5 अक्टूबर को तेलंगाना में सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) ने अपना नाम बदलकर बीआरएस (भारत राष्ट्र समिति) कर दिया है. टीआरएस ने यह कदम राष्ट्रीय पार्टी बनने के इरादे से किया है. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने अपनी पार्टी की महत्वपूर्ण आम सभा की बैठक में यह फैसला लिया. लोकसभा चुनाव 2024 से पहले अब राजनीतिक पंडितों की निगाहें दक्षिण भारत में इस पार्टी पर टिक गई हैं.  


सवाल ये है कि एक राज्य तक सिमटी तेलंगाना राष्ट्र समिति, राष्ट्रीय राजनीति में वो स्थान कैसे प्राप्त करेगी जो बीजेपी और कांग्रेस को प्राप्त है. या फिर केसीआर का यह कदम राष्ट्रीय नेता बनने की उनकी महत्वाकांक्षा है? क्या 2001 में एक अलग तेलंगाना राज्य बनाने के एकल-बिंदु एजेंडे के साथ गठित टीआरएस राष्ट्रीय राजनीति में मजबूत उपस्थिति दर्ज करा पाएगी और क्या केसीआर के नेतृत्व को अन्य राज्यों में स्वीकार किया जाएगा, खासकर उत्तर भारत में?  


तेलंगाना में पार्टी का नाम बदलने की घोषणा से उत्साहित कार्यकर्ताओं ने अपनी पार्टी के नेता के. चंद्रशेखर राव को 'राष्ट्रीय नेता' करार दे दिया. वहीं, 'टीआरएस और केसीआर जिंदाबाद' के नारे लगाए. कार्यकर्ताओं ने 'देश के नेता केसीआर' के नारे लगाए और पोस्टर पर भी इसी तरह के नारे लिखे नजर आए. 


विपक्ष के शून्य को भरने की कोशिश?
इसके साथ ही विश्लेषक केसीआर के इस विचार को राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करके राज्य में पार्टी के आधार को मजबूत करने की कवायद के तौर पर भी देख रहे हैं, जहां बीजेपी 2023 के विधानसभा चुनावों से पहले राजनीतिक रूप से खासी सक्रिय दिख रही है.




हालांकि, केसीआर ऐसे राजनेता नहीं हैं जो बिना किसी ठोस वजह के काम करते हैं. राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करने की उनकी योजना केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के खिलाफ उभरे शून्य को भरने की उनकी महत्वाकांक्षा से उपजी है.


दक्षिण भारतीय राज्यों में विस्तार
भारत राष्ट्र समिति का पूरा जोर दक्षिण भारत में वोट हासिल करना होगा. खासकर दक्षिण के चार राज्यों आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु में पार्टी अपना विस्तार कर सकती है. उत्तर भारत में अभी टीआरएस को इंतजार करना पड़ सकता है. वर्तमान में बीआरएस की राजनीति बीजेपी के खिलाफ है, इसको देखते हुए वो कर्नाटक में बीजेपी को सत्ता से बाहर करना चाहेगी. लेकिन अभी पार्टी तेलंगाना के बारह किस तरह से चुनाव लड़ेगी इसपर स्थिति साफ नहीं हुई है. 


कर्नाटक को छोड़ दें तो भारतीय जनता पार्टी अभी दक्षिण में अपनी जमीन तलाश रही है, वहीं दूसरी तरफ दक्षिण में कांग्रेस की स्थिति राज्य विधानसभाओं से लेकर लोकसभा की सीटों तक में मजबूत है. इसके अलावा केसीआर जिस संयुक्त मोर्चे की बात करते हैं, अगर उसके मुताबिक कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो यह बीजेपी की दक्षिण में विस्तारवादी अभियान को नुकसान पहुंचा सकता है. क्योंकि कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत जोड़ो यात्रा करके बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने में जुटी है. ऐसे में अगर केसीआर की पार्टी कांग्रेस के साथ जाती है तो इसका फायदा कहीं न कहीं बीआएस को भी मिल सकता है. 




जद (एस) से बढ़ती नजदीकियां
बता दें कि हाल के दिनों में, केसीआर ने जद (एस) प्रमुख एचडी देवेगौड़ा, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के शरद पवार, तृणमूल कांग्रेस पार्टी (टीएमसी) की ममता बनर्जी, आप के अरविंद केजरीवाल और अन्य सहित कई क्षेत्रीय पार्टी नेताओं से मुलाकात की है, और वह एक 'गैर-बीजेपी, गैर-कांग्रेसी' गठबंधन के पक्ष में हैं. हालांकि केसीआर की इन दिनों जद (एस) नेता और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी से नजदीकियां बढ़ रही हैं. पार्टी का नाम बदलते समय कुमारस्वामी केसीआर के साथ वहां मौजूद थे. कुमारस्वामी के साथ बढ़ती नजदीकियों का फायदा बीआएस को कर्नाटक में मिल सकता है.


कांग्रेस-बीजेपी में से किसको नुकसान?
वहीं, भारत राष्ट्र समिति तेलंगाना से बाहर पूरे दमखम के साथ में अगर एकेले चुनाव लड़ती है तो यह कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचा सकता है, जो बीजोपी के लिए फायदेमंद साबित होगा. क्योंकि जिस पार्टी के खिलाफ कांग्रेस लड़ रही है बीआरएस की भी लड़ाई उसी के साथ है. ऐसे में बीआरएस के एकेले चुनाव लड़ने पर वोटों का बंटवारा हो जाएगा और बीजेपी उसका फायदा उठा सकती है. 


इसके अलावा कांग्रेस और बीआरएस के एक साथ चुनाव लड़ने के बीच अड़चन यह भी आ सकती है कि बीआरएस का मूल राज्य तेलंगाना है और वहां उसकी मुख्य लड़ाई कांग्रेस से है. अगर पार्टी अन्य राज्यों में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है तो यह उसके लिए खुद अपने पैर में कुल्हाड़ी मारने जैसा कदम हो सकता है. क्योंकि दूसरे राज्यों में कांग्रेस के साथ जाने पर बीजेपी तेलंगाना में उसके खिलाफ माहौल बना सकती है.   
  
तेलंगाना में बीआरएस का जनाधार 
तेलंगाना में पिछले विधानसभा चुनाव 2018 में हुए थे, जिसमें तेलंगाना राष्ट्र समिति को 119 सदस्यीय विधानसभा में सबसे ज्यादा 46.9 वोट प्रतिशत के साथ 88 सीटें हासिल हुई थीं. वहीं कांग्रेस को 28.4 वोट प्रतिशत के साथ 19 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं बीजेपी को भले ही एक सीट पर संतुष्ट करना पड़ा था, लेकिन उसका वोट प्रतिशत 7.1 था. इसके साथ ही राज्य में टीडीपी और एआईएमआईएम के वोटर्स की भी अच्छी-खासी तादात है.  




वहीं, पूरे देश में बीजेपी की लहर होने के बावजूद तेलंगाना राष्ट्र समिति को 2019 के लोकसभा चुनाव में 17 में से 12 सीटों पर जीत मिली थी, जिसमें पार्टी का वोट प्रतिशत सबसे ज्यादा 41.29 था. बीजेपी की पूरे देश में लहर होने के बावजूद उसे राज्य में 4 सीटों और 19.45 वोट प्रतिशत के साथ संतोष करना पड़ा था. वहीं, कांग्रेस को एक सीट और 29.48 फीसदी वोट मिले थे. यानी कि फिलहाल तेलंगाना में केसीआर का जनाधार बना हुआ है, मगर उनको राज्य को बाहर बीजेपी को टक्कर देने के लिए ज्यादा मेहनत करनी होगी.


वोट बैंक के पीछे कल्याणकारी योजनाएं?
तेलंगाना में बीआरएस के जनाधार के पीछे राज्य के 68 वर्षीय मुख्यमंत्री केसीआर की कई कल्याणकारी योजनाओं को भी माना जाता है. जिससे उन्हें महिलाओं, किसानों और हाशिए के समूहों का समर्थन मिलता है. केसीआर सरकार द्वारा चलाई जा रही जन कल्याणकारी में 'रायथु बंधु', 'दलित बंधु', 'केसीआर किट' और 'आसरा' पेंशन शामिल हैं.


'रायथु बंधु' के तहत हर किसान की प्रारंभिक निवेश जरूरतों का ख्याल रखा जाता है जबकि 'दलित बंधु' के जरिए प्रत्येक अनुसूचित जाति परिवार को एक उपयुक्त आय-सृजन व्यवसाय स्थापित करने के लिए 10 लाख रुपए की एकमुश्त पूंजी सहायता प्रदान की जाती है. इसी तरह, 'केसीआर किट' के तहत गर्भवती महिलाओं को अपनी और नवजात शिशु की देखभाल के लिए 12,000 रुपए की सहायता राशि दी जाती है जबकि सभी गरीबों को 'आसरा' पेंशन दी जा रही है.


वहीं, अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को हासिल करने के लिए केसीआर दलितों, आदिवासियों और किसानों के वोटों पर भी निर्भर हैं. उन्होंने अपने राज्य में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण को 6 से बढ़ाकर 10 प्रतिशत कर दिया है.