Afghanistan Crisis: अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबानी सरकार की आमद में अब कुछ ही वक्त बचा है. लेकिन बंदूकों के ज़ोर पर सत्ता का सफर तय करने वाला तालिबान अब कूटनीतिक बोली का भी सहारा ले रहा है. खासतौर पर भारत जैसे अहम पड़ोसी मुल्क को साधने के लिए.


भारत ने भले ही तालिबानी निज़ाम को लेकर अपने भावी रुख पर पत्ते साफ न किए हैं, लेकिन तालिबान के सियासी रणनीतिकार भारत से दोस्ती का संदेश देने का मौका नहीं चूकना चाहते. यही वजह है कि तालिबान की राजनीतिक टीम में मुल्ला बिरादर के बाद सबसे अहम हैसियत रखने वाले शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकज़ई ने भारत के साथ बेहतर संबंधों पर सार्वजनिक बयान देने के साथ साथ पर्दे के पीछे कूटनीतिक कवायदें भी शुरू कर दी हैं. हालांकि अभी तालिबान की तरफ से आए बयानों और संदेशों को लेकर भारत सरकार ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं.


दरअसल, दोबारा काबुल की सत्ता में आने जा रहे तालिबानी पिछली गलतियों से बचना चाहते हैं जिन्होंने उन्हें अलग-थलग कर दिया था. वहीं कंधार विमान अपहरण जैसे हादसे के कारण भारत से भी उनके रिश्ते खराब ही थे. मगर, अबकी बार तालिबानी नेतृत्व अपने को बदली तस्वीर में पेश करना चाहता है. साथ ही अपने कूटनीतिक विकल्पों का दायरा भी बड़ा रखना चाहता है. जिसमें भारत एक अहम किरदार साबित होगा. यानी सीधे शब्दों में कहें तो ऐसे बहुत से कारण हैं जिसकी वजह से तालिबानी निज़ाम को भारत की ज़रूरत है.


जानकारों के मुताबिक भारत से बेहतर संबंध तालीबान के छवि सुधार उपायों में खासे अहम साबित हो सकते हैं. वहीं चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों की उन्हें कठपुतली बनाने की कोशिशों से बचने का रास्ता भी देते हैं. इसके अलावा भारतीय निवेश और लाइन ऑफ क्रेडिट और निवेश की व्यवस्थाएं तालिबानी सरकार की आर्थिक तंगी दूर करने में भी मदद मिलेगी.


ऐसे में बीते बीस सालों के दौरान अफगानिस्तान के साथ भारतीय व्यापार, कारोबार और निवेश के रास्तों को पूरी तरह बंद करना गंभीर आर्थिक संकट से गुज़र रहे अफगानिस्तान तथा उसपर राज करने में जुटे तालिबान की तकलीफें ही बढ़ाएगा. दरअसल, भारत अपने बाजारों में करीब 1 अरब डॉलर के अफ़ग़ान उत्पादों को शुल्क मुक्त आवक का अधिकार देता है. इसके अलावा 2017 से शुरू हुई एयर फ्रेट कॉरिडोर व्यवस्था ने 1000 उड़ानों के माध्यम से 21.6 करोड़ डॉलर मूल्य के अफ़ग़ान उत्पादों को भारत में पहुंचाया है. जिसका लाभ आम अफ़ग़ान किसानों और उत्पादकों को होता है. 


इतना ही नहीं ईरान के चाबहार बंदरगाह से भी भारत अपने दोस्त अफगानिस्तान को मदद पहुंचाता आया है. विदेश मंत्रालय के मुताबिक 2018 में चाबहार के चालू हो जाने के बाद से भारत अब तक 1 लाख टन से ज़्यादा गेहूं और 2000 टन दाल मदद के तौर पर अफगानिस्तान तक पहुंचा चुका है. भारत के साथ दूरी का मतलब है कि अफगानिस्तान को दोनों देशों के बीच हुए 3.36 करोड़ डॉलर के कारोबारी समझौतों को भी भूलना पड़ेगा. साथ ही 2.33 करोड़ के व्यापार अनुबंधों के लिए हो रही बातचीत को भी भूलना होगा.


आर्थिक किल्लत से जूझ रहे अफगानिस्तान के किसी भी नए शासक के लिए तकलीफें बढ़ेंगी अगर भारत की मदद से चल रही 8 करोड़ डॉलर की परियोजनाएं अटक जाती हैं तो. क्योंकि अफगान अवाम की बेहतरी के लिए चलाई जा रही इन ढांचागत निर्माण और क्षमता विस्तार परियोजनाओं के रुकने से नुकसान अफगानिस्तान का ही ज़्यादा है.


इसके अलावा भारत के इसरो द्वारा छोड़ा गया दक्षिण एशिया उपग्रह अफगानिस्तान को संचार कनेक्टिविटी में मदद कर रहा है. साथ ही टीवी अपलिंकिंग और डाउनलिंकिंग सुविधा देने वाला काबुल का उपग्रह केंद्र भी भारतीय इसरो की मदद से ही काम करता है. ऐसे में तलीबान अगर संबंधों का रुख मोड़ता है तो भारत के पास इन सुविधाओं को बंद करने का अधिकार होगा. 


भारत अफगानिस्तान संबंधों के जानकारों का कहना है कि तालिबान चीन से तमाम सुविधाओं के लिए मदद जरूर ले सकता है. लेकिन इन तकनीकी व्यवस्थाओं को खड़ा करने में वक्त लगेगा. साथ ही चीनी सिस्टम पर काम करने वाले पेशेवर भी जुटाने होंगे. ऐसे में तालिबानी सरकार के लिए पुराने सिस्टम को छोड़ नए सिस्टम की तरफ जाना आसान नहीं होगा. लिहाज़ा तालिबान भी यह अच्छे से जानते हैं कि भारत का साथ आना उनके लिए कई मोर्चों पर मदद का सौदा साबित हो सकता है.


हालांकि बड़ा सवाल इस बात का है कि तालिबान भारत के साथ रिश्तों को साधने के लिए आतंकी सरगनाओं और पाकिस्तान में बैठे आकाओं से कितनी दूरी बना पाते हैं. क्योंकि भारत के लिए सुरक्षा की गारंटी के बिना कारोबार और सहायता परियोजनाओं को जारी रखना बेहद मुश्किल होगा. 



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