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क्या मई 2023 से बदल जाएगी पूरे देश की राजनीति? नीतीश कुमार के तरकश में आ रहा है नया 'तीर'

नीतीश कुमार ने जातीय जनगणना की समय सीमा मई 2023 कर दी है. जब ये आंकड़े नीतीश कुमार के पास आएंगे तो लोकसभा चुनाव होने में ठीक एक साल रह जाएगा.

बिहार के सीएम नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के नेता और उनके गठबंधन के साथी तेजस्वी यादव उनको प्रधानमंंत्री पद का दावेदार बता रहे हैं. नीतीश भी अब अपने तरकश में ऐसे तीर को सजाने की तैयार कर रहे हैं जिसके इस्तेमाल से राजनीतिक उथल-पुथल मच सकती है. अगर ये निशाने पर लगा तो इसका नुकसान बीजेपी को सबसे ज्यादा हो सकता है. 

बिहार में बीजेपी को चौंकाने के बाद नीतीश कुमार दिल्ली में कई बड़ी पार्टियों के नेताओं से मुलाकात कर संयुक्त विपक्ष का मोर्चा बनाने की कवायद शुरू कर दी थी. हालांकि इस नीतीश की यह कोशिश परवान चढ़ती नहीं दिखी. 

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी ने तो चुनाव से पहले किसी भी तरह के गठबंधन में शामिल होने से ही इनकार कर दिया. वहीं यूपी में सपा की ओर से भी कोई पक्का आश्वासन नहीं मिला है. दूसरी ओर बीएसपी ने भी अभी तक पत्ते नहीं खोले हैं.

कांग्रेस की रणनीति को देखकर ऐसा लग रहा है कि उसकी कोशिश किसी तरह केंद्र की सत्ता से बीजेपी को हटाना है और इसके लिए वो किसी के भी पास गठबंधन कर सकती है. लेकिन एक ये भी सच्चाई है कि कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जो बीजेपी को अभी कम से कम 200 सीटें पर सीधी टक्कर देती है. 

लेकिन हिंदुत्व के रथ पर सवार पीएम मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने ओबीसी जातियों का जो समीकरण तैयार किया है उसकी काट अभी किसी भी विपक्षी पार्टी के पास नहीं दिख रही है. अगर सीधे शब्दों में कहें तो बीजेपी के हिंदुत्व की काट अभी तक कोई राजनीतिक दल खोज नहीं पाया है.

लेकिन नीतीश कुमार ने इसकी काट खोजने में लगे हैं. दरअसल बीजेपी का हिंदुत्व कार्ड जातीय समीकरणों वाले चुनावी मैदान में स्विंग नहीं करता है. इसकी सबसे बड़ी तस्वीर साल 2016 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव हैं जब जेडीयू और आरजेडी ने मिलकर जातीय समीकरणों का ऐसा गठबंधन तैयार किया जिसमें बीजेपी फंस गई. 

इसके बाद बीजेपी ने भी सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला निकाला और गैर यादव, गैर जाटव जातियों को अपने पाले में कोशिश की इसका फायदा पार्टी को लगातार मिल रहा है. 

लेकिन अब बीते कुछ सालों से आरजेडी नेता तेजस्वी यादव जातीय जनगणना की बात कर रहे हैं. जिसका समर्थन सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव भी करते हैं. बिहार के सीएम नीतीश कुमार भी जब एनडीए में थे तब से तेजस्वी लगातार उन पर दबाव बनाए हुए थे.

आरजेडी के साथ सरकार बनाते ही नीतीश कुमार ने बिहार में जातीय जनगणना कराने का फैसला ले लिया और इसको फरवरी 2023 तक पूरा कर लेने का लक्ष्य था. लेकिन कुछ दिन पहले ही इसकी समय सीमा बढ़ाकर मई 2023 कर दी गई है.

यानी लोकसभा चुनाव 2024 से ठीक एक साल पहले नीतीश कुमार के बिहार में जातीय जनगणना का पूरा डाटा होगा. बिहार के सीएम नीतीश ने कई बार जातीय जनगणना को सरकारी नौकरी से जोड़ चुके हैं. तेजस्वी ने कई बार 'जितनी जिसकी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी' का नारा लगा चुके हैं. 

इसका मतलब ये हुआ कि जिस जाति की जितनी संख्या होगी उसके लिए आरक्षण का दायरा उतना ही बढ़ जाएगा. और इसमें ओबीसी जातियों को सबसे ज्यादा फायदा मिलेगा जो इस समय बीजेपी के पाले में हैं. आरक्षण का दायरा बढ़ते ही ये जातियां चुनाव में नीतीश-तेजस्वी को फायदा पहुंचाएंगी. 

लेकिन इसका असर दूसरे राज्यों में भी देखने को मिलेगा. खासकर उत्तर प्रदेश में जहां बीजेपी सभी 80 सीटें जीतने का प्लान कर रही है और अखिलेश यादव जातीय जनगणना के पक्ष में हैं. 

बिहार में जेडीयू-आरजेडी का गठबंधन वैसे भी वोट प्रतिशत के हिसाब से बीजेपी पर भारी है लेकिन जातीय जनगणना के बाद दोनों ही नेता लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए दूसरे राज्यों में भी मुश्किल पैदा कर सकते हैं. 

वहीं बीजेपी बिहार में साल 2025 में अपने दम पर सरकार बनाने की कोशिश कर रही है और पार्टी की पूरी कोशिश है कि यूपी की तरह इस राज्य में भी हिंदुत्व के साथ-साथ जातियों का ऐसा समीकरण तैयार किया जाए जो नीतीश-तेजस्वी पर भारी पड़े. लेकिन अगर जातीय जनगणना के आंकड़ों का कार्ड नीतीश ने चला तो बीजेपी के लिए यहां बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है.

आखिरी बार कब हुई थी जातीय जनगणना
भारत में 1931 में अंग्रेज सरकार ने जातीय जनगणना कराई थी. उसी को आधार पर मानकर अलग-अलग जातीयों की जनसंख्या पर दावे किए जाते हैं. इसके बाद 1941 में भी जातीय जनगणना कराई गई थी लेकिन उस समय की अंग्रेज सरकार ने इसके आंकड़े जारी नहीं किए थे. 

इसके बाद 1947 में देश में आजाद हो गया और 1951 में फिर जनगणना हुई लेकिन इस बार सिर्फ एससी और एसटी जातियों की गणना की गई. इसके बाद देश में आरक्षण की मांग उठने लगी.

सवाल उठा कि आरक्षण की इस मांग को लेकर क्या नियम-कानून होंगे. 1953 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरला नेहरू ने काका कालेलकर आयोग का गठन किया. जिसने 1931 की जनगणना को आधार बनाया. लेकिन उसमें बहस इस बात पर थी कि आरक्षण का आधार सामाजिक रखा जाए या आर्थिक. लेकिन आखिरी तक कोई फैसला नही हो पाया.

इसके बाद साल 1978 में जनता पार्टी की सरकार बनी और आरक्षण को लेकर बीपी मंडल आयोग बनाया गया. इस आयोग ने भी 1931 की जनगणना को आधार बनाया और अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली. इसमें कहा गया कि देश की कुल आबादी में 52 फीसदी पिछड़ वर्ग (ओबीसी) से आते हैं.  साथ ही 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की गई. लेकिन 1980 में जनता पार्टी की सरकार गिर चुकी थी.

9 साल साल तक मंडल आयोग की रिपोर्ट फाइलों में बंद रही. इसके बाद केंद्र में वीपी सिंह की सरकार बनी. देश में राम मंदिर आंदोलन भी शुरू हो रहा था. वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें मानकर 27 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया. देश में इसके खिलाफ बवाल शुरू हो गया. 

मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. इस पर सुनवाई हुई और 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को सही ठहराया लेकिन आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर दी गई. इस फैसले को इंदिरा साहनी फैसला कहा जाता है. इंदिरा साहनी ने वीपी सिंह के आरक्षण के फैसले की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. 

सुप्रीम कोर्ट की ओर से 50 फीसदी सीमा तय करने की वजह से ही कई राज्य सरकारों को हाल ही में नई जातियों को आरक्षण देने में दिक्कत में आई है. राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा और गुजरात में पाटीदारों को आरक्षण के मामले में ये फैसला आड़े आ जाता है.

जातीय जनगणना के पक्ष में कौन सी बातें है

  • सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए इन आंकड़ों का सामने आना जरूरी है.
  • डाटा न होने की वजह से ओबीसी की आबादी और इसके अंदर शामिल दूसरे समूहों का कोई आंकड़ा नहीं है
  • मंडल आयोग के मुताबिक ओबीसी की आबादी 52 फीसदी के आसपास है. लेकिन कुछ अन्य का दावा है कि ये 65 फीसदी के आसपास है.
  • जातीय जनगणना के आंकड़ों से पता चल सकेगा कि ओबीसी जातियों की आर्थिक, सामाजिक स्थिति, महिला और पुरुषों की साक्षरता दर का आंकड़ा मिल सकेगा.

अहम बातें जिन पर नहीं दिया गया ध्यान

  • ओबीसी आरक्षण के लिए 27 फीसदी दायरे की जांच के लिए गठित रोहिणी आयोग के मुताबिक इस समय देश में 2600 के आसपास ओबीसी जातियां हैं.
  • ओबीसी के भीतर ही कुछ बहुत ही पिछड़ी जातियां जो समाजिक हैसियत के हिसाब से एकदम हाशिये पर आज भी हैं.

जातीय जनगणना के खिलाफ कौन सी बातें हैं

  • इसके आंकड़े जारी होती है सामाज में जातीय विद्वेष बढ़ सकता है. इसके राजनीतिक और सामाजिक तौर पर बुरे प्रभाव सामने आ सकते हैं. यही वजह है कि साल 2011 में हुई सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना के बड़ा हिस्सा जारी नहीं किया गया है.

यूपी का जातिगत समीकरण

उत्तर प्रदेश में ओबीसी की 79 जातियां हैं. यादव सबसे ज्यादा और दूसरे नंबर पर कुर्मी हैं. सीएसडीएस के मुताबिक ओबीसी जातियों में यादवों की आबादी कुल 20 फीसदी है जबकि राज्य की आबादी में यादवों की हिस्सेदारी 11 फीसदी है.

यूपी में गैर-यादव ओबीसी जातियों में कुर्मी-पटेल 7 प्रतिशत, मौर्या-शाक्य-सैनी-कुशवाहा 6 प्रतिशत, लोध 4 प्रतिशत, गड़रिया-पाल 3 प्रतिशत, निषाद-मल्लाह-बिंद-कश्यप-केवट 4 प्रतिशत, तेली-शाहू-जायसवाल 4, जाट 3 प्रतिशत, कुम्हार/प्रजापति-चौहान 3 प्रतिशत, कहार-नाई- चौरसिया 3 प्रतिशत, राजभर और गुर्जर 2-2 प्रतिशत हैं. 

यूपी में 22 फीसदी दलित वोट हैं.जो जाटव और गैर-जाटव में बंटे हैं. कुल आबादी का 12 फीसदी जाटव हैं. 8 फीसदी गैर जाटव दलित 50-60 जातियां और उप-जातियों में बटें हैं. गैर-जाटव दलित में बाल्मीकि, खटीक, पासी, धोबी, कोरी सहित तमाम जातियां शामिल हैं.

बिहार का जातिगत समीकरण

बिहार में ओबीसी और ईबीसी मिलाकर कुल 50 प्रतिशत से ज्यादा आबादी है. सबसे संख्या यादव बिरादरी की है. कई आंकड़ों के मुताबिक बिहार में यादवों की संख्या 14 फीसदी के आसपास है. कुर्मियों की संख्या 4 से 5 प्रतिशत के आसपास है. कुशवाहा 8 से 9 प्रतिशत के आसपास हैं. 

बिहार में सर्वण यानी अगड़े कुल आबादी का 15 प्रतिशत हैं. भूमिहार 6, ब्राह्मण 5, राजपूत 3 और कायस्थ की 1 प्रतिशत है.

About the author मानस मिश्र

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