तारीख थी 16 दिसंबर, 1992. मस्जिद को गिरे हुए 10 दिन का वक्त बीत चुका था. राज्य में कल्याण सिंह की सरकार जा चुकी थी और अब राज्य में राष्ट्रपति शासन था. तब गृहमंत्री थे एसबी चव्हाण और गृह सचिव थे माधव गोडबोले. गृहसचिव के आदेश पर 16 दिसंबर को गृहमंत्रालय की ओर से एक नोटिफिकेशन जारी किया गया. इस नोटिफिकेशन में बाबरी विध्वंस की जांच के लिए एक कमीशन बनाने की बात कही गई थी. पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के सिटिंग जज मनमोहन सिंह लिब्रहान की अध्यक्षता में कमीशन बना, जिसे तीन महीने के अंदर अपनी रिपोर्ट देनी थी.


ये बात दीगर है कि जिस कमीशन को तीन महीने में अपनी रिपोर्ट देनी थी, उसने रिपोर्ट देने में करीब 17 साल का वक्त लग गया. आयोग ने 30 जून, 2009 को अपनी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी. इस बीच अयोध्या विवाद हाई कोर्ट में चलता रहा. 1 जुलाई, 1989 को रिटायर्ड जस्टिस देवकीनंदन अग्रवाल ने जो याचिका दाखिल की थी, उसी के साथ दूसरी याचिकाएं शामिल कर ली गई थीं. हाई कोर्ट में जो केस था वो बस ये था कि ज़मीन पर मालिकाना हक किसका है. बाबरी विध्वंस का तो केस ही अलग था. हाई कोर्ट में मामला चलता रहा. कई बार दस्तावेज पेश किए गए. कई बार अदालत के आदेश पर पुरातत्व विभाग ने अयोध्या की खुदाई की. वहीं मामला सियासत की आंच पर भी पकता रहा.



साल 2001 में 6 दिसंबर को जब बाबरी विध्वंस के 9 साल पूरे हो गए तो विश्व हिंदू परिषद ने फिर से राम मंदिर निर्माण की बात कही. इससे तनाव बढ़ गया. इसे देखते हुए तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अयोध्या समिति का गठन कर दिया. इसमें शत्रुघ्न सिंह को दोनों पक्षों से बातचीत करने के लिए तैनात किया गया. ये साल था 2002. तब उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने थे. राम लहर पर सवार होकर बीजेपी उत्तर प्रदेश के साथ ही केंद्र में भी सरकार बना चुकी थी. लेकिन साल 2002 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने जो घोषणापत्र तैयार किया, उसमें राम मंदिर का मुद्दा नहीं था. तब बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे जन कृष्णमूर्ति. उन्होंने साफ किया कि अयोध्या में मंदिर या तो कोर्ट के फैसले के बाद बनेगा या फिर दोनों पक्षों के बीच बातचीत से. तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे राजनाथ सिंह ने भी यही बात दोहराई. इसकी वजह से विश्व हिंदू परिषद नाराज हो गया.



तब विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष रहे अशोक सिंघल ने 15 मार्च से अयोध्या में राम मंदिर बनाने का ऐलान कर दिया. इसके लिए पूरे देश से राम भक्तों को बुलाया जाने लगा. जब हजारों की संख्या में कारसेवक अयोध्या पहुंच गए तो मुख्यमंत्री रहे राजनाथ सिंह के हाथ से चीजें फिसलती हुई दिखने लगीं. तब उन्होंने विहिप से मदद मांगी. कारसेवकों को वापस जाने के लिए कहा. विहिप ने अपील जारी की. कहा कि जो लोग अयोध्या आए हैं, वो लौट जाएं. इसी लौटने के क्रम में गोधरा में एक ट्रेन में आग लगा दी गई, जिसमें 59 कारसेवक मारे गए. इसकी वजह से गोधरा में दंगा भड़क गया, जिसके लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भी जिम्मेदार माना गया. हालांकि बाद में गोधरा दंगे के लिए बनी स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम और सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि इसमें नरेंद्र मोदी की कोई भूमिका नहीं थी. वहीं उत्तर प्रदेश में हुए चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला और राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया.



दूसरी तरफ मंदिर का मामला हाई कोर्ट में चल ही रहा था. हाई कोर्ट के आदेश पर पुरातत्व विभाग ने अयोध्या में फिर से खुदाई की और अपनी रिपोर्ट में कहा कि वहां पर मंदिर से मिलते-जुलते अवशेष मिले हैं. वहीं उत्तर प्रदेश में सत्ता से बाहर हो चुकी बीजेपी ने 2004 के लोकसभा चुनाव में फिर से राम मंदिर का मुद्दा पकड़ लिया. चुनाव से पहले लालकृष्ण आडवाणी अयोध्या पहुंचे. मंदिर में पूजा की और कहा कि यहां पर राम मंदिर ज़रूर बनेगा. लेकिन इसका कोई चुनावी फायदा नहीं हुआ. न तो राम मंदिर काम आया और न ही प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी का शाइनिंग इंडिया का नारा. बीजेपी केंद्र की सत्ता से भी बेदखल हो गई. इस बीच 5 जुलाई, 2005 को अयोध्या में एक आतंकी हमला भी हुआ, जिसमें पांच आतंकियों समते छह लोग मारे गए थे. पांच साल तक आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहा. राहुल गांधी ने कहा कि अगर गांधी परिवार का कोई शख्स प्रधानमंत्री होता, तो मस्जिद को कोई हाथ भी नहीं लगा सकता था. वहीं लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में नरसिम्हा राव को क्लीन चिट दे दी गई.



ये सब होते-होते तारीख आ गई 26 जुलाई, 2010. इलाहाबाद हाई कोर्ट में तीन जजों की खंडपीठ को फैसला सुनाना था. पीठ में थे जस्टिस एसयू खान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस डीवी शर्मा. फैसला 2:1 के पक्ष से आया था. 8000 पन्नों के इस फैसले में ज़मीन को तीन हिस्सों में बांट दिया गया. एक हिस्सा रामलला को, एक हिस्सा निर्मोही अखाड़े को और एक हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दिया गया. लेकिन तीनों में से कोई भी पक्ष इस फैसले को मानने के लिए राजी नहीं था. मामला पहुंच गया सुप्रीम कोर्ट. सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी और नए सिरे से सुनवाई शुरू की. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तीनों पक्ष चाहें तो कोर्ट के बाहर फैसला कर सकते हैं. लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. 8 जनवरी, 2019 को मामले की सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने इस केस को पांच जजों की बेंच के पास भेज दिया. सुप्रीम कोर्ट ने 8 मार्च 2019 को एक मध्यस्थता पैनल बना दिया. मकसद था कि तीनों पक्षों से बात करके कोई रास्ता निकाला जा सके. इसके लिए 15 अगस्त, 2019 तक का समय दिया गया, लेकिन ऐसा नहीं हो सका.


2 अगस्त, 2019 को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि मध्यस्थता विफल हो गई है, लिहाजा अब कोर्ट में हर रोज मामले की सुनवाई होगी. 6 अगस्त, 2019 से पांच जजों की बेंच के सामने मामले की सुनवाई शुरू हुई. इस बेंच में शामिल थे चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एसए बोबड़े, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण, और जस्टिस एसए नज़ीर. करीब 40 दिनों तक सुनवाई हुई और 16 अक्टूबर, 2019 को अदालत ने सुनवाई पूरी करके फैसला सुरक्षित रख लिया. 9 नवंबर, 2019 को इस केस का अंतिम फैसला आया, जिसमें अदालत ने माना कि ज़मीन रामलला विराजमान की ही है. वहीं अदालत ने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सरकार को आदेश दिया कि सु्न्नी वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ ज़मीन कहीं और दे दी जाए.



सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद अयोध्या में राम मंदिर का रास्ता साफ हो गया. कोर्ट ने मंदिर बनाने के लिए एक ट्रस्ट बनाने का आदेश दिया था. सरकार ने इसपर अमल करते हुए श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट बनाया. इस ट्रस्ट ने कई बैठकें कीं, जिसमें तय हुआ कि पांच अगस्त, 2020 को अयोध्या में प्रधानमंत्री मोदी भूमि पूजन कर राम मंदिर की आधारशिला रखेंगे. और इसके साथ ही करीब 492 साल पुराना विवाद भी हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा.