धारचूला: सन् 1962 में जब देश के जवान चीन से लद्दाख में लोहा ले रहे थे, उस समय उत्तराखंड से लगने वाली भारत-चीन सीमा पर भी तनाव बना हुआ था. हालांकि इस सीमा पर भारत और चीन के बीच कभी विवाद नहीं हुआ है. लेकिन चीन के रुख को देखते हुए भारत के जवान लिपूलेख सीमा पर अलर्ट थे उस समय धारचूला से लिपूलेख तक कोई सड़क नहीं थी. जवानों को पैदल और बड़े ही कठिन रास्ते से होकर जाना पड़ता था.


पुराने लोग बताते है किं उस समय सीमा से सटे जितने भी गांव थे उन सभी लोगों ने देश के जवानों का पूरा साथ दिया था. चाहे बॉर्डर तक गोला बारूद पहुंचाना हो या फिर उनके लिए खाने पीने का सामान. गांव के लोगों ने कंधे से कंधा मिलाकर आर्मी का साथ दिया था.


चीन सीमा के करीब गरभ्यांग गांव के रहने वाले 80 साल के बुजुर्ग दिवान सिंह गरभ्याल बताते हैं कि जब लेह लद्दाख में भारत के जवान चीन के खिलाफ लड़ रहे थे तब इस बॉर्डर पर भी देश की सेना अलर्ट थी. उस समय धारचूला में आर्मी की सेना ब्रिगेड रहती थी. धारचूला से लिपूलेख तक जाने का कोई सड़क का रास्ता नहीं था. लिपूलेख पर भारत की सीमा चीन से लगती है.


दिवान सिंह ने बताया कि उस समय प्रशासन की तरफ से आदेश हुआ कि सेना की मदद करनी है, उनका खाने पीने का समान और उनके हथियार बॉर्डर तक पहुंचाने हैं, तब सीमा पर रहने वाले लोगों ने जवानों की मदद की.


दिवान सिंह गरभ्याल की माने तो सेना का समान धारचूला से लिपूलेख तक पहुंचाना होता था जोकि करीब 80 किलोमीटर की दूरी थी और रास्ता कोई नहीं था तब एक गांव से दूसरे गांव, दूसरे से तीसरे ऐसे सभी युवाओं ने मिलकर आर्मी की मदद की.


बुजुर्ग दीवान सिंह की उम्र उस समय 21 साल थी. वो एकदम जवान थे. दिवान सिंह बताते है कि जब इनके गांव तक सेना का सामान आया तो तब इन्होंने 30 से 40 पौंड के करीब सेना का गोला बारूद पीठ पर उठा कर ऊपर तक पहुंचाया.


बुजुर्ग दिवान सिंह के मुताबिक लिपूलेख से बॉर्डर तक जाने में पहले करीब 11 दिन लगते थे. रास्ते नहीं थे पहाड़ों को पार करके जाना होता था. बारिश के मौसम में काफी दिक्कत होती थी. कई जगहों पर पहाड़ गिरने के कारण रास्ता बंद हो जाता था. तब भेड़ और बकरी की मदद से ऊपर जाते थे.


दिवान सिंह के मुताबिक जब चीन के साथ भारत की लड़ाई चल रही थी उस समय सीमा के पास रहने वाले सभी लोगों के मन में देश के लिए एक भावना थी. उनके मुताबिक जवानों की मदद करना भी देश हित की और गर्व की बात थी. इसलिए गांव वाले भारत की सेना की जो भी मदद कर सकते थे वो की.


सन 1959 में दिवान सिंह गरभ्याल व्यापार के लिए तिब्बत जाते थे. दीवान सिंह ने 59, 60 और 61 तक वहां पर व्यापार किया. उस समय शांति हुआ करती थी किसी भी तरह की कोई समस्या नहीं थी. अपनी इस कहानी में इन्होंने बताया कि आर्मी भी उनसे समान लेती थी. ये वहां पर गुड़ और मिश्री का व्यापार करने जाते थे. क्योंकि वहां बहुत ठंड होती है और ठंड में शरीर में गर्मी लाने के लिए गुड़ और मिश्री खाई जाती है. जो समान इनसे चीन की सेना मंगवाती थी ये उस समान को उनके कैम्प तक देने जाते थे और बदले में उनसे ऊन मिलती थी जोकि पानीपत के व्यापारी खरीदते थे.


दरअसल दीवान सिंह गरभ्याल उस गांव से आते जिस गांव को नेपाल अब अपना बता रहा है. नेपाल के नए नक्शे के मुताबिक कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपूलेख को वह अपना बता रहा है. गरभ्यांग गांव कालापानी के पास ही है. दीवान सिंह गरभ्याल के मुताबिक कालापानी हमेशा से ही भारत का रहा है इनका कहना है कि यहां के रहने वाले हर नागरिक को तकलीफ होती है जब नेपाल कालापानी को अपना बताता है.


फिलहाल सीमा पर तनाव जारी है. लेकिन 80 साल की उम्र में इस बुजुर्ग का जोश कम नहीं हुआ है. इनका कहना है कि जब भी देश को जरूरत होगी तब तब सरहद पर रहने वाले लोग देश के लिए हर तरह से तैयार हैं.


नेपाल चीन के चक्कर में आकर भारत के साथ अपने रिश्तों को खराब कर रहा है. दीवान सिंह गरभ्याल का कहना है कि किसी के बहकावे में आकर नेपाल को ऐसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि दोनों देशों का रोटी और बेटी का रिश्ता है.
यह भी पढ़ें:


NCP प्रमुख शरद पवार बोले- चीन ने 1962 के युद्ध के बाद 45000 वर्ग किमी भारतीय भूमि पर कब्जा किया था