कॉलेजियम विवाद के बीच कानून मंत्रालय ने देशभर के हाईकोर्टों में पिछले 5 सालों में नियुक्त जजों की संख्या के बारे में ससंदीय समिति को बताई है. कानून मंत्रालय के मुताबिक 2018 से 19 दिसंबर 2022 तक कुल 537 जजों को विभिन्न हाईकोर्टों में नियुक्त किया गया. इनमें 79% जज अपर कास्ट से, 11% ओबीसी से, 2.8% एससी से 2.6% अल्पसंख्यक वर्ग से और 1.3% एसटी से नियुक्त किए गए. 


कानून मंत्रालय ने संसदीय समिति को बताया कि 20 जजों की जातियों के बारे में जानकारी नहीं मिल सकी है. 5 सालों में हुए 537 में से 271 नियुक्तियां बार कोटे से हुई है, जबकि 266 नियुक्तियां सर्विस कोटे से की गई है. जजों की नियुक्ति और जाति को लेकर एक बार फिर से कॉलेजियम को लेकर सवाल उठने लगे हैं. 




हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया क्या है?
भारत की संविधान में हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के अधिकार के बारे में संविधान की धारा 217 (1) में जिक्र किया गया है. इसके मुताबिक चीफ जस्टिस और 2 सीनियर जजों की सिफारिश और संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श के आधार पर राष्ट्रपति जजों को नियुक्त करते हैं. 


कॉलेजियम नामों की चर्चा कर सिफारिश को कानून मंत्रालय के पास भेजती है. इसके बाद मंत्रालय इन नामों को राष्ट्रपति कार्यालय भेज देती है. राष्ट्रपति कार्यालय से मुहर लगने के बाद नियुक्ति का आदेश सरकार निकालती है. 


कॉलेजियम पर आया अब तक का 2 बड़े बयान...


1. किरेन रिजिजू, केंद्रीय कानून मंत्री- जजों की नियुक्ति में विविधता नहीं होने के लिए कॉलेजियम सिस्टम जिम्मेदार है. कॉलेजियम सिस्टम एलियन की तरह काम करती है. हम सबको इसके बारे में सोचना होगा कि आखिर क्यों 5 करोड़ से ज्यादा केस पेंडिंग है.


2. डीआई चंद्रचूड़, सीजेआई- संवैधानिक लोकतंत्र में कॉलेजियम सहित कोई भी संस्था परिपूर्ण नहीं है और इसका समाधान मौजूदा व्यवस्था के भीतर काम करना है. कॉलेजियम के सभी न्यायाधीश संविधान को लागू करने वाले वफादार सैनिक होते हैं. 


हाईकोर्ट जज बनने की योग्यता क्या है? 



  • सबसे पहली योग्यता भारत के नागरिक होने की है.

  • जज बनने के लिए लॉ की बैचलर डिग्री जरूरी.

  • सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट में 10 साल तक वकालत का अनुभव.


सिर्फ कॉलेजियम नहीं, सरकार भी जिम्मेदार
लंदन यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहे अरविंद कुमार सरकार को भी इसके लिए दोषी मानते हैं. कुमार द प्रिंट में लिखे एक लेख में लिखते हैं- हाइकोर्टों में अधिकांश जज हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रहे वकीलों के पूल से नियुक्त किए जाते हैं. इन्हें विधि अधिकारी कहते हैं, जो पूर्व में अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल, महाधिवक्ता, अतिरिक्त महाधिवक्ता या केंद्र और राज्य सरकारों की स्थायी परिषद के सदस्य रहते हैं. 


इन सभी पदों पर नियुक्तियां सीधे तौर पर सरकार करती है. अरविंद आगे कहते हैं- देश में अभी 21 अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल हैं, और उनमें केवल दो महिलाएं हैं. कोई भी एससी/एसटी वर्ग से नहीं है. क्या ये कोलेजियम सिस्टम की गलती है? 


हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को और अधिक विस्तार से बताते हुए सुप्रीम कोर्ट के वकील ध्रुव गुप्ता कहते हैं- कॉलेजियम के पास वरिष्ठता और IB इनपुट से मिली जानकारी के आधार पर फाइलें आती हैं. उन नामों में से कॉलेजियम कुछ नामों की सिफारिश राष्ट्रपति और सरकार को भेजती है. 


कॉलेजियम को खत्म करते इसे ठीक किया जा सकता है?
इस सवाल के जवाब में ध्रुव गुप्ता कहते हैं, 'सिर्फ कॉलेजियम को हटाना इसका समाधान नहीं है. जजों की नियुक्ति और प्रमोशन के लिए एक उचित मानदंड (क्राइटेरिया) बनाना होगा. 


अभी जो क्राइटेरिया है, इसी के आधार पर जजों की नियुक्ति होती है, जिस वजह से कई जातियों का प्रतिनिधित्व बहुत ही ज्यादा हो जाता है. केंद्र सरकार 2014 में इसे ही ठीक करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) का कानून लेकर आई थी. 


NJAC क्या है, विवाद क्यों?
2014 में मोदी सरकार ने जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) बनाया था. इसमें चीफ जस्टिस, कानून मंत्री समेत 6 लोगों को शामिल करने की बात कही गई थी. 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस आयोग को संविधान के विरुद्ध बताते हुए खत्म कर दिया था. 


सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि आयोग के गठन से न्यायिक स्वतंत्रता पर असर होगा. कोर्ट ने इसमें शामिल 2 प्वॉइंट्स को अवैध ही घोषित कर दिया. 


1. NJAC में बाहर के जो 2 सदस्य शामिल होंगे, उनकी नियुक्ति चीफ जस्टिस, प्रधानमंत्री और लोकसभा के प्रतिपक्ष को करना था. आयोग के नियम में कहा गया कि 2 सदस्यों की ओर से वीटो लगाने पर नियुक्ति प्रक्रिया रूक सकती है.


2. इस आयोग में चीफ जस्टिस से ही वीटो पावर ले लिया गया था. यानी विवाद की स्थिति में भी चीफ जस्टिस वोट नहीं कर पाएंगे.