मुलायम सिंह यादव के निधन से सपा अध्यक्ष अखिलेश के लिए बड़ी चुनौती बन गए हैं 3 फैक्टर
समाजवादी पार्टी के तीसरे बार अध्यक्ष बने अखिलेश के सामने मैनपुरी उपचुनाव के लिए प्रत्याशी तय करने से लेकर, राष्ट्रीय कार्यकारिणी के गठन, मुसलमानों के बीच पैठ और यादवों के बीच विश्वास बनाए रखना है.
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समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद से सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के सामने एक साथ कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं. परिवार के लोगों में बढ़ रही राजनीतिक महत्वाकांक्षा के बीच सामजस्य बैठाना बड़ी चुनौती है. दूसरी, मुसलमानों के बीच सपा की पैठ बनाए रखना है, तीसरी चुनौती यादवों के साथ-साथ दूसरी ओबीसी जातियों तक पहुंचना है.
लेकिन सभी मोर्चों पर अखिलेश यादव की राह आसान नहीं है. मुलायम सिंह यादव ने अपने पूरे राजनीतिक करियर में अपनी छवि मुसलमानों के बीच सबसे बड़े नेता की बनाए रखी. मुलायम सिंह ने उनके पक्ष में फैसले भी बिना लाग-लपेट के लिए. यूपी की राजनीति में कई मुस्लिम नेता सांसद और विधायक हैं लेकिन मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव को लेकर जो विश्वास था वो किसी भी हासिल नहीं है. ये मुस्लिम नेता सिर्फ अपने चुनावी क्षेत्रों तक ही सीमित रह गए हैं.
समाजवादी पार्टी का कोर वोट रहे मुसलमानों के बीच एक चेहरे की कमी हो गई. इतना ही नहीं जब सीतापुर की जेल में आजम खान बंद थे तो अखिलेश यादव पर मुसलमानों की अनदेखी का भी आरोप लगता रहा है. आजम खान के कई समर्थकों ने इस पर बयानबाजी भी शुरू कर दी थी.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छी-खासी पैठ रखने वाले इमरान मसूद ने भी समाजवादी पार्टी को छोड़कर बीएसपी का हाथ थाम लिया है. दूसरी ओर बीजेपी पसमांदा मुसलामानों के बीच जमकर पसीना बहा रही है. समाजवादी पार्टी में इस समय सबसे बड़े मुस्लिम नेता आजम खान ही हैं. लेकिन अखिलेश के साथ उनके संबंध कुछ खास ठीक नहीं लगते हैं.
आजम खान खुद गिरती सेहत और परेशानियों से घिरे हैं. हेट स्पीच मामले में वो विधानसभा सदस्यता गंवा चुके हैं और वो राजनीतिक तौर पर भी उतना सक्रिय नहीं है जो मुलायम सिंह यादव के समय थे.
मुसलमानों के बीच समाजवादी पार्टी लगातार अपनी जमीन खोती जा रही है. आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में बीजेपी ने जीत दर्ज की थी. लेकिन उसकी जीत में सबसे बड़ी भूमिका मुसलमानों के वोटों की थी. 2 लाख से ज्यादा मुसलमानों के वोट बीएसपी के खाते में गिरे जिन्होंने सपा की हार जमीन तैयार कर दी. आजमगढ़ समाजवादी पार्टी का किला था.
दूसरा रामपुर लोकसभा उपचुनाव में भी समाजवादी पार्टी की हार बड़ा झटका था. आजम खान का गढ़ कही जाने वाली इस सीट से भी हारना पार्टी के लिए अच्छे संकेत नहीं है. बीजेपी नेताओं का तो दावा है कि पार्टी को पसमांदा समाज के बंजारा मुसलमानों का एकमुश्त वोट मिला है जिसकी वजह से ये जीत मिली है.
यूपी में बीजेपी यादवों के बीच भी पैठ बनाने की कोशिश कर रही है. कभी मुलायम सिंह यादव के सबसे निकट रहे पूर्व सांसद हरनाथ यादव की पुण्यतिथि में पीएम मोदी को बुलाया गया था. बताया जा रहा है कि हरनाथ के बेटे और पूर्व सांसद सुखराम यादव बीजेपी के संपर्क में हैं और वो किसी भी समय पार्टी में शामिल हो सकते हैं. यादवों को छोड़कर बीजेपी ने पहले ही ओबीसी का एक मजबूत मोर्चा तैयार कर रखा है जिसके दम पर पार्टी लगातार चुनाव जीत रही है. अब बीजेपी रणनीतिकारों की नजर यादव और मुसलमान वोटों में सेंध लगाने की है.
तीसरी बार समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष चुने गए अखिलेश यादव की चुनौती पार्टी की नई राष्ट्रीय कार्यकारिणी भी बनाना भी है. नई कार्यकारिणी के गठन में जातियों के समीकरण, पुराने और नए नेताओं के बीच चयन, परिवार के सदस्यों का भी ध्यान रखना होगा. कई पुराने नेता मुलायम सिंह यादव के सम्मान की वजह से पार्टी में हैं. अखिलेश यादव को इन सभी का भी ध्यान रखना है.
मैनपुरी का चुनाव है अहम
मुलायम सिंह यादव की सीट मैनपुरी से किसको टिकट मिलता है इस पर भी सबकी नजर है. मुलायम सिंह यादव इस सीट से 3 बार सांसद चुने गए हैं. इस सीट पर सबसे ज्यादा यादव मतदाता हैं. इस सीट के लिए अखिलेश यादव जिसको भी चेहरे चुनेंगे पार्टी में चल रहे ऊहापोह को लेकर अहम साबित होगा.
परिवार को साधना सबसे बड़ी चुनौती
मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनीतिक करियर में पार्टी के साथ-साथ परिवार के लोगों को भी राजनीति में आगे बढ़ाया है. जब तक पार्टी की कमान मुलायम सिंह यादव के हाथों में थी उनके लिए परिवार में एका बना रहा. लेकिन साल 2012 में अखिलेश यादव के सीएम बनने के बाद से परिवार में मतभेद उभरना शुरू हो गए.
मुलायम के समय सबसे ताकतवर रहे शिवपाल यादव साल 2018 में अलग पार्टी बना ली. अखिलेश से उनका झगड़ा मंच तक दिखा. हालांकि शिवपाल के तेवर अब नरम हो गए हैं. मुलायम सिंह यादव के भतीजे के बेटे तेज प्रताप यादव पूर्व सांसद रह चुके हैं. इसके परिवार के कई और लोग सांसद, विधायक और निकायों में प्रमुख रह चुके हैं.
लेकिन मुलायम सिंह यादव हमेशा पारिवारिक झगड़े को शांत करने की कोशिश में लगे रहे लेकिन उनके न रहने पर अब अखिलेश यादव के लिए ये मोर्चा थामना बड़ी चुनौती हो सकती है.
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