1980 के मुरादाबाद दंगे की रिपोर्ट के पन्ने आखिर क्यों नहीं खोले गए आज तक?
पुलिस और लोगों के बीच झड़प और उसके बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा में 83 लोग मारे गए और 112 घायल हो गए. अब 43 साल बाद मुरादाबाद के लोगों का जख्म ताजा हो गया है.
यूपी कैबिनेट ने मुरादाबाद में 1980 में हुए दंगों की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का फैसला लिया है. दंगे की जांच के लिए बनी जस्टिस सक्सेना आयोग की रिपोर्ट को योगी सरकार विधानसभा में पेश करेगी. हिंसा 3 अगस्त 1980 को मुरादाबाद के ईदगाह में भड़की थी.
20 नवंबर, 1983 को जस्टिस सक्सेना आयोग ने मुरादाबाद दंगों की जांच कर अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी. 43 साल में कई सरकारें आई, लेकिन अब तक रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई. मुरादाबाद दंगों के पीड़ित 43 साल से न्याय और मुआवजे की मांग को लेकर दर-दर भटकते रहे.
गोपनीय रखी गई है जांच आयोग की रिपोर्ट
1980 में हुए इस दंगे की जांच की रिपोर्ट पूरी तरह से गोपनीय है. सरकार का कहना है कि इसे अभी सार्वजनिक नहीं किया जा सकता. राज्य सरकार अब इस रिपोर्ट को सदन में रखेगी, जिसके बाद दंगों का पूरा सच सामने आ सकता है और मासूमों को इंसाफ मिल सकता है.
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक योगी सरकार ने दावा किया है कि न्यायमूर्ति सक्सेना की रिपोर्ट ने पुलिस पर लगाए गए सभी आरोप खारिज कर दिए हैं, और तत्कालीन मुस्लिम लीग के नेता डॉ शमीम अहमद को "प्रशासन को बदनाम करने के लिए हिंसा को अंजाम देने के लिए जिम्मेदार ठहराया और खुद के लिए समर्थन हासिल करने के लिए वाल्मीकि समाज और पंजाबी हिंदुओं पर भी दोष लगाया".
बता दें कि तत्कालीन मुख्यमंत्री वीपी सिंह ने दंगों की जांच के लिए एक सदस्यीय न्यायिक जांच आयोग का गठन किया था. इस आयोग की रिपोर्ट 40 साल बाद शुक्रवार को कैबिनेट में पेश की गई. कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद अब रिपोर्ट विधानमंडल में पेश की जाएगी.
दंगे में गई थी 83 लोगों की जान
13 अगस्त 1980 को मुरादाबाद में ईद की नमाज के दौरान पथराव और बवाल हुआ था. इसके बाद सांप्रदायिक हिंसा भड़कने से 83 लोगों की मौत हो गई थी और 112 लोग घायल हो गए थे. इस मामले की जांच के लिए गठित आयोग ने 20 नवंबर 1983 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी.
रिपोर्ट सार्वजनिक करने की वजह
सवाल ये आखिर 43 साल बाद दंगे की इस जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के पीछे वजह क्या है? सूत्रों के मुताबिक जस्टिस सक्सेना आयोग की रिपोर्ट में इस दंगे में मुख्य भूमिका मुस्लिम लीग के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष की मानी गई जो मुरादाबाद का ही निवासी था.
सूत्रों के मुताबिक इस रिपोर्ट में यह भी है कि दूसरे समुदाय के लोगों को फंसाने और सांप्रदायिक हिंसा के लिए इस दंगे की साजिश रची गई थी.
13 अगस्त 1980 की सुबह 50,000 से ज्यादा लोग ईद की नमाज अदा करने के लिए ईदगाह में इकट्ठा हुए थे. भीड़ बहुत बड़ी थी और सड़कों पर फैल गई. जब नमाज अदा की जा रही थी, तब ईदगाह से लगभग 200 मीटर दूर वाल्मीकि बस्ती से सड़कों पर एक सुअर के कथित तौर पर भीड़ में घुस आने के बाद बाहर हंगामा हो गया.
रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के फैसले के बाद आज 43 साल बाद पुराना जख्म फिर से ताजा हो गया है. इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक मुरादाबाद में ऐसे कई लोग हैं जो आज भी उस दिन को ऐसे याद करते हैं जैसे ये कल परसों की ही बात हो.
ऐसी ही कहानी 48 साल के फहीम हुसैन की है. मुरादाबाद के गलशाहीद इलाके में हर्बल दवा की दुकान चलाने वाले फहीम ने दंगे में अपने परिवार के चार सदस्यों को खो दिया है. बकौल हुसैन "13 अगस्त, 1980 को शहर के ईदगाह में नमाजियों की एक सभा पूरी तरह से भंग हो गयी.
कुछ घंटों बाद पुलिस ने कथित तौर पर उनके पैतृक घर के दरवाजे तोड़ दिए, उनके दादा, चाचा और नौकर को बाहर निकाल कर पुलिस की वैन में बिठाया गया, उसके बाद उन्हें फिर कभी नहीं देखा गया.
स्थानीय लोगों का कहना है कि हुसैन के दादा, चाचा और नौकर को जान से मार दिया गया है. हुसैन की 70 वर्षीय मां साजिदा बेगम आज भी अपने पति का इंतजार कर रही हैं.
साजिदा बेगम ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, 'उनका शव मुझे कभी नहीं सौंपा गया. पुलिस मुझे बताती रही कि वह जेल में है. तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हमारे घर आईं और मुझे वित्तीय मदद की पेशकश की. मैंने मना कर दिया. मैं अपने पति को चाहती थी."
मुरादाबाद में ईदगाह के आसपास की सड़कें कथित बर्बरता की ऐसी ही कहानियों से भरी हुई हैं. इसे लोग "यूपी में अब तक की सबसे खराब सांप्रदायिक हिंसा" कहते हैं.
पूर्व पत्रकार और बीजेपी के पूर्व सांसद एमजे अकबर, जो उस समय साप्ताहिक के संपादक थे और मुरादाबाद से रिपोर्टिंग करते थे, उन्होंने अपनी पुस्तक 'रायट आफ्टर रॉयट' में इस घटना के बारे में लिखा, इसे "सांप्रदायिक" पुलिस बल द्वारा "नरसंहार" कहा. रिपोर्ट्स भी ये दावा करती आई हैं कि मुरादाबाद की घटना हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं थी. कई रिपोर्ट्स भी यही दावा करती आई हैं.
ईद, भीड़ भरी ईदगाह और एक आवारा सुअर
इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, चशमदीदों का कहना है कि 13 अगस्त 1980 की सुबह 50,000 से ज्यादा लोग ईद की नमाज अदा करने के लिए ईदगाह में इकट्ठा हुए थे. भीड़ इतनी बड़ी थी कि सड़कों पर फैल गई. नमाज के दौरान ईदगाह से करीब 200 मीटर दूर वाल्मीकि बस्ती से सड़कों पर एक सुअर के कथित तौर पर आ जाने के बाद बाहर हंगामा मच गया.
जब लोगों ने मौके पर मौजूद पुलिस से पूछा कि उन्होंने सुअरों को अंदर क्यों आने दिया, तो पुलिसकर्मियों ने कथित तौर पर उन्हें डांटते हुए कहा कि सुअरों से सुरक्षा करना उनका काम नहीं है. इसके बाद लोगों ने पुलिस पर पथराव करना शुरू कर दिया. एक पत्थर एसएसपी रैंक के एक अधिकारी के सिर पर लगा.
प्रत्यक्षदर्शियों ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि अफसर जैसे ही वह बेहोश हुआ, पुलिस ने ईदगाह के मुख्य द्वार से कथित तौर पर गोलीबारी शुरू कर दी. इससे लोग ईदगाह के दूसरे दरवाजे से सुरक्षित स्थानों पर भागने लगे. भगदड़ मच गई.
ईदगाह से सटे मोहल्ले में रहने वाले मोहम्मद नबी तब 32 साल के थे. वो कहते हैं "हम सभी भागने की कोशिश कर रहे थे. कुछ लोग अपने बच्चों को कंधे पर उठाकर भाग रहे थे. कई लोगों को कुचल दिया गया. कुछ लोगों को बिजली के तार से करंट लग गया. यहां कम से कम 150 लोगों की मौत हो गई. मैंने लाशों को अपने हाथों से उठाया है.
मोहल्ला के एक दर्जी इंतेजार हुसैन (65) ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि गोलियों की आवाज से उनकी नींद खुली और उन्होंने खून से लथपथ लोगों को इधर-उधर भागते देखा. जैसे ही उन्होंने बगल की एक रात वाली मस्जिद में शरण ली, एक गोली उनके सिर से गुजर गई. "मैं भाग्यशाली हूं जो बच गया. न्याय को भूल जाइए, पुलिस स्टेशन में एक सुनवाई भी नहीं थी."
'यह पुलिस-मुस्लिम दंगा था'
पुलिस की गोलीबारी से नाराज भीड़ ने ईदगाह से कुछ सौ मीटर दूर गलशाहीद में निकटतम पुलिस चौकी में कथित तौर पर तोड़फोड़ की और आग लगा दी. वहां दो कांस्टेबलों की मौत हो गई. प्रत्यक्षदर्शियों ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि इसके बाद कथित तौर पर पुलिस ने स्थानीय मस्जिद और व्यवसायों को आग लगा दी गई, लोगों को उनके घरों से बाहर निकाला गया और गोली मार दी गई.
हादसे में परिवार के लोगों को खोने वाले फहीम हुसैन का घर चौकी के ठीक पीछे है. उन्होंने एक्सप्रेस का बताया, 'पुलिस के लिए चौकी के आसपास रहने वाला हर व्यक्ति दोषी था. अधिकारियों ने जांच की जरूरत ही नहीं समझी. वह कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट तक लड़ने के बाद मैंने न्याय के लिए सभी उम्मीद खो दी है.
उनके पड़ोसी मोहम्मद आलम की मां की कथित तौर पर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी और उनके सभी सामानों को आग लगा दी गई थी. स्थानीय मस्जिद के इमाम पुत्तम अली को कथित तौर पर बाहर खींचकर बाहर निकाला गया और मस्जिद को जलाने से पहले गोली मार दी गई. उनकी याद में अब मस्जिद का नाम बदलकर पुत्तम शहीद मस्जिद कर दिया गया है.
गलशाहीद में रहने वाले और उस समय 15 साल के डॉ निसार अहमद ने आरोप लगाया कि प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी (पीएसी) घटना के दौरान और बाद में हिंसा में शामिल थी. उन्होंने कहा, 'यह हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं था. यह एक पुलिस-मुस्लिम दंगा था.
मोहम्मद नबी कहते हैं, "हम यहां हिंदुओं से घिरे हुए हैं. जब हम भागे तो हिंदुओं ने हमें अपने घरों में शरण दी. कई लोग पुलिस के प्रतिशोध के डर से कई दिनों तक हिंदुओं के घरों में रहे. फिर एक हफ्ते के अंदर अचानक ये दंगा हिंदू-मुस्लिम दंगा बन गया. इस सब के पीछे पुलिस ही थी.
अहमद जो ईदगाह के पास रहते हैं तब सिर्फ 10 साल के थे, कहते हैं " बीएसएफ और सेना के शहर में आने के बाद ही कुछ आदेश बहाल किए गए थे, महीनों तक कर्फ्यू लगा रहा.
उस समय की मीडिया रिपोर्टों के अनुसार मुरादाबाद में हिंसा अगस्त तक जारी रही, लेकिन उस साल नवंबर तक पड़ोसी शहरों और गांवों से हिंदू-मुस्लिम दंगों की छिटपुट घटनाएं सामने आती रहीं.
पुरानी यादें आज भी कच्चे घाव की तरह चुभ रहे
वाल्मीकि बस्ती कभी चहल-पहल वाला इलाका हुआ करता था. अब वहां पर सिर्फ 10 घर हैं. बस्ती में पान की दुकान चलाने वाले विल्सन वाल्मीकि जो उस समय किशोर थे, इंडियन एक्सप्रेस से कहते हैं कि दोनों समुदाय लंबे समय से एक साथ रहते थे, लेकिन ईदगाह की घटना ने खाई पैदा कर दी.
वो कहते हैं "मैं सुअर की कहानी की पुष्टि नहीं कर सकता, लेकिन ईदगाह गोलीबारी के बाद कुछ समय के लिए यहां चीजें बदतर हो गईं. तब से बहुत से लोग इस क्षेत्र को छोड़ चुके हैं. कई पंजाबी हिंदू भी बाहर चले गए हैं.
ज्यादातर लोगों का ये मानना है कि अब इस मामले पर चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि बहुत समय बीत चुका है और कथित रूप से जिम्मेदार लोग या तो मर चुके हैं या लापता हैं.