आधार बनाम निजता का अधिकार, जान लें क्या है पूरा मसला
याचिकाकर्ताओं ने आधार के लिए बायोमेट्रिक जानकारी लेने को निजता का हनन बताया है. जबकि सरकार की दलील है कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है.
नई दिल्लीः यूनिक आइडेंटफिकेशन नंबर या आधार कार्ड योजना की वैधता को चुनौती देने वाली कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं. ये याचिकाएं हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस पुट्टास्वामी, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) की चेयरपर्सन शांता सिन्हा, रिटायर्ड मेजर जनरल एस जी वोम्बातकरे, दलित अधिकार कार्यकर्ता बेज़वाड़ा विल्सन समेत कई जाने-माने लोगों ने दाखिल की हैं. इन याचिकाओं में सबसे अहम दलील है आधार से निजता के अधिकार के हनन की.
याचिकाकर्ताओं ने आधार के लिए बायोमेट्रिक जानकारी लेने को निजता का हनन बताया है. जबकि सरकार की दलील है कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच सबसे पहले इस बात पर सुनवाई कर रही है कि निजता का अधिकाई मौलिक अधिकार है या नहीं.
9 जजों की बेंच क्यों:- इसकी वजह 50 और 60 के दशक में आए सुप्रीम कोर्ट के 2 पुराने फैसले हैं. एम पी शर्मा मामले में सुप्रीम कोर्ट के 8 जजों की बेंच ये कह चुकी है कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है. खड़क सिंह मामले में 6 जजों की बेंच का भी यही निष्कर्ष था. हालांकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट की ही छोटी बेंचों ने कई मामलों में निजता को मौलिक अधिकार बताया. इसलिए 9 जजों की बेंच अब पूरे मसले पर विचार कर रही है.
याचिकाकर्ताओं की दलील :- गोविन्द बनाम मध्य प्रदेश, राजगोपाल बनाम तमिलनाडू जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट की ही छोटी बेंचों ने निजता को मौलिक अधिकार माना है. 1978 में मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया केस में सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की बेंच ने सम्मान से जीने को संविधान के अनुच्छेद 21 यानी जीवन के मौलिक अधिकार का हिस्सा माना है. इस लिहाज से भी निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत माना जाएगा.
याचिकाकर्ताओं की तरफ से वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम, श्याम दीवान, अरविंद दातार और सोली सोराबजी ने जिरह की है. सुब्रमण्यम ने कहा, "संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 को अगर एक साथ देखा जाए तो नागरिक के मौलिक अधिकारों का दायरा बहुत बड़ा हो जाता है. अगर ये कहा जाए कि निजता कोई अधिकार नहीं है तो ये बेमतलब होगा."
श्याम दीवान की दलील थी, "मेरी आँख और फिंगर प्रिंट मेरी निजी संपत्ति हैं. मुझे इनकी जानकारी किसी को देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. सरकार को भी ये जानकारी लेने का हक नहीं है."
सोली सोराबजी ने कहा, "निजता के अधिकार का ज़िक्र संविधान में नहीं होने से कोई असर नहीं पड़ता. संविधान से लोगों को मिले अधिकारों को देखें तो कोर्ट ये आसानी से कह सकती है कि निजता एक मौलिक अधिकार है. ठीक वैसे ही जैसे प्रेस की आज़ादी का अलग से ज़िक्र नहीं है. लेकिन इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी का हिस्सा माना जाता है."
याचिकाकर्ताओं की तरफ से ये दलील भी दी गई कि एम पी शर्मा और खड़क सिंह केस आपराधिक मामले से जुड़े थे. उनमें पुलिस को हासिल तलाशी और निगरानी के अधिकार पर चर्चा हुई थी. उस आधार पर ही निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं माना गया. बाद में गोविंद बनाम एमपी और मेनका गांधी जैसे केस में आम नागरिक के अधिकारों पर बात हुई. कोर्ट का निष्कर्ष पुराने मामलों से अलग रहा.
याचिकाकर्ताओं ने आधार के लिए जुटाए गए बायोमेट्रिक आंकड़ों की सुरक्षा का भी सवाल उठाया. साथ ही कहा कि आधार एक्ट में आधार बनवाना अनिवार्य नहीं रखा गया है. लेकिन इनकम टैक्स के अलावा तमाम सरकारी योजनाओं के लिए इसे अनिवार्य बनाया जा रहा है. यानी सरकार नागरिक की हर गतिविधि पर नज़र रखना चाहती है. जबकि, राइट टू बी लेफ्ट एलोन यानी एकांत में रहना निजता के अधिकार का एक अनिवार्य हिस्सा है.
सरकार की दलील :- हालांकि, अभी सरकार की विस्तृत दलीलें आनी बाकी हैं. लेकिन अब तक सरकार का कहना है कि निजता एक प्राकृतिक अधिकार है. साथ ही ये एक सामाजिक अवधारणा भी है. इसका सम्मान किया जाना चाहिए. लेकिन इसे मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं दिया जा सकता. अगर ऐसा होता तो संविधान निर्माताओं ने इसे संविधान में जगह दी होती.
सरकार का ये भी कहना है कि अगर निजता को मौलिक अधिकार मान लिया जाए तो व्यवस्था चलाना मुश्किल होगा. लोग लोन लेते समय बैंक को हर ज़रूरी जानकारी देते हैं. लेकिन सरकार को जानकारी देने को दिक्कत भरा बताया जा रहा है. भविष्य में कोई भी निजता का हवाला देकर किसी ज़रूरी सरकारी काम के लिए फिंगर प्रिंट, फोटो या कोई जानकारी देने से मना कर सकता है.
आधार 97 फीसदी से ज़्यादा लोग बनवा चुके हैं. उन्हें सरकार को जानकारी देने में कोई दिक्कत नहीं थी. आधार के चलते सरकारी योजनाओं में होने वाले भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है. राइट टू बी लेफ्ट एलोन की बात हिमालय पर तपस्या करने वाले साधु कर सकते हैं. सामान्य नागरिक सरकार के किसी दखल के बिना जीवन बिता सके, ये नामुमकिन है.
कोर्ट का सवाल :- सुनवाई के दौरान बेंच के सदस्य जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने अहम टिप्पणी की. उन्होंने कहा, "निजता के अधिकार को हर मामले में अलग-अलग देखना होगा. हर सरकारी कार्रवाई को निजता के नाम पर रोका नहीं जा सकता. इस अधिकार के दायरे तय किये जाने चाहिए."
व्हाट्सऐप मामले में सरकार की अलग दलील :-सुप्रीम कोर्ट में व्हाट्सऐप की नई प्राइवेसी पॉलिसी का विरोध करने वाली एक याचिका भी लंबित है. इस याचिका में कहा गया है कि व्हाट्सऐप की तरफ से अपने यूज़र्स की जानकारी फेसबुक से साझा करना निजता के अधिकार का हनन है.
इस मामले केंद्र सरकार ने याचिकाकर्ता की बात का समर्थन किया. एडिशनल सॉलिसिटर जनरल पी एस नरसिम्हा ने दलील दी, "निजी डाटा जीवन के अधिकार का ही एक पहलू है. किसी के निजी डाटा को व्यावसायिक फायदे के लिए शेयर करना गलत है." उन्होंने ये भी कहा कि सरकार नयी डाटा पॉलिसी लाएगी. इसमें निजी डाटा की सुरक्षा के लिए जल्द ही कानूनी प्रावधान होगा.
कानून के जानकार इसे आधार मामले में लिए गए स्टैंड से अलग मान रहे हैं. हालांकि, आधार मामले में भी सरकार लगातार ये दलील देती रही है कि लोगों से ली गई निजी जानकारी सुरक्षित रखी जाएगी.