(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
1857 का विद्रोह, 163 साल पहले भी 11 मई को था सोमवार का दिन और रमजान का महीना, जानिए- ग़ालिब की रुदाद
आज से 163 साल पहले जब 11 मई को 1857 के सिपाही विद्रोह की तारीख दर्ज हुई थी तो भी दिन सोमवार का ही था और आज भी 11 मई सोमवार का ही दिन है. इसके साथ ही दूसरा संयोग यह है कि 1857 के सिपाही विद्रोह के वक्त भी रमजान का मुकद्दस महीना था और इस बार भी रमजान का ही महीना चल रहा है.
इन दिनों देश में एक अजब किस्म की खामोशी है. सड़के बेजुबान मालूम पड़ती है. ऐसा लगता है जैसे शहरों ने अध-मरी रौशनी का कफ्न ओढ़ लिया हो. कांपती-थरथराती शब-ए-गम खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही. पूरा मुल्क गूंगी और सहमी हुई बस्ती की तरह दिखाई देता है जहां किसी सूखे हुए पेड़ से पपीहे की आवाज भी सुनाई नहीं देती. डर, दहशत परेशानी का सबब है. न किसी के पांव की आहट और न सांसों की आवाज, मानों शहर की रौनक कहीं गुम सी हो गई और चारो दिशाएं बस मुर्दा शांति से भर गई हो.
आज से ठीक 163 साल पहले भी 11 मई के दिन भी ऐसा ही माहौल था. एक ऐतिहासिक युग अपने अंत की तरफ था. मुगलों का सदियों पुराना सामाजिक-सांस्कृतिक ढ़ाचा चरमरा गया था. उस वक्त एक शख़्स था जिसने ये सबकुछ अपनी आंखों से देखा था. वह शख़्स था उर्दू अदब का अज़ीम शख़्सियत मिर्ज़ा असद उल्लाह बेग खां उर्फ मिर्ज़ा ग़ालिब. यह ग़ालिब की नियती थी कि उन्हें गवाह बनकर 1857 का गदर देखना था. उन्हें ये देखना था कि जिस गंगा-जमुनी तहजीब ने उनके लेखनी को बांध रखा है वो अब विलुप्त हो जाएगी. ग़ालिब ने अपनी आंखों से देखा कैसे लाल क़िला या क़िलाए-मुअल्ला को फ़ौजी बैरकों में बदल दिया गया. उन्होंने वह दिन भी देखा जब शहंशाहे आलम, जिल्लेइलाही को अपने वतन से निकाल दिया गया और वह बगैर गाजे-बाजे के परदेश में चल बसे. ग़ालिब ने 1857 का वह खूनी मंजर अपनी आंखों से देखा और उसकी गवाही दी.
क्यों हुआ 1857 का विद्गोह
1857 में हिंदुस्तानी सिपाहियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया. उस समय किसान वर्ग में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ असंतोष मुखर हो उठा था. किसान वर्ग के साथ-साथ सामंतों-अभिजातों का गहरा और अटूट सम्बंध था. यह दोनों ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के शोषण-उत्पीड़न के शिकार थे. नतीजतन ये सभी एक हो गए थे और मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में विद्गोह कर दिया.
एक सम्राज्य का पतन
मुगल सम्राज्य के पतन की कहानी 'ग़ालिब और उनका युग' नामक किताब जिसे पवन कुमार ने लिखा है उसमें दी गई है. इस किताब का हिन्दी अनुवाद निशात ज़ैदी ने किया है. इस किताब में लिखा है-
''सन 1797 में जिस साल ग़ालिब का जन्म हुआ मुगल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर था. एक सदी के भीतर ही औरंगजेब का विस्तृत साम्राज्य दिल्ली और उसके आस-पास तक सिमट कर रह गया. आमतौर पर सभी जानते थे कि अंग्रेज मुगल निवास को लाल किले से हटाकर शहर के बाहर ले जाने की योजना बना रहे हैं.इतना ही नहीं वह बहादुर शाह ज़फर के उत्तराधिकारी को बादशाह नहीं बल्कि केवल शहजादे की पदवी देने का इरादा रखते थे. हालांकि कई लोगों को यकीन था कि ईरान के शहंशाह या रूस के ज़ार बीच-बचाव कर के फिरंगियों को बाहर खदेड़कर मुगल सल्तनत को अपनी शानो-शौकत दिलाएंगे. ईरान के शाह मुसिबत में पड़े अपने मुसलमान भाई की मदद के लिए आएंगे. इस आशय में एक पोस्टर वास्तव में दिल्ली के जामा मस्जिद की दीवार पर दो महीने पहले कुछ घंटों के लिए चिपका दिया गया था. 11 मई 1857 में जब दिल्ली में विद्रोह भड़का तो मिर्ज़ा ग़ालिब को अंदेशा भी नहीं था कि वह एक दिन जीवन के तय ढर्रे तो इस हद तक बदल देगा.''
दस्तम्बू में सदमें भरे दिनों का जिक्र
गदर के दौरान ग़ालिब ने दस्तम्बू लिखी जो एक विस्तृत डायरी है. इसमें उन्होंने उन दिनों का दर्द लिखा. वह लिखते हैं
''सोमवार दोपहर के समय सोलह रमज़ान 1273 हिजरी यानी यानी 11 मई 1857, लालकिले की दीवारों और फाटक में इतना तेज ज़लज़ला आया कि इसे शहर के चारो कोनो तक महसूस किया गया. इन मदहोश सवारों और अक्खड़ प्यादों ने जब देखा कि शहर के दरबाजे खुले हैं और रक्षक मेहमान नवाज़ हैं, दीवानों की तरह इधर-उधर दौड़ पड़े. जिधर किसी अफसर का पाया और जहां उन काबिले-एहतराम (अंग्रेजों) के मकानात दिखे, जब तक अफसरों को मार नहीं डाला और मकानात को तबाह नहीं किया, इधर से मुंह नहीं फेरा.''
दस्तम्बू में वो आगे लिखते हैं
''शुक्रवार को दोपहर के समय, 26 मोहर्रम यानी 18 सितंबर को शहर और क़िले पर विजेता सेना ने कब्जा कर लिया., भारी गिरफ्तारी, क़त्लो-ग़ारत और मार-धाड़ की ख़ौफनाक खबरें हमारी गली में पहुंची. लोग डर के कांपने लगे. चांदनी चौक़ के आगे क़त्लेआम जारी था और सड़के ख़ौफ से भरी हुई थी.''
आज भी 11 मई, सोमवार और रमजान का महीना
जैसा की हम ऊपर बता चुके हैं कि 11 मई की तारीख न सिर्फ इतिहास बल्कि वर्तमान संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है. आज से 163 साल पहले जब 11 मई को 1857 के सिपाही विद्रोह की तारीख दर्ज हुई थी तो भी दिन सोमवार का ही था और आज भी 11 मई सोमवार का ही दिन है. इसके साथ ही दूसरा संयोग यह है कि 1857 के सिपाही विद्रोह के वक्त भी रमजान का मुकद्दस महीना था और इस बार भी रमजान का ही महीना चल रहा है. 11 मई 1857 में भी उथल-पुथल का दौर था. एक ऐतिहासिक युग का अंत हो गया था. मुगलों का सदियो पुराना खड़ा किया गया सामाजिक-सांस्कृतिक ढ़ांचा चरमरा गया था. ठीक उसी तरह आज भी देश में उथल-पुथल की स्थिति है. कोरोना वायरस से देश सर्वाधिक प्रभावित है और रोज कई जाने इस गंभीर वायरस की वजह से जा रही हैं.