भारत सरकार का प्रोजेक्ट चीता बाघों के लिए एक बुरा सपना साबित हो रहा है. मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में गुरुवार (25 मई) को दो और शावकों की मौत हो गई. इससे पहले एक और शावक की मौत कूनो नेशनल पार्क में हुई थी. एक और शावक की हालत गंभीर बनी हुई है, उसे निगरानी में रखा गया है. ये सभी शावक मादा चीता 'ज्वाला' के बच्चे हैं. 


इन तीन शावकों की मौत को मिलाकर पिछले 2 महीनों में अफ्रीकी देशों से भारत आए कुल 6 चीतों की मौत हो चुकी है. पहले 3 चीतों की मृत्यु अलग-अलग कारणों से हुई थी. 


चीता के तीन शावकों की मौत की वजह अब तक ज्यादा गर्मी बताई जा रही है. कुनो नेशनल पार्क द्वारा जारी प्रेस नोट के अनुसार 23 मई इस मौसम का सबसे गर्म दिन था. दिन चढ़ने के साथ लू बढ़ी और तापमान 47 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया और ज्वाला के शावकों की तबीयत खराब होती चली गई. बीमार चल रहे शावक को ऑब्जर्वेशन में रखा गया है. उसे कम से कम 1 महीना ऑब्जर्वेशन में रखा जाएगा. पिछले दो दिनों के मुकाबले उसकी हालत में सुधार है. लेकिन पूरी तरह से ठीक नहीं है. शावक को मां ज्वाला से भी 1 महीने तक दूर रखा जाएगा. ये भी बताया गया कि ज्वाला के सभी शावक बहुत कमजोर पैदा हुए थे.


बीमारी के बाद मर गए चीता के शावक लगभग आठ हफ्ते के थे. 8 महीने के शावक आम तौर पर जिज्ञासु होते हैं और लगातार मां के साथ चलते हैं. इन शावकों ने लगभग 8-10 दिन पहले ही चलना शुरू किया था. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक चीता विशेषज्ञों के अनुसार, अफ्रीका में चीता शावकों की जीवित रहने की दर आमतौर पर बहुत कम है. पोस्टमार्टम की कार्यवाही मानक प्रोटोकॉल के अनुसार की जा रही है.


साशा, उदय, और दक्ष की भी हो चुकी है मौत


नामीबिया से भारत आए चीतों में से एक साशा की 27 मार्च को किडनी से संबंधित बीमारी की वजह से मौत हो गई थी. माना जाता है कि साशा नामीबिया में कैद के दौरान इस बीमारी की चपेट में आ गई थी और कुनो पहुंचने के बाद से ही अस्वस्थ थी. दक्षिण अफ्रीका के चीता उदय की 13 अप्रैल को मौत हो गई थी. उदय की मौत की कार्डियोपल्मोनरी फेलियर मानी जा रही थी. दक्षिण अफ्रीका से लाई गई मादा चीता दक्ष की नौ मई संभोग के दौरान चोट लगने से मौत हो गई थी. दुनिया के पहले इंटरकॉन्टिनेंटल ट्रांसलोकेशन प्रोजेक्ट में अफ्रीका से भारत लाए गए 20 चीतों में से 17 अब बचे हैं. 


दोनों अफ्रीकी देशों के चीतों को महत्वाकांक्षी प्रोजक्ट चीता कार्यक्रम के तहत भारत लाया गया है. इसका मकसद विलुप्त होने के सात दशक बाद देश में एक बार फिर से चीतों की आबादी को पुनर्जीवित करना है.


चीतों की मौत के बनाई गई 11 सदस्यीय चीता परियोजना संचालन समिति


पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने शुक्रवार को एक बयान में कहा कि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने 11 सदस्यीय चीता परियोजना संचालन समिति का गठन किया है. इसके अध्यक्ष ग्लोबल टाइगर फोरम के महासचिव राजेश गोपाल को बनाया गया है. 


अन्य 10 सदस्यों में राजस्थान के पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक - आरएन मेहरोत्रा, भारतीय वन्यजीव संस्थान के पूर्व निदेशक- पीआर सिन्हा, पूर्व एपीसीसीएफ अध्यक्ष एचएस नेगी, डब्ल्यूआईआई में पूर्व संकाय मेंबर- पीके मलिक के अलावा डब्ल्यूआईआई के पूर्व डीन- जीएस रावत, अहमदाबाद स्थित एक सामाजिक कार्यकर्ता- मित्तल पटेल, अहमदाबाद स्थित एक सामाजिक कार्यकर्ता- कमर कुरैशी, डब्ल्यूआईआई वैज्ञानिक और एनटीसीए के महानिरीक्षक और एमपी के प्रधान मुख्य वन संरक्षक, वन्यजीव और मुख्य वन्यजीव वार्डन शामिल हैं. 


10 सदस्यों की टीम के अलावा अंतर्राष्ट्रीय चीता विशेषज्ञों का एक परामर्श पैनल भी बनाया गया है. जिसमें पशु चिकित्सा और वन्यजीव विशेषज्ञ-  प्रिटोरिया विश्वविद्यालय दक्षिण अफ्रीका के लॉरी मार्कर, चीता संरक्षण कोष नामीबिया के मेंबर्स एंड्रयू जॉन फ्रेजर, फार्म ओलिवनबोश  और विन्सेंट वैन डैन मर्वे के प्रबंधक जरूरत पड़ने पर सलाह देंगे. 


मंत्रालय ने कहा कि एनटीसीए का गठन चीतों की खास देखभाल, निगरानी और जरूरत पड़ने पर सलाह देने के लिए किया गया है. एनटीसीए ईको-टूरिज्म के लिए चीता आवास खोलने और नियमों में सुझाव भी देगा. पैनल दो साल के लिए लागू होगा और हर महीने कम से कम एक बैठक आयोजित करेगा. समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय चीता विशेषज्ञों के पैनल से सलाह ली जाएगी. साथ ही जरूरत पड़ने पर एक्सपर्ट को भारत में आमंत्रित किया जाएगा. 


प्रोजेक्ट चीता के तहत पहले ही किए गए हैं बेहतरीन इंतजाम


17 दिसंबर 2022 को प्रोजक्ट चीता के तहत आठ चीतों की पहली खेप नामीबिया से भारत लाई गई थी. चीतों को शुरुआत में क्वारंटाइन रखा गया था. पूरे एक महीने बाद इन्हें जंगल में छोड़ा गया था. सीसीटीवी कैमरे जंगल के बड़े हिस्से में लगाए गए थे. कंट्रोल रूम बनाया गया था. जहां से रात-दिन इन पर नजर रखी जा सके. हर चीते के गले में कॉलर लगाया गया था. जिससे उसके हर पहलू पर निगरानी की जा सके. इसके बावजूद चुनौतियां कम नहीं थी.


बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य सरकार के मुख्य वन रक्षक और 'चीफ़ वाइल्ड लाइफ वार्डन' जसवीर सिंह चौहान ने बताया था कि सबसे बड़ी चिंता इन चीतों के अफ़्रीकी होने की वजह से है. अगर ये चीते एशियाई होते तो चिंताएं कम थी. 


बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय वन सेवा के पूर्व अधिकारी हरभजन सिंह पाबला बताया कि भारत में ठीक वैसा ही प्राकृतिक वास बनवाया गया है जैसा दक्षिण अफ़्रीका और नामीबिया में है तो इसलिए उन्हें परेशानी नहीं होनी चाहिए. 


एक टीवी चैनल से बात करते हुए जाने माने वन्य प्राणी विशेषज्ञ वाल्मीकि थापर ने बताया था कि भारत में इन चीतों के लिए सबसे बड़ी चुनौती ग्रासलैंड की कमी होगी. उन्होंने अफ़्रीका का उदाहरण देते हुए बताया था कि अफ्रीका में चीतों के दौड़ने के लिए एक बड़ा इलाका या ग्रासलैंड है लेकिन भारत में ऐसा नहीं है. जो इन चीतों के लिए बड़ी चुनौती बनेगी.   


जीव वैज्ञानिक और हैदराबाद स्थित सेंटर फ़ॉर सेल्यूलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के विभागाध्यक्ष डॉक्टर कार्तिकेयन ने भी ये अंदेशा जताया था कि अफ़्रीका से नए परिवेश में लाए जाने वाले चीतों के बीच प्रोटीन संक्रमण हो सकता है. प्रोटीन संक्रमण की वजह से दूसरे तरह के संक्रमणों की भी आशंका बढ़ेगी.  चीते, चोट या संक्रमण बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं.


क्या फेल हो रहा चीतों को भारत लाने का प्रयोग


जानकारों का मानना है कि दशकों से चीते भारत में विलुप्त हो रहे थे. भारत ने 1950 के दशक में चीते को विलुप्त घोषित कर दिया था. एक तरह से चीतों को एक नए प्रयोग की तर्ज पर भारत लाया गया. अगर ये प्रयोग फेल हो जाता है तो एक सबक लेने की जरूरत होगी कि आने वाले समय में अगर चीतें लाए जाते हैं तो पहले से बेहतर इंतजाम किए जाए. बता दें कि प्रोजेक्ट चीता पर दशकों से काम हो रहा था. प्रोजेक्ट चीता के तहत करीब 16 चीते भारत लाए गए थे.


दुनिया में कितनी है चीतों की संख्या


इस समय दुनिया भर में चीतों की संख्या लगभग 7,000 है. इनमें से आधे से ज़्यादा चीते दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया और बोत्सवाना में मौजूद हैं. 1970 के दशक में भारत ने ईरान से चीते लाकर देश में बसाने की कोशिश की थी.  लेकिन हालातों की वजह से ये मुमकिन न हो सका. इसके बाद नामीबिया से ऐसी ही एक पहल 2009 में शुरू हुई थी जिसके तहत कूनो नेशनल पार्क जैसी तीन जगहों में चीतों को बसाने पर राय बनी.


2010 में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश एक बड़ी पहल की. जिसके एक दशक के बाद 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को चीतों को लाने की इजाजत दे दी.