नई दिल्ली: व्यभिचार यानी शादी के बाहर के शारीरिक संबंधों पर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से व्यभिचार की धारा को खत्म कर दिया. बेंस की सदस्य जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा, "मैं धारा 497 को खारिज करती हूं.'' सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये कानून 157 साल पुराना है, हम टाइम मशीन लगाकार पीछे नहीं जा सकते. हो सकता है जिस वक्त ये कानून बना हो इसकी अहमियत रही हो लेकिन अब वक्त बदल चुका है, किसी सिर्फ नया साथी चुनने के लिए जेल नहीं भेजा सकता.


जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस खानविलकर ने अपना फैसला पढ़ते हुए कहा कि व्यभिचार अपराध नहीं हो सकता. कोर्ट ने कहा कि चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के कई देशों में व्यभिचार अब अपराध नहीं है. कोर्ट ने यह भी कहा कि धारा 497 मनमाने अधिकार देती है.


फैसला पढ़ते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ''पति पत्नी का मालिक नहीं है, महिला की गरिमा सबसे ऊपर है. महिला के सम्मान के खिलाफ आचरण गलत है. पत्नी 24 घंटे पति और बच्चों की ज़रूरत का ख्याल रखती है.'' कोर्ट ने कहा कि यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमयन्ते तत्र देवता, यानी जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं.


कोर्ट ने यह भी कहा, ''सेक्शन 497 पुरुष को मनमाना अधिकार देने वाला है. ये अनुच्छेद 21 (गरिमा से जीवन का अधिकार) के खिलाफ है. घरेलू हिंसा कानून से स्त्रियों को मदद मिली लेकिन धारा 497 भी क्रूरता है.'' कोर्ट ने कहा, ''व्यभिचार को अपराध बनाए रखने से उन पर भी असर जो वैवाहिक जीवन से नाखुश हैं, जिन का रिश्ता टूटी हुई सी स्थिति में है. हम टाइम मशीन में बैठकर पूराने दौर में नहीं जी सकते.''


बेंच के सदस्य जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने कहा, ''समानता का अधिकार सबसे अहम है. कानून महिला से भेदभाव नहीं कर सकता. ये ज़रूरी नहीं कि हमेशा पुरुष ऐसे रिश्तों की तरफ महिला को खींचे, समय बदल चुका है.'' कोर्ट ने कहा, ''व्यभिचार अपने आप में अपराध नहीं है. अगर इसके चलते आत्महत्या जैसी स्थिति बने या कोई और जुर्म हो तो इसे संशोधन की तरह देखा जा सकता है.''


क्या है मामला?
केरल के जोसफ शाइन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर IPC 497 को संविधान के लिहाज से गलत बताया था. याचिकाकर्ता के मुताबिक व्यभिचार के लिए 5 साल तक की सज़ा देने वाला ये कानून समानता के मौलिक अधिकार का हनन करता है. याचिका में कहा गया कि इस कानून के तहत विवाहित महिला से संबंध बनाने वाले मर्द पर मुकदमा चलता है. औरत पर न मुकदमा चलता है, न उसे सजा मिलती है.


इसके साथ ही ये कानून पति को पत्नी से संबंध बनाने वाले पुरुष के खिलाफ मुकदमा करने का अधिकार देता है. लेकिन अगर पति किसी पराई महिला से संबंध बनाए तो पत्नी को शिकायत का अधिकार ये कानून नहीं देता


याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि ये धारा कहती है कि पति की इजाज़त के बिना उसकी पत्नी से किसी गैर मर्द का संबंध बनाना अपराध है. ये एक तरह से पत्नी को पति की संपत्ति करार देने जैसा है.


जस्टिस चंद्रचूर्ण ने कहा, ''497 महिला की गरिमा के खिलाफ है. महिला खुद पति के खिलाफ शिकायत नहीं कर सकती. उसका दर्जा पति की संपत्ति जैसा होता है. Good wife की अवधारणा में कमी है. ये औरत के व्यक्तिगत निर्णय को प्रभावित करती है.''


सरकार ने याचिका का विरोध किया था
सुनवाई के दौरान सरकार ने कोर्ट से इस याचिका को खारिज करने की मांग की थी. सरकार ने कहा था कि विवाह जैसी संस्था को बचाने के लिए ये धारा ज़रूरी है. सरकार ने बताया है कि IPC 497 में ज़रूरी बदलाव पर वो खुद विचार कर रही है. फिलहाल, मामला लॉ कमीशन के पास है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट इस मामले में दखल न दे.


सुनवाई के दौरान उठा था सवाल- सिर्फ पुरुष को सजा क्यों?
चीफ जस्टिस ने सुनवाई के दौरान कहा था, "भारत में विवाह को एक पवित्र बंधन माना जाता है. भारत में इस पवित्र बंधन के खिलाफ जाने वाले के लिए दंड का प्रावधान समाज को सामान्य लगता है. लेकिन हमें देखना होगा कि अगर महिला और पुरुष दोनों ने मिलकर कुछ किया हो, तो सिर्फ पुरुष को सज़ा देना क्या सही है."


सुनवाई के दौरान जज ने कहा- औरत संपत्ति नहीं
बेंच की सदस्य जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा था, "ये कानून पति की इजाज़त से गैर मर्द से शारीरिक संबंध बनाने की इजाज़त देता है. ऐसे मामलों में मुकदमा नहीं बनता. ऐसा लगता है जैसे पत्नी को पति की संपत्ति की तरह देखा जा रहा है."


पत्नी को शिकायत का अधिकार नहीं
बेंच के सदस्य जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा था, "अगर शादीशुदा पुरूष किसी अविवाहित लड़की से संबंध बनाए तो क्या होगा? इससे भी तो शादी का पवित्र बंधन प्रभावित होता है. लेकिन कानून पत्नी को इजाज़त नहीं देता कि वो पति के खिलाफ मुकदमा कर सके. और अविवाहित लड़की का पति नहीं होता जो शिकायत दर्ज करे. यानी पुरुष मुकदमे से बच जाएगा.


सिविल केस की तरह देखा जाए
सुनवाई के दौरान पूरी धारा को रद्द करने की मांग की गई थी. कहा गया कि ऐसे संबंध कानूनन तलाक का आधार होते हैं. इसे सिविल मामले की तरह ही देखा जाना चाहिए. इसे अपराध की तरह देखना और किसी को जेल भेजना गैरज़रूरी है.