गणेशोत्सव महाराष्ट्र का मुख्य त्योहार है. लेकिन अब इसकी धूम समूचे भारत में है. हर साल महाराष्ट्र के बाहर दूसरे राज्यों में भी गणेश की मूर्तियां स्थापित की जाने लगी हैं. इस महोत्सव के बारे में एक बात जानकार हैरानी होगी कि ये शायद पहला ऐसा धार्मिक त्योहार है जिसका महत्व पौराणिक से कहीं ज्यादा ऐतिहासिक है. गणेश चतुर्थी तो वैसे ज्योतिष गणनाओं के आधार पर तय की जाती है. लेकिन इस महोत्सव की जड़े भारत के इतिहास से जुड़ी हैं.
इतिहास में खंगालने पर वैसे तो ऐसा कोई दस्तावेज नहीं मिला जिसमें इस महोत्सव के शुरुआत की जानकारी मिलती हो. लेकिन कहा ये जाता है कि सन 1630–1680 में शिवाजी ने इस त्योहार को सबसे पहले पुणे में मनाना शुरू किया था. 18वीं सदी में पेशवा भी गणेशभक्त थे तो उन्होंने भी सार्वजनिक रूप से भाद्रपद के महीने में गणेशोत्सव मनाना शुरू किया. मगर ब्रिटिश राज जब आया तब गणेशोत्सव के लिए जो भी पैसा मिलता था वो बंद हो गया. इसकी वजह से गणेशोत्सव कुछ समय के लिए रोकना पड़ा. इसके बाद स्वतंत्रता सेनानी बालगंगाधर तिलक ने इसको महोत्सव को फिर से शुरू करने का फैसला किया.
दरअसल 1892 में अंग्रेज एक नियम के तहत भारतीयों को एक जगह इकट्ठा नहीं होने देते थे. तिलक ने सोचा कि इस त्योहार के जरिए भारतीयों को एक जगह इकट्ठा किया जा सकता है और इसके जरिए उनमें संस्कृति के प्रति सम्मान और राष्ट्रवाद की भावना जगाई जा सकती है.
स्टडी ऑफ एन एशियन गॉड के लेखकर रॉबर्ट ब्राउन ने लिखा कि बाल गंगाधर तिलक ने बाद में अपने अखबार केसरी में गणेश जी को ब्राह्मणों और गैर-ब्राह्मणों में खाई पाटने वाला बताया. तिलक की इस सोच के पीछे समाज के सभी वर्गों को अंग्रेजों के खिलाफ इकट्ठा करने की नीति थी.
लालबाग के राजा का रहता है हर साल इंतजार
मुंबई में 'लालबाग के राजा' सबसे मशहूर गणेश पंडाल है. इस पंडाल में पिछली बार भगवान गणेश को भगवान विष्णु के अवतार का रूप दिया गया था. पिछले साल कोरोना के चलते लालबाग के राजा के सिर्फ ऑनलाइन दर्शन ही हो पाए थे। मुंबई में लालबाग के राजा के इस पंडाल में सबसे ज्यादा श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं. इस बार महाराष्ट्र सरकार आगामी त्योहारों को देखते हुए पहले ही सारे कोरोना प्रतिबंध हटाने का फैसला कर चुकी है.
क्यों इतनी है प्रसिद्धि
लालबाग में साल 1934 से गणेश पंडाल लगाया जा रहा है. परेल में लालबाग, मुंबई के व्यापारिक गतिविधियों वाली जगह पर है. यहां कुछ दशकों पहले तक कपड़ा मीलों और सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल ही हुआ करते थे. साल 1900 के दशक की शुरुआत में बड़े और हलचल भरे बाजारों के आने से पहले इस इलाके में लगभग 130 कपास मीलें थीं और इसे गिरनगांव या 39 मीलों का गांव कहा जाता था. 1932 के आसपास, औद्योगीकरण हुआ और मशीनें आ गई. इससे मजदूरों की नौकरी चली गई और साथ में छोटे-मोटे दुकानदारों को नुकसान हुआ. यहां रहने वाले विक्रेताओं और मछुआरा समुदाय की रोज़ीरोटी भी छिन गई.
फिर याद आए गणेश जी
कहते हैं कि मुसीबत में हर किसी को भगवान् याद आते हैं. तो सब लोगों को अपने गणेश की याद आई. गणेश जी नई शुरुआत के भी भगवान हैं. बस इसी धारणा के चलते लोगों ने अपनी पूरी आस्था उन्हीं के ऊपर रख थी. और अब इसे इत्तेफ़ाक़ कहें या सौभाग्य लोगों को जैसे-तैसे एक मैदान दे दिया गया जहां वो कामकर लें. बस वही मैदान आज का लालबाग़ बना गया. 1934 में सब लोगों ने मैदान के एक हिस्से को हर साल के लिए सार्वजनिक गणेश मंडल के लिए रख दिया.
पहले साल मछुआरों की तरह पहनाए गए कपड़े
तय जगह पर पंडाल लगाया गया और वहीं पर गणेश जी की मूर्ति स्थापित की गई. जो सबसे पहली मूर्ति थी उसमें गणेश जी को मछुआरों की तरह कपड़े पहनाए गए थे. क्योंकि समुदाय में कई मछुआरे थे तो उन्होंने अपने भगवान को अपने रंग में रंग दिया. हालांकि पिछले कुछ सालों में गणेश जी के कई अवतारों में वहां स्थापित किया गया. फिर गणेश जी को राजा की भी उपाधि दे दी गई.
1935 से ही एक ही परिवार बनाता है मूर्ति
1935 से एक ही परिवार लालबाग़ राजा यानी गणेश जी मूर्ति बना रहा है. साल 1935 में पहली बार मधूसूदन डी कांबली ने मूर्ति बनाई थी. सबसे पहली बार गणेश जी मूर्ति बनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. तब से उन्ही का परिवार ये मूर्ति बनता आ रहा है.
कई फिल्मी सितारों की भी मूर्ति बनी
यहां कई फिल्मी सितारों की भी मूर्ति बनी है. शिल्पा शेट्टी गणेश मूर्ति भी यहीं पर बनती है. और उसका पेटेंट भी कराया गया है. मुंबई में लालबाग के राजा की इतनी साख है कि लोग न केवल देश बल्कि विदेश से भी लालबाग के दरबार में हाजिरी लगाने जाते हैं.