ABP Ideas of India: कैलाश सत्यार्थी को पिछड़े और कुपोषित बच्चों को लेकर शानदार काम के लिए शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया. वो पिछले कई सालों से लगातार बच्चों के बीच रहकर अपना जीवन बिताते हैं और उनके लिए काम करते हैं. लेकिन उनके नाम से पीछे पहले से सत्यार्थी नहीं लगा था, उन्होंने अपना सरनेम हटाकर अपने नाम के पीछे सत्यार्थी जोड़ दिया. अब इसे लेकर कैलाश सत्यार्थी ने एबीपी न्यूज़ के आइडियाज ऑफ इंडिया समिट 2022 में जवाब दिया है.
ब्राह्मण परिवार में हुआ था जन्म
जब कैलाश सत्यार्थी से पूछा गया कि, आमतौर पर सत्यार्थी सरनेम सुनने को नहीं मिलता है. तो आपके सरनेम छोड़ने के पीछे की वजह क्या थी? इसके जवाब में कैलाश सत्यार्थी ने कहा कि, मैं एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ था. जहां मेरे माता-पिता और भाई छुआछूत मानते थे. ये बात 60 साल पुरानी है, तब और ज्यादा बुरी हालत थी. अब उसका इतना असर नहीं है, लेकिन पहले था. मैं छुआछूत के खिलाफ गांधी जी से प्रभावित हुआ. जब मेरी उम्र 15 साल की थी तो मैंने कुछ नेताओं की बड़ी-बड़ी बातें सुनीं. मेरे मन में आया कि एक भोज रखा जाए, जिसमें महतरानी कहलाने वालीं हमारी दलित माताएं-बहनें खाना पकाएं. मैंने उस भोज में उन सभी नेताओं को बुलाया जो गांधी जी के विचारों पर भाषण देते थे. लेकिन उस भोज में एक भी व्यक्ति नहीं आया. मुझे दुख हुआ और मैं रोने लगा. तभी एक मां ने जिसे लोग अछूत समझते थे उसने मेरे पीठ में हाथ रखकर कहा कि बेटा खाना खा ले, तूने तो वो किया है जो किसी ने सोचा भी नहीं था.
घर में कई साल तक अछूत की तरह काटे दिन
कैलाश सत्यार्थी ने आगे बताया कि, जब मैं घर पहुंचा तो पंडित और रिश्तेदार वहां बैठे थे. मुझे कहा कि हरिद्वार जाना पड़ेगा और मुंडन कराकर 101 ब्राह्मणों को भोज कराया जाए. परिवार को जाति निकाला दे दो. इसके बाद मुझे गुस्सा आ गया और कहा कि मैं ये कुछ नहीं करूंगा. आखिर में ये फैसला हुआ कि इस लड़के को एक अलग कमरा दे दो और ये अछूत की तरह रहेगा. मैं कई सालों तक उस कमरे में रहा, मेरी मां रोती थी जब वो बाहर से उस कमरे में खाना डालती थी. लेकिन मैंने भी कठोरता से अपने दिल को मजबूत किया और सोचा कि मैं ही अपने जीवन से ये जाति, छुआछूत, सांप्रदायिकता निकाल देता हूं. इसकी पहली शुरुआत यही थी कि मैं अपना नाम बदलकर नया उपनाम रख लूं. इसके बाद मैंने अपना नाम सत्यार्थी रख लिया.
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