दो दशक से सभी पार्टियां राज ठाकरे को इस्तेमाल करती आई हैं?
2014 के लोकसभा चुनाव में राज ठाकरे का झुकाव बीजेपी की तरफ हुआ. 2019 में उन्होंने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा लेकिन बीजेपी के खिलाफ रैलियां की. साल 2019 के विधानसभा चुनाव के नतीजे भी राज ठाकरे की पार्टी के लिए निराशाजनक रहे.
मुंबई: राज ठाकरे महाराष्ट्र की राजनीति के वो शख्स हैं जिन्हें राज्य की हर पार्टी ने बीते दो दशकों में अपने फायदे के लिये इस्तेमाल किया है. खुद की सियासी जमीन मजबूत करने के लिये दूसरी पार्टियों ने तो ठाकरे को हवा दी लेकिन खुद ठाकरे की अपनी पार्टी का कुछ भला न हो सका. वक्त के साथ लगातार उनकी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) का प्रदर्शन कमजोर होता गया. मुंबई में रविवार को राज ठाकरे ने जो सीएए के समर्थन मोर्चा निकाला उसे बीजेपी के साथ गठजोड़ करने की खातिर जमीन तैयार करने की कोशिश माना जा रहा है.
2006 में शिवसेना को छोडकर राज ठाकरे ने जब एमएनएस का गठन किया तो उसने मराठीवाद का मुद्दा अपनाया. ठाकरे का मराठीवाद मतलब परप्रतियों का विरोध था जिसके तहत उत्तरभारतियों को निशाना बनाया गया. मराठी का मुद्दा सबसे पहले शिवसेना ने 60 के दशक में उठाया था लेकिन 1987 में उसने हिंदुत्व के मुद्दे को अपना लिया और मराठी के मुद्दे पर नरम पड़ गई. अपनी नई पार्टी के जरिये राज ठाकरे ने उस जगह को भरने की कोशिश की.
उधर कांग्रेस को राज ठाकरे की शक्ल में विपक्ष को कमजोर करने का एक मौका नजर आया. ऐसे में कांग्रेस ने अपनी 50 साल पुरानी रणनीति फिर एक बार अपनाई. 60 के दशक में वामपंथी पार्टियों को मुंबई में कमजोर करने के लिये कांग्रेस ने शिवसेना को अप्रत्यक्ष समर्थन देना शुरू किया था. ये बात ज्यादा छुपी नहीं रह सकी थी और लोग मजाक में शिवसेना को वसंत सेना भी कहते थे क्योंकि उस वक्त महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री कांग्रेस से वसंतदादा पाटिल थे.
ये कहा जाता है कि वामपंथियों को धाराशायी करने के लिये उन्होनें शिवसेना की ओर से चलाई जाने वाली हिंसक मुहीमों के प्रति नरमी बरती थी. वसंतदादा की तरह ही साल 2008 में तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री विलासरावदेशमुख ने भी एमएनएस के प्रति नरम रवैया अपनाया. मुंबई, ठाणे, पुणे, नासिक जैसे शहरों में राज ठाकरे के भड़काऊ भाषणों के बाद एमएनएस कार्यकर्ताओं ने उत्तरभारतियों के खिलाफ जमकर हिंसा की. उनके घर तोड़े गये, वाहन जलाये गये और उनकी पिटाई की गई.
कांग्रेस का अनुमान था कि अगर एमएनएस एक मराठीभाषियों की पार्टी के तौर पर स्थापित हो जाती है तो अब तक मराठी वोटों के बूते जीतती आई शिवसेना के वोट बैंक में सेंध लगेगी. 2009 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा हुआ भी. शिवसेना-बीजेपी के वोट बंटने की वजह से कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन फिर एक बार सत्ता में आ गया. एमएनएस, जिसने की पहली बार चुनाव लड़ा उसे 13 सीटें मिलीं. कई सीटों पर शिवसेना उम्मीदवारों की हार एमएनएस उम्मीदवार की ओर से वोट काटने की वजह से हुई. साल 2012 में नासिक महानगरपालिका पर भी एमएनएस का कब्जा हो गया. लोग कहने लगे कि शिवसेना अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है.
2014 के लोकसभा चुनाव में राज ठाकरे का झुकाव बीजेपी की तरफ हो गया. उन्होंने ऐलान किया कि जिन सीटों पर बीजेपी ने उम्मीदवार उतारे हैं वहां वे अपने उम्मीदवार नहीं उतारेंगे लेकिन शिवसेना वाली सीटों पर उनके उम्मीदवार चुनाव लड़ेंगे. राज ठाकरे के साथ बीजेपी की ये करीबी देखकर कहा जाने लगा कि उनकी पार्टी उसी साल होने जा रहे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिये बीजेपी से गठबंधन कर लेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं. चुनाव नतीजे आने पर 13 सीटों वाली एमएनएस मात्र एक सीट पर सिमट कर रह गई. 2017 में नासिक महानगरपालिका भी राज ठाकरे के हाथ से निकल गई.
2019 का लोकसभा चुनाव राज ठाकरे ने नहीं लड़ा लेकिन उन्होने महाराष्ट्र भर में घूमघूमकर बीजेपी के खिलाफ रैलियां कीं. उनके मंच पर से वीडियो दिखाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथनी और करनी में अंतर बताया जाता था. माना जाता है कि राज ठाकरे ये रैलियां एनसीपी-कांग्रेस को फायदा पहुंचाने के लिये कर रहे थे. रैलियों में बड़े पैमाने पर कांग्रेस और एनसीपी के कार्यकर्ता भी शामिल होते थे.
देवेंद्र फडणवीस ने उन्हें बारामती का पोपट कहते हुए शरद पवार की लिखी स्क्रिप्ट पढ़ने का आरोप लगया. ये उम्मीद की जा रही थी कि चंद महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में राज ठाकरे, कांग्रेस और एनसीपी से गठबंधन कर लेंगे. राज ठाकरे की रैलियों का कोई फायदा एनसीपी-कांग्रेस को नहीं मिला और महाराष्ट्र में ये गठबंधन 48 लोकसभा सीटों में से सिर्फ छह सीटें ही हासिल कर सका. कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के वक्त इस आधार पर राज ठाकरे को गठबंधन में लेने से इंकार कर दिया कि वे नफरत की सियासत करते हैं.
2019 के विधानसभा चुनाव भी राज ठाकरे के लिये निराशाजनक खबर लाए. इस बार भी एमएनएस सिर्फ एक ही सीट जीत पाई. अब माना जाने लगा कि ठाकरे की पार्टी अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रही है लेकिन इस बीच महाराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर जो घटनाक्रम हुआ, उसने राज ठाकरे के लिये उम्मीद की किरण पैदा कर दी. चूंकि उद्धव ठाकरे को विपरीत विचारधाराओं वाली पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिये हिंदुत्व के मुद्दे पर नरमी अपनानी पड़ी, राज ठाकरे ने मौके का फायदा उठाने की सोची.
शिवसेना के अलग हो जाने के बाद बीजेपी भी महाराष्ट्र में एक क्षेत्रीय पार्टनर की तलाश में थी. ऐसे में हिंदुत्व का चोला पहन कर अब राज ठाकरे बीजेपी के करीब जाने का संकेत दे रहे हैं. रविवार को मरीन ड्राईव से आजाद मैदान तक निकाले गये सीएए के समर्थन में मोर्चे को उसी दिशा में पहला कदम माना जा रहा है.
राज ठाकरे की भाषण कला और उनकी भीड़ जुटाने की क्षमता उन्हें हमेशा खबरों में रखती है. उनका ये हुनर बाकी पार्टियों को भी उनके इस्तेमाल का मौका देता है. ये अलग बात है कि ऱाज ठाकरे की अपनी पार्टी को उनके इस हुनर का फायदा नहीं मिल सका. सियासी गलियारों में यही कहा जाता है कि वे भीड़ जुटाते हैं, वोट नहीं. आनेवाले वक्त में ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या बीजेपी-एमएनएस के साथ गठबंधन करती है और उससे क्या एमएनएस को कोई फायदा मिलता है?