नई दिल्ली: करमापा अमेरिका से भारत कब लौटेंगे? अब भी बड़ा सवाल बना हुआ है. करीब छह महीने पहले धर्मशाला में करमापा के ऑफिस ने एक पत्र जारी कर कहा कि 17 बरस से करमापा का घर भारत है और वह जल्द ही भारत लौटकर धार्मिक गतिविधियो में शामिल होगें. पर महीनों बाद भी वह नहीं लौटे. इस बीच सवाल फिर उठने लगे हैं कि क्या करमापा अमेरिका से ही चीन चले जायेगें और इसका सौदा उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग और डोनाल्ड ट्रंप की बैठक के बाद जून के पहले हफ्ते में तय हो जायेगा.
दरअसल यह चीन की चाल है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ऐसे वक्त में बातचीत की राह खोली है जब दुनिया को लग रहा है कि कहीं उत्तर कोरिया और अमेरिका तीसरे विश्व युद्द की दिशा में दुनिया को ना ले जाये. वार्ता इसी महीने की आखिरी में या जून के पहले हफ्ते में होनी तय मानी जा रही है. पर सवाल उठने लगे है कि क्या शी जिनपिंग सिर्फ विश्व की भलाई के लिए दोनों देशों के बीच मध्यस्थता कर रहे हैं या इसकी वजह कुछ और है.
दरअसल, कूटनीति की बिसात पर शी जिनपिंग ट्रंप को शह दे रहे हैं, और माओ से ज्यादा महान बनने की चाहत में ऐसा गेम प्लान लेकर आए हैं. जो साकार हुआ तो जिनपिंग का कद बढ़ना तय है. सूत्रों के मुताबिक, जिनपिंग ने ट्रंप से दो टूक कहा कि मध्यस्थता की कीमत बौद्ध धर्मगुरुओं करमापा और दलाईलामा को चीन या तिब्बत भेजना है.
करमापा का ब्रेन वाश
करपामा अभी अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में हैं और एक चीनी दंपत्ति के सैकड़ों एकड़ में फैले फॉर्महाउस में रह रहे हैं. सूत्रों के मुताबिक अमेरिका ने करमापा का ब्रेन वाश शुरु कर दिया है. नतीजा यह हुआ की भारत ने जब करमापा से डोकलाम मुद्दे पर चीन के खिलाफ बयान देने को कहा तो उसने मना कर दिया. उल्टा भारत में तिब्बत की निर्वासित सरकार के खिलाफ ही बयान दे दिया. करमापा बौद्धों का मोनलाम त्योहार मनाने भारत नहीं आये बल्कि 4 से 6 जून तक वो इस त्योहार को अमेरिका में मनायेगें.
करमापा को समझाया गया है कि 2011 में धर्मशाला में चीनी मुद्रा मिलने के मामले में वो भारत में फंस सकते हैं. इतना ही नहीं, चीन का साथ देने पर तिब्बत में उसकी सत्ता नए सिरे से परवान चढ़ सकती है. हालांकि, करमापा के दिल्ली के दफ्तर में उनके सचिव का कहना है कि वो जून में भारत लौटेंगे, लेकिन उनके आधिकारिक कार्यक्रम में इसका जिक्र नहीं है. लेकिन मसला सिर्फ करमापा का नहीं है. दलाईलामा का भी है. सूत्रों का कहना है कि दलाई लामा को भी समझ आ रहा है कि भारत का तिब्बत को लेकर रुख अब पहले सरीखा नहीं रहा.
दलाई लामा और पीएम के बीच नहीं हुई मुलाकात
सूत्रों के मुताबिक यही वजह है कि बीते चार साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दलाई लामा से एक भी मुलाकात नहीं की. सीमा पर चीन का खतरा इतना बड़ा है कि भारत दलाईलामा के मुद्दे पर चीन को नाराज नहीं करना चाहता. अमेरिका विश्व शांति के मद्देनजर भारत पर दबाव डाल रहा है कि वो दलाई लामा को उनके हाल पर छोड़ दे और कोशिश करे कि वो तिब्बत चले जाएं. फिर करमापा अगर तिब्बत चला गया तो दलाईलामा पर तिब्बत जाने का दबाव बढ़ेगा. क्योंकि सवाल शिष्यों के बीच गुरु की मौजूदगी का होगा. बदलते हालात को दलाईलामा भी समझ रहे हैं. इसलिये पिछले हफ्ते पहली बार दलाईलामा ने चीन के पंचेनलामा को मान्यता दे दी. बीजिंग के पास ताईसान नाम के शहर में जाने की तैयारी में हैं.
जबकि पहले बीजिंग के पास फटकना भी उन्हें गंवारा नहीं था या कहें डर था कि चीनी सरकार उन्हें पकड़ न ले. तो क्या अमेरिका-चीन के दबाव में भारत ने दलाईलामा को भी समझा दिया है कि वक्त बदल चुका है. फिर शी जिनपिंग ने जिस तरह माओ की तर्ज पर खुद को चाइना कम्यूनिस्ट पार्टी का आजीवन सर्वेसर्वा घोषित किया है. उसके बाद उनकी इच्छा खुद को माओ से ज्यादा महान बताने की ही है. और इसके लिए जरुरी है कि तिब्बत और चीन या तो एक हो जाएं या दलाईलामा और करमापा खुद को चीन के अधीन मान लें.