नई दिल्ली: देश मे जब कोरोना महामारी के चलते सब थम गया था, जब चारों ओर डर छाया हुआ था तब कुछ लोग ऐसे थे जो निःस्वार्थ भाव से सेवा कार्य कर रहे थे. 54 वर्षीय आरिफ खान, शहीद भगत सिंह सेवा दल के लिए पिछले लगभग 25 सालों से काम करते थे, कोरोना के दौर में भी उन्होंने अपना सेवा कार्य जारी रखा.


पिछले 5 महीनों में 200 से ज़्यादा पार्थिव शवों को उनके देह संस्कार और कोरोना संक्रमित मरीज़ों को अस्पताल पहुंचाने का कार्य किया. पर वह कोरोना को हरा न पाए, वायरस से संक्रमित होकर उन्होंने अपनी ही जान गवा दी. आज देश के तमाम लोग उनके जज़्बे को सलाम कर रहें है. देश के उप राष्ट्रपति ने भी आरिफ़ के जज़्बे को सलाम करते हुए सोशल मीडिया पर शोक जताया. लेकिन वहीं दूसरी और उनका परिवार आज बिखर गया है.


मेरे सीनियर थे, लेकिन उनका जाना परिवार के किसी सदस्य के चले जाना महसूस हो रहा है


उन्हें अपने पिता के इस दुनिया से चले जाने पर अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है. वह कहते हैं कि हम तो पापा को कहते थे कि मत जाओ लेकिन उन्होंने हमारी एक न सुनी. आरिफ खान के साथ काम करने वाले जितेंद्र कुमार की आंखे नम थीं. हिम्मत जुटाते हुए उन्होंने हमें बताया, "जैसे एक परिवार का सदस्य चला जाता है, वैसे ही आरिफ जी की कमी महसूस हो रही है. वह मेरे सीनियर थे, वह 30-35 सालों से इस संस्थान के साथ जुड़े थे और मैं भी 20-25 सालों से जुड़ा हुआ हूं.


सरकार की तरफ से कोई मद्दत नहीं दी गई तो थोड़ा मनोबल तो टूटा, यही सोचा की यदी हमारे साथ भी कुछ ऐसा हो तो हमारे परिवार के साथ क्या होगा." लेकिन उनका यह भी कहना है कि सेवा को हम नहीं छोड़ सकते, उसके लिए दिल मे हिम्मत अभी बाकी है. आरिफ खान अपने दो बेटे, दो बेटियों और पत्नी को पीछे छोड़ चल बसे. घर वालों का कहना है कि उन्हें आरिफ जी ने कभी पता ही नहीं लगने दिया कि वह इतने बीमार हो गए थे. वह हमेशा कहते थे कि वो जल्द ही घर ठीक होकर वापस आएंगे. उन्हेंने अंतिम पल तक अपना हौसला बनाये रखा. कुछ ऐसे ही व्यक्ति थे आरिफ खान.


कभी नहीं सोचा था कि कोरोना में सेवा कार्य करते हुए खुद ही चल बसेगा


शहीद भगत सिंह सेवा दल के संस्थापक जितेंद्र सिंह शंटी कहते हैं, "यह जो सदमा है यह हमारी संस्था के लिए है. हमारी दिल की आवाज़ हमारी आंखों तक आ रही है. जबसे सेवा कार्य शुरू हुआ था वो तबसे ही हमारे साथ जुड़ा हुआ था. 30 तारीख थी जब बत्रा हॉस्पिटल से एक पार्थिव शव को लाना था। तो मैं जब शव उठाने लगा तो उसने कहा कि आप पहले ही संक्रमित हो चुके हैं तो आप मत करिए. कभी नहीं सोचा था कि कोरोना में सेवा कार्य करते हुए खुद ही चल बसेगा.


यही सोता था, घर नही जाता था, खाता पिता यही था, सोता भी यही था. अभी भी सामान यही पड़ा है, बिस्तर भी वही है. यह गाड़ी देखता हूं तो मुझे उसकी शक्ल नज़र आती है." शहीद भगत सिंह सेवा दल में दीपक शर्मा भी कई सालों से प्यार से 'खान साहब' बुलाये जाने वाले आरिफ खान के साथ काम मे जुटे हुए थे. अम्बुअलनस में आरिफ खान के साथ आखरी बार वह भी मौजूद थे.


वह कहते हैं, "में उन्हें 20-22 साल से जानता था. वो हमारे दल के पहले ड्राइवर थे. हमार पारिवारिक सम्बंध थे उनके साथ. शुरुआत के समय से ही जब भी कोई ज़्यादा बीमार होता था तो वो एम्बुलेंस लेकर हमेशा तैयार रहते थे. आखरी दिन भी जैसे शंटी जी ने बताया जैसे ही उसे पता लगा कि शंटी साहब अकेले जा रहे हैं तो वह दौड़ता हुआ आया और उनके साथ जाने और उनकी मद्दत करने की ज़िद करने लगा.


कभी भी घबराए हुए नज़र नही आते थे हमेशा काम के लिये तैयार रहते थे


30 तारीख को उन्होंने मुझे बताया था की उनकी माली हालत बेहद ही खराब है. वह किसी भी तरीके से अपने बच्चों के लिए एक घर छोड़कर जाना चाहते थे और अब देखिए समय का रुख कैसे बदला की अब वह नहीं रहे."


आरिफ खान के करीबी और सहयोगी, यही मानते हैं कि जैसे सरकार अपने वॉरिअयर्स को पूजती है तो ऐसे निस्वार्थ कार्य करने वाले वॉरिअयर्स के लिए भी सरकार को कुछ करना चाहिए. दीपक शर्मा ने हमे बताया, "आरिफ खुद किराये के मकान में रहता था उसका वेतन एक संस्था के लिए काम करते हुए कितना ही था लेकिन फिर भी वह अपना काम पूरी सच्चाई से करता था."


विजेंदर सिंह शंटी बताते हैं कि," वो यही सोता था, क्योंकि वो कहता था कि अगर मैं घर चला गया और बच्चे संक्रमित हो जाएं तो? इसके चलते वह खाता सोता भी यही था."


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