नई दिल्ली: जलीकट्टू तमिलनाडु में एक बहुत पुरानी परंपरा है. जलीकट्टू तमिलनाडु में 15 जनवरी को नई फसल के लिए मनाए जाने वाले त्योहार पोंगल का हिस्सा है. जलीकट्टू त्योहार से पहले गांव के लोग अपने अपने बैलों की प्रैक्टिस करवाते हैं. जहां मिट्टी के ढेर पर बैल अपनी सींगो को रगड़ कर जलीकट्टू की तैयारी करता है. बैल को खूंटे से बांधकर उसे उकसाने की प्रैक्टिस करवाई जाती है, ताकि उसे गुस्सा आए और वो अपनी सींगो से वार करे.
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गांव की शान होते हैं बूढ़े बैल
खेल के शुरु होते ही पहले एक एक करके तीन बैलों को छोड़ा जाता है. ये गांव के सबसे बूढ़े बैल होते हैं. इन बैलों को कोई नहीं पकड़ता, ये बैल गांव की शान होते हैं और उसके बाद शुरु होता है जलीकट्टू का असली खेल. मुदरै में होने वाला ये खेल तीन दिन तक चलता है.
सांड को चंद सेकेंड रोकने वाला बन जाता है सिकंदर
तमिलनाडु के मदुरै में जलीकट्टू के खेल का मेला लगता है, जहां 300 से 400 किलो के बैलों को इंसानों द्वारा चुनौती दी जाती है. रिवाज कुछ ऐसा है कि बैलों के सीगों पर लगे नोट उतारने के लिए लोग जान की परवाह भी नहीं करते. खेल में हिस्सा लेने वाले लोग बैल का इंतजार करते हैं और जो फुर्ती और मुस्तैदी दिखाकर सांड को चंद सेकेंड भी रोकने में कामयाब होता है वो बन जाता है सिकंदर.
400 साल पुरानी परंपरा है जलीकट्टू
तमिलनाडु में जलीकट्टू 400 साल पुरानी परंपरा है. जो योद्धाओं के बीच लोकप्रिय थी. प्राचीन काल में महिलाएं अपने पति को चुनने के लिए जलीकट्टू खेल का सहारा लेती थीं. जलीकट्टू खेल का आयोजन स्वंयवर की तरह होता था जो कोई भी योद्धा बैल पर काबू पाने में कामयाब होता था महिलाएं उसे अपने पति के रूप में चुनती थीं.जलीकट्टू खेल का ये नाम 'सल्ली कासू' से बना है. सल्ली का मतलब सिक्का और कासू का मतलब सींगों में बंधा हुआ.
स्पेन की बुलफाइटिंग जैसा होता है जलीकट्टू
जलीकट्टू के इस खेल की तुलना कई बार स्पेन की बुलफाइटिंग से भी की जाती है लेकिन ये खेल स्पेन के खेल से काफी अलग है इसमें बैलों को मारा नहीं जाता और ना ही बैल को काबू करने वाले युवक किसी तरह के हथियार का इस्तेमाल करते हैं.