कांग्रेस के नए अध्यक्ष के पद के लिए मल्लिकार्जुन खरगे को चुन लिया गया है. उनको 7 हजार से ज्यादा वोट मिले हैं जबकि उनके प्रतिद्वंदी शशि थरूर को 1 हजार वोट मिले हैं. अध्यक्ष की कुर्सी संभालने के बाद खरगे के लिए सबसे बड़ी चुनौती राजस्थान के मुख्यमंत्री और उन्हीं के टक्कर के कांग्रेसी नेता अशोक गहलोत हैं.
कांग्रेस हाईकमान को तय करना है कि बड़ी संख्या में विधायकों के दम पर 'जादू' दिखा रहे अशोक गहलोत राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर रहेंगे या उनकी जगह सचिन पायलट को लाया जाए.
कांग्रेस अध्यक्ष पद की जगह राजस्थान के मुख्यमंत्री की कुर्सी चुनने वाले अशोक गहलोत ने कई बार इशारों-इशारों में जता दिया है कि वो किसी भी कीमत पर समझौता करने को तैयार नहीं है.
फिलहाल इस मुद्दे को कांग्रेस ने पार्टी अध्यक्ष पद का चुनाव होने तक टाल दिया था. लेकिन अब नए अध्यक्ष खरगे को इस पर कोई फैसला लेना ही पड़ सकता है क्योंकि राज्य में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.
'जनादेश' और 'वचन' के बीच करना है फैसला
राजस्थान कांग्रेस में चल रही रार के बीच रास्ता निकालना खरगे के लिए आसान नहीं है. राजस्थान की राजनीति में अशोक गहलोत बड़ा चेहरा हैं. जिस राज्य में हमेशा ऊंची जातियों के नेता ही राजनीति का केंद्र रहे हों वहां ओबीसी के तहत माली समुदाय से आने वाले अशोक गहलोत ने अपनी जगह बनाई है और राज्य में तीन बार मुख्मंत्री बन चुके हैं.
हालांकि खरगे जो खुद दलित हैं लेकिन पार्टी के लिए किसी ओबीसी नेता को इस समय दरकिनार करना आसान नहीं है. वैसे भी अशोक गहलोत के पास विधायकों का समर्थन है. कुछ ही विधायक सचिन पायलट के साथ दिखते हैं.
लेकिन सचिन पायलट की उम्मीद को सिरे से खारिज कर देना भी आसान नहीं है. गुर्जर बिरादरी से आने वाले सचिन पायलट साल 2018 में राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभाल रहे थे. उन्होंने जमीन पर काफी मेहनत की और गुर्जरों का अच्छा-खासा वोट कांग्रेस के खाते में गया था.
माना जाता है कि टीम राहुल के इस युवा नेता को गांधी परिवार की ओर से मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया गया था और कांग्रेस कार्यकर्ता भी उनको सीएम पद के चेहरे की ही तौर पर देख रहे थे. ऐन वक्त में अशोक गहलोत को सीएम बना दिया गया. ऐसा ही फैसला मध्य प्रदेश में भी हुआ जहां ज्योतिरादित्य सिंधिया की जगह कमलनाथ को सीएम बना दिया गया था. मध्य प्रदेश में तो सिंधिया कांग्रेस की सरकार को गिराकर बीजेपी में शामिल हो गए और केंद्र में मंत्री बन गए.
लेकिन सचिन पायलट के साथ उतने विधायक नहीं आ पाए कि वो सरकार गिरा पाएं. उसकी एक वजह बीएसपी के सभी 6 विधायकों का टूटकर कांग्रेस में शामिल होना भी रहा है.
अशोक गहलोत ने सचिन पायलट के हर दांव का बाखूबी जवाब दिया. इतना ही नहीं दोनों नेताओं के बीच तीखी बयानबाजी भी देखी गई. लेकिन सचिन पायलट को गहलोत की कुर्सी नहीं हिला पाए.
प्रियंका गांधी के समझाने बुझाने के बाद सचिन पायलट दो साल से शांत हैं. लेकिन अब वो गांधी परिवार की कोशिश है कि विधानसभा चुनाव से पहले अशोक गहलोत को हटाकर सचिन का रास्ता साफ कर दिया जाए. इसके लिए अशोक गहलोत के कांग्रेस अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी देने का प्लान बनाया गया.
लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी अशोक गहलोत इस बात को बाखूबी समझ रहे थे. उनको पता था कि मुख्यमंत्री की कुर्सी न रहने पर राजस्थान की राजनीति में दखल खत्म हो जाएगा. और कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर बैठने के बाद भी बिना गांधी परिवार की इच्छा से वो कोई काम कर नहीं पाएंगे.
सामने हैं विधानसभा चुनाव
साल 2023 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव होने हैं. इन तीनों ही राज्यों में कांग्रेस की सीधी टक्कर बीजेपी से होनी है. राजस्थान में जनता हर चुनाव में सरकार बदल देती है. लोकसभा चुनाव 2024 में है. इन चुनावों का मनोवैज्ञानिक असर लोकसभा चुनाव में पड़ता है. हालांकि 2018 में कांग्रेस ने तीनों राज्यों में सरकार बनाने के बाद भी लोकसभा चुनाव 2019 में बुरी तरह से हार गई थी. फिर भी बीजेपी हो या कांग्रेस तीनों इन विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए जी-जान लड़ा देंगे.
क्या सोचता है पायलट खेमा
बात करें राजस्थान की तो सचिन पायलट खेमे को लगता है कि एक बार अगर दिल्ली से अशोक गहलोत को हटाने का फैसला हो जाता है तो विधायक बगावत नहीं करेंगे. लेकिन एक लाइन का फरमान सुनाकर मुख्यमंत्री बदलने की मंशा को अशोक गहलोत बगावत में तब्दील में कर चुके हैं और ये सब उस समय हुआ जब सोनिया गांधी ने मल्लिकाजुर्न खरगे को जयपुर में मामले को सुलझाने के लिए भेजा था.
गहलोत ने भी जता दिए हैं इरादे
अशोक गहलोत भले ही सोनिया गांधी से मिलकर खुद को पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता जताने की कोशिश कर रहे हों लेकिन उनके तेवर बिलकुल वैसे ही हैं. हाल ही में उन्होंने एक बयान देकर साफ कर दिया है. उन्होंने कहा कि अनुभव का कोई विकल्प नहीं हो सकता है युवाओं को धैर्य बनाए रखना चाहिए और अपनी बारी का इंतजार करें. उनके बयान से साफ जाहिर हो रहा है कि वो इतनी आसानी से हार मानने वाले नही हैं.
गांधी परिवार नाराज, लेकिन गहलोत भी माहिर
लेकिन अशोक गहलोत की जो छवि गांधी परिवार के प्रति वफादार की थी वैसे अब नहीं रही है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव के अंतिम संस्कार में सोनिया गांधी ने कमलनाथ और भूपेश बघेल को कांग्रेस प्रतिनिधि के तौर पर शामिल होने के लिए भेजा था. लेकिन सबको पता था कि अशोक गहलोत भी सैफई जा रहे हैं लेकिन उनका नाम तक नहीं लिया गया. साफ जाहिर है जयपुर में हुई बगावत के बाद से सोनिया गांधी अशोक गहलोत नाराज हैं.
हालांकि इस बीच अशोक गहलोत ने गांधी परिवार को खुश करने के लिए कई कदम उठाए हैं. गहलोत ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के दौरान मल्लिकार्जुन खरगे के पक्ष में बयान दिए. लेकिन ऐसा नहीं था कि उन्होंने शशि थरूर की कई बुराई की हो. इसके साथ ही उन्होंने खरगे के घर जाकर बधाई दी है.
फैसला करना क्यों नहीं है आसान
200 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 100 सीटें चाहिए. राज्य में ओबीसी वोटरों की संख्या बहुत बड़ी है. 50 विधायक सिर्फ ओबीसी से कैटगरी से आते हैं. जिसमें 15 विधायक तो सिर्फ जोधपुर मंडल के आते हैं. कांग्रेस के पक्ष में ओबीसी वोटरों के झुकाव की बड़ी वजह सीएम अशोक गहलोत भी हैं. लेकिन हिंदी पट्टी वाले राज्यों में बीजेपी जिस तरह से ओबीसी को लेकर रणनीति बना रही है वो उस समय किसी ओबीसी नेता को सीएम पद से हटाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं है.
दूसरी ओर सचिन पायलट ने गुर्जर समुदाय से आते हैं. साल 2018 में कांग्रेस की ओर बड़ी संख्या में शिफ्ट में हुए हैं. इसके पीछे बड़ी वजह सचिन पायलट थे. गुर्जर बहुल आबादी वाले जिले करौली, सवाई माधोपुर, जयपुर, टोंक, भरतपुर, दौसा, कोटा, धौलपुर, भीलवाड़ा, बूंदी, झुंझनू, अजमेर की सीटों आती हैं.साल 2018 के चुनाव में बीजेपी को हराने में गुर्जरों का बड़ा हाथ रहा है. बीजेपी ने 9 गुर्जर प्रत्याशियों को टिकट दिया था जिनमें से किसी को भी जीत नसीब नहीं हुई थी. वहीं कांग्रेस 12 गुर्जर प्रत्याशी उतारे थे जिनमें 7 विधानसभा पहुंचे. इसके साथ ही कई सीटों पर गुर्जर वोटों की वजह से कांग्रेस को बढ़त मिली.