गुजरात विधानसभा चुनाव : इस गणित का तोड़ तो पीएम मोदी भी नहीं ढूंढ पाए थे, BJP के लिए यही है बड़ी टेंशन
गुजरात विधानसभा चुनाव में बीजेपी सबसे मजबूत पार्टी है. लेकिन चुनाव दर चुनाव वोट प्रतिशत और सीटों पर नजर डालें तो इस बार बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती है.
गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान किसी भी समय भी हो सकता है. गुजरात में बीजेपी 27 सालों से सत्ता में है. चुनाव के समय 'इलेक्शन मशीन' बन जाने वाली बीजेपी को इस जीत के सिलसिले को बरकरार रखने की पूरी कोशिश कर रही है.
लेकिन अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो बीजेपी के सामने इस बार बड़ी चुनौती नजर आ रही है. आम आदमी पार्टी बीजेपी के खिलाफ राज्य में हिंदुत्व का ही सहारा ले रही है. गुजरात में अभी तक दो ध्रुवीय चुनाव देखता रहा है. जहां पर लड़ाई बीजेपी और कांग्रेस के बीच होती है. लेकिन आम आदमी पार्टी इस चुनाव को तीन ध्रुवीय बनाने की कोशिश कर रही है.
बीजेपी साल 1995 से इस राज्य में सत्ता में है. हिंदुत्व की प्रयोगशाला में कही जाने वाले राज्य गुजरात में साल 2002 के चुनाव को छोड़ दिया जाए तो बीजेपी की सीटें लगातार घटती रही हैं. साल 1995 में बीजेपी को 121, साल 1998 में 117, साल 2002 में 127, साल 2007 में 116, साल 2012 में 115 और साल 2017 में 99 सीटें मिली थीं. सीटों की तरह ही राज्य में बीजेपी का वोट प्रतिशत भी घटता रहा है.
हालांकि इस दौरान पार्टी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह जैसे दो बड़े नेता भी मिले हैं जो हर चुनाव में बीजेपी की जीत के लिए रणनीति बनाते हैं. नरेंद्र मोदी लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं. देश की समूची राजनीति अब उन्हीं के इर्दगिर्द घूमती है.
बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अब चुनाव दर चुनाव घटती सीटों को रोकना है.राज्य में 182 विधानसभा सीटें हैं और बहुमत के लिए 92 सीटें की जरूरत है. बीजेपी पिछली बार 99 सीटें लेकर सरकार तो बना ली थी. लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया था जब लगा कि पार्टी बहुमत के आंकड़े को छू नहीं पाएगी.
साल 2017 में बीजेपी के सामने कई मोर्चों पर चुनौती थी. साल नोटबंदी की वजह से व्यापारी वर्ग को काफी नुकसान हुआ था. जीएसटी के कठिन प्रावधानों से भी नाराजगी थी. दूसरी ओर पूरे राज्य में पाटीदार आरक्षण आंदोलन का जोर था और इसके चेहरा रहे हार्दिक पटेल कांग्रेस के साथ खड़े थे. लेकिन सबसे बड़ी चुनौती थी बीजेपी की ओर से मुख्यमंत्री पद के लिए कोई दमदार चेहरा था. जैसा कि बीते चुनाव में नरेंद्र मोदी के होने का फायदा मिलता था.
दूसरी ओर राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस बेरोजगारी, पाटीदार आंदोलन को तो मुद्दा बनाया ही था. इसके साथ ही राहुल गांधी ने पहली बार सॉफ्ट हिंदुत्व का चोला भी पहनकर 27 मंदिरों में दर्शन कर डाले.
साल 2017 में जिस चुनाव को बीजेपी के पक्ष में एकतरफ माना जा रहा था, आखिरी तक वह कांटे की लड़ाई में बदल गया. मतदाताओं का बदला रुख देखकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर मोर्चा संभाला और उन्होंने गुजराती अस्मिता और उनके कार्यकाल में हुए विकास के कामों का बखान शुरू कर दिया. इसका फायदा भी पार्टी को मिला था.
इस चुनाव में कांग्रेस अगर जीत जाती तो इसका असर 2019 के चुनाव में भी हो सकता था. इस बात को बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही समझ रहे थे. लेकिन कांग्रेस की हार में उसकी रणनीति और मणिशंकर अय्यर और हार्दिक पटेल के बयानों का भी बड़ा हाथ रहा है.
मणिशंकर अय्यर ने चुनाव के दौरान ही एक बयान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए नीच शब्द का इस्तेमाल किया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित पूरी बीजेपी ने इसको मुद्दा बना लिया. अहमदाबाद में हुई रैली में पीएम मोदी ने कहा,' ‘मणिशंकर अय्यर ने कहा है कि मैं नीच जाति से आता हूं, मैं नीच हूं, यह गुजरात का अपमान है. क्या मैंने कोई नीच काम किया है.'
पार्टी की प्रचार की कमान संभाल रहे राहुल गांधी ने डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश करते हुए मणिशंकर अय्यर को कांग्रेस से निलंबित कर दिया लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था.
साल 2017 में गुजरात में पाटीदार आंदोलन जोरों पर था. राज्य में 50 सीटें ऐसी हैं जहां पर पाटीदार जीत-हार तय करते हैं. आरक्षण को लेकर पटेलों में बीजेपी के खिलाफ नाराजगी थी. राज्य में ये समुदाय बीजेपी का कोर वोटर है. लेकिन आंदोलन की वजह से बीजेपी का गणित गड़बड़ लग रहा था. लेकिन इस आंदोलन का बड़ा चेहरा हार्दिक पटेल ने ऐसा बयान दे दिया जिससे पाटीदारों में भ्रम की स्थिति हो गई.
हार्दिक पटेल ने एक रैली में कहा,'हमें पहले बीजेपी को हटाना है, आरक्षण की जंग तो जारी रहेगी.' इस बयान का कांग्रेस के खिलाफ असर हो गया. लोगों में संदेश गया कि आरक्षण आंदोलन के पीछे कांग्रेस है. फिर भी कांग्रेस को पाटीदारों का खासा वोट मिला लेकिन वह सरकार नहीं बना पाई.
कांग्रेस ने इस चुनाव में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर जैसे नेताओं पर भरोसा किया था. दरअसल पार्टी की रणनीति थी पाटीदार, दलित और ओबीसी वोटों को इन नेताओं के जरिए साध लिया जाए. इसके चलते कांग्रेस ने टिकट बांटने में इन नेताओं को ज्यादा तरजीह दे दी. नतीजा ये रहा कि पार्टी के कई नेता और कार्यकर्ता नाराज हो गए.
बीजेपी का TINA फैक्टर
गुजरात में बीजेपी के पक्ष में दो बड़े समीकरण हमेशा बड़े हथियार रहे हैं. पहला हिंदुत्व तो दूसरा नरेंद्र मोदी के टक्कर का कोई दूसरा विकल्प न होना. अंग्रेजी में इसे 'There is No Alternative' यानी TINA फैक्टर कहा जाता है. साल 2017 के भी चुनाव में भी कांग्रेस इसका कोई तोड़ ढूंढ नहीं पाई थी.
कांग्रेस का KHAM फैक्टर
गुजरात में बीजेपी के सभी फैक्टर अभी तक कांग्रेस के KHAM फैक्टर के आगे फेल रहा है. साल 1985 में माधव सिंह सोलंकी की अगुवाई में कांग्रेस ने 145 सीटें जीत ली थीं. इतना बड़ी जीत बीजेपी को अभी तक नहीं मिल पाई है. कांग्रेस की इस जीत में सोशल इंजीनियरिंग का बड़ा फॉर्मूला था. दरअसल इसमें क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमानों (KHAM) का गठजोड़ शामिल था. इन सभी समुदायों का वोट मिलाकर कांग्रेस ने बड़ी जीत दर्ज की थी.
बीजेपी के सामने इस बार बड़ी चुनौती
मुख्यमंत्री पद के दावेदार भूपेंद्र सिंह पटेल हैं जो कि नरेंद्र मोदी के मुकाबले कोई बड़ा चेहरा नही हैं. इसलिए 27 सालों से चल रही बीजेपी सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को थामना उनके चेहरे के दम पर साधना बड़ी चुनौती हो सकती है.
अगर आम आप आदमी पार्टी इस बार उपस्थिति दर्ज करा पाती है तो इस बार का चुनाव दो ध्रुवीय न होकर तीन ध्रुवीय हो सकता है. बीजेपी को इसका फायदा भी मिल सकता है और नुकसान भी. अगर कांग्रेस इस राज्य में ठीक से चुनाव नहीं लड़ पाती है तो उसका वोटबैंक विकल्प की तलाश में आम आदमी पार्टी में जा सकता है. ऐसा दिल्ली में हो चुका है. ऐसे हालात में बीजेपी के लिए जरूरी है कांग्रेस भी मजबूती से चुनाव लड़े.
इस बार के चुनाव में हिंदुत्व का तड़का नहीं दिखाई दे रहा है. हालांकि आम आदमी पार्टी भारतीय करेंसी पर गणेश-लक्ष्मी की तस्वीर छापने की मांग रही है. लेकिन बीजेपी इसको खास तवज्जो नहीं दे रही है. इसके पीछे रणनीति भी हो सकती है.
पार्टी नहीं चाहती है कि आम आदमी पार्टी को इस मुद्दे पर जवाब देकर इस स्पेस में उसको जगह दिया जाए. इसके साथ ही बीजेपी चुनाव का रुख देख इसका इस्तेमाल करना चाहेगी.
बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती गुजरात में आदिवासी इलाके की 27 सीटें हैं. साल 2017 के चुनाव में इन सीटों में कांग्रेस गठबंधन ने 18 सीटें जीत ली थीं और बीजेपी के खाते में मात्र 9 सीटें ही आई थीं. भारतीय ट्राइबल पार्टी यानी बीटीपी ने इस साल 2017 में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था जिसमें 2 सीटें उसको मिली थीं और एक सीट निर्दलीय के खाते में गई थी. इन 27 को छोड़ दें तो 13 और विधानसभा क्षेत्र हैं जहां पर आदिवासी जीत और हार तय करते हैं.
बीटीपी ने इस बार पहले आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन का ऐलान किया था. लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाई. बीटीपी नर्मदा जिले की दो सीटों पर बहुत ही मजबूत स्थिति में है. हालांकि बाकी आदिवासी बहुल सीटों पर ये पार्टी वोट काटने की स्थिति में है.
फिलहाल तो बीजेपी गुजरात में मोदी बनाम अन्य बनाने की कोशिश में हैं. साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने इस राज्य में पीएम मोदी के चेहरे के दम पर ही क्लीन स्वीप किया है. बीजेपी की कोशिश है कि इस बार बड़ी सीटों के अंतर से जीतकर दर्ज कर पूरे देश में 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए संदेश दिया जाए. लेकिन सबसे बड़ी चुनौती ये है कि चुनाव दर चुनाव घटती सीटें और वोटों का प्रतिशत कैसे थमेगा. बीते चुनाव में पार्टी 99 सीटों पर अटक गई थी.