Dastan-E-Azadi: क्यों अंग्रेजों से टुकड़ों में आजादी चाहते थे अंबेडकर
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कांग्रेस और महात्मा गांधी के आजादी के आंदोलन की लड़ाई में शामिल होने से इंकार कर दिया था. डॉक्टर अंबेडकर का मानना था कि समाज एकदम से मिलने वाली आजादी के लिए तैयार नहीं है.
Independence Day: भारतीय आजादी की दास्तां के किस्से स्वतंत्रता सेनानियों की शहादत के साथ-साथ आंदोलन के दौरान देश के नेताओं के बीच आपसी मनमुटाव के भी रहे हैं. आजादी की लड़ाई के समय हर प्रमुख आंदोलन की रूपरेखा कांग्रेस की बैठकों और सम्मेलन में तय हुआ करती थी. इतिहास के पन्नों में एक ऐसी भी दास्तां दर्ज है, जिसके बारे में शायद बहुत कम ही लोग ही जानते होंगे.
इस कहानी में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कांग्रेस और महात्मा गांधी के आजादी के आंदोलन की लड़ाई में शामिल होने से इंकार कर दिया था. डॉक्टर अंबेडकर का मानना था कि देश और समाज एकदम से मिलने वाली आजादी के लिए अभी पूरी तरह तैयार नहीं है. आइये जानते क्या है आजादी की यह पूरी कहानी.
अंबेडकर ने महात्मा मानने से कर दिया था इंकार
बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और भारतीय संविधान को लिखने वाले डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बीच कभी पटरी नहीं खाई. भीमराव अंबेडकर ने तो 1955 में बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में स्पष्ट शब्दों में कहा था कि “ गांधी जी कभी सुधारक नहीं थे. वह रुढ़िवादी हिंदू थे. उऩ्होंने जीवनभर एक राजनीतिज्ञ की तरह काम किया. मैं उन्हें महात्मा मानने से भी इंकार करता हूं.” महात्मा गांधी और अंबेडकर जब भी मिलते थे. उनमें हमेशा तल्खी ही रहती थी. फ्रेंच राजनीति विज्ञानी क्रिटोफ जाफ्रलो ने डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जीवनी लिखी है. उसमें अंबेडकर से जुड़ी कई बातों का भी उल्लेख किया गया है.
पहली मुलाकात में ही नजर आई नाराजगी
वैसे तो गांधी जी और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की पहली मुलाकात 14 अगस्त 1931 को मुंबई (तब बंबई) के मणि भवन में हुई थी. गांधी जी ने स्वंय उन्हें मिलने के लिए बुलवाया था. यह पहली ही मुलाकात इतनी तनावपूर्ण थी कि उसकी सियासी गलियारे में काफी लंबे समय तक चर्चा रही थी. इसके बाद दोनों के बीच हर बात को लेकर टकराव की स्थिति बनीं रहती थी.
अंबेडकर के निर्णय के खिलाफ गांधी जी का आमरण अनशन
अंबेडकर की जीवनी के अनुसार वायसराय काउंसिल में जुड़े होने के कारण डॉक्टर अंबेडकर के पास श्रम विभाग की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी थीं. वायसराय की पदवी कैबिनेट मिनिस्टर के समान होती थी. अंबेडकर साहब ने कई नियमों में बदलाव कर कानून बनवाए. इसके अलावा दलितों को 2 वोट का अधिकार भी दिलवाया.
इसमें वह एक वोट अपने दलित समुदाय को और एक सामान्य प्रत्याशी के लिए करता था. गांधी जी इस फैसले से बहुत नाराज हुए. उनका मानना था कि इससे हिंदुओं की एकता पर असर पड़ेगा. इससे सवर्णों और दलितों के बीच की खाईं और बढ़ेगी. उन्होंने इसके खिलाफ पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया. गांधी जी की जब तबीयत बिगड़ने लगी तो देशभर में डॉक्टर अंबेडकर का विरोध शुरू हो गया.
डॉक्टर अंबेडकर को झुकना पड़ा
देशभर में डॉक्टर अंबेडकर के पुतले फूंके जाने लगे. दलितों की बस्तियां जलाई जाने लगीं. अंततः डॉक्टर अंबेडकर को झुकना पड़ा. उऩ्होंने बड़े भारी मन से ‘पूना पैक्ट’ समझौता किया. गांधी जी उस समय यरवदा जेल में थे. वहीं जाकर 24 फरवरी 1932 को अंबेडकर ने पूना पैक्ट पर बोझिल मन से रोते हुए हस्ताक्षर किए थे. अंबेडकर के अथक प्रयासों के बाद बड़ी मुश्किलों से दलितों को दो वोट के अधिकार पर साइमन कमीशन 1928 में राजी हुआ था.
17 अगस्त 1932 में ब्रिटिश सरकार दलितों को अलग निर्वाचन (2 वोट) का अधिकार देने पर राजी हुई थी. पुणे पैक्ट के बाद दलितों के दो वोट का अधिकार तो समाप्त हो गया था. इसके बदले में प्रांतीय विधानमंडलों में आरक्षित सीटों की सख्या में बढ़ोत्तरी करते हुए उन्हें 71 से 147 कर दिया गया. वहीं केंद्रीय विधायिका में कुल सीटें 18 परसेंट कर दी गईं.
इसलिए अंबेडकर थे एकसाथ पूरी आजादी के खिलाफ
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ब्रिटिश शासन में जिस पद पर थे. उन्हें लगता था कि वह अंग्रेज शासन के दौरान ही दलितों के उत्थान के लिए इतना कुछ कर दें कि उससे जातिवाद की खाई और लोगों की मानसिकता बदल जाए. उऩ्हें लग रहा था कि समाज अभी पूरी आजादी के लिए तैयार नहीं है.
दूसरी ओर इस समय दूसरे विश्व युद्ध को लेकर भी अंबेडकर बहुत डरे हुए थे. वह भी यह मानने लगे थे कि नाजी, इतालवी फासीवादी और जापानी अंग्रेजों से कहीं ज्यादा खौफनाक हैं. उन्हें डर था कि कहीं अंग्रेजों के जाने के बाद जापानी देश पर कब्जा न कर लें.
नाजी और जापानियों से डर गए थे डॉ अंबेडकर
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान शुरु हुए भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्होंने कहा था कि इस आंदोलन के दौरान आराजकता को बंद किया जाए. उन्होंने आशंका जताई कि इससे कहीं जापानी लोगों का भारत पर कब्जा न हो जाए. अगर ऐसा होगा तो परिणाम और भयानक हो सकते हैं. इसीलिए डॉक्टर अंबेडकर ने महात्मा गांधी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भी शामिल होने से मना कर दिया था.
इसलिए हुए थे आजादी के आंदोलन से अलग
जब गांधीजी ने 8 अगस्त 1942 बंबई के गोवालिया मैदान पर हजारों लोगों के सामने भारत छोडो आंदोलन की शुरुआत करते हुए ‘करो या मरो’ का नारा दिया था, तो अंग्रेज हूकूमत की नींव हिल गई थी. अंग्रेजों ने घबराकर गांधी जी, सरदार पटेल और नेहरू जी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. इसके बाद यह आंदोलन पूरे देश में और जोर से फैल गया. कई लोगों ने वायसराय की पदवी भी छोड दी थी, लेकिन डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने आंदोलन में भाग लेने से इंकार करने के अलावा वायसराय का पद भी छोड़ने से इंकार कर दिया था.
ये भी पढ़ेंः
Dastan-E-Azadi : जब लाल किले पर लड़ा गया आजाद हिंद फौज का मुकदमा