मुस्लिमों का शासकों का दरबार में ईसाई विद्वानों के साथ संवाद या तो धार्मिक या फिर राजनीतिक. लेकिन बादशाह अकबर का दरबार गोवा के ईसाइयों के साथ लगातार संपर्क में रहा क्योंकि बादशाह अकबर खुद भी इस धर्म के प्रति बहुत ही रुचि रखता था.


दुनिया के सबसे अमीर और शक्तिशाली राजाओं में से एक अकबर ने अब्दुस सत्तार कासिम को ग्रीक और लैटिन भाषाओं को सीखने के लिए नियुक्त किया ताकि पश्चिमी देशों की किताबों और साहित्य को ठीक से समझा जा सके.
 
अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर के दरबार में भी ईसाई विद्वानों के साथ संवाद जारी रहा. इन संवादों के जरिए जहां मुगल दरबार में ईसाई धर्म की समझ और पैठ बढ़ी वहीं आम लोगों में भी इसके प्रसार को बल मिलता रहा. 


प्रोटेस्टेंट मिशनरी का मिशन रहा धीमे
भारत में रोमन कैथोलिक ईसाई जितनी तेजी से अपने विचार को फैला रहे थे उनकी तुलना में प्रोटेस्टेंट काफी धीमे रहे. हालांकि उनका दक्षिण एशिया में पहुंचना भारत में क्रिश्चियन और मुसलानों के संबंधों का अहम पड़ाव साबित हुआ.


जर्मन मिशनरियों की अहम भूमिका
मुसलमानों और ईसाइयों के बीच संबंधों में दो जर्मन मिशनरियों का अहम रोल रहा है. साल 1719 में बेंजमिन एस. जिन्होंने दक्षिण के दरबार की प्रमुख भाषा दक्षिणी ऊर्दू सीखा. इसके बाद 1750 में क्रिश्चियन फ्रेडरिक दक्षिण भारत पहुंचे. ये वो दौर था जब मुगल दरबार कमजोर हो चुका था और हैदराबाद के निजाम एक शक्तिशाली केंद्र बनकर उभर रहे थे. क्रिश्चियन फ्रेडरिक ने स्थानीय मुस्लिम राजाओं के साथ संवाद स्थापित किया. ब्रिटिश शासन के कहने पर उन्होंने मैसूर के राजा हैदर अली खान के लिए भी मध्यस्त के तौर पर काम किया.


भारत में जैसे मुगल दरबार कमजोर हो रहा था स्थानीय मुस्लिम शासकों का नियंत्रण बढ़ रहा था. ईसाई धर्म के मानने वाले लोग भी इससे प्रभावित थे. जब हैदर अली ने  कन्नड़ इलाके पर कब्जा किया तो उसने रोमन कैथोलिकों से वादा किया उनको वही धार्मिक आजादी मिलेगी जो पूर्व के हिंदू राजा के समय मिली थी. लेकिन उसके बेटे टीपू सुल्तान के समय ब्रिटिश सरकार से लड़ाई छिड़ गई. इस दौरान ईसाई धर्म के मानने वालों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. हालांकि बाद में जैसे-जैसे अंग्रेजों का नियंत्रण बढ़ा मिशनरियों और ईसाई धर्म के विद्वानों के लिए कठिनाइयां कम होती चली गईं.