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भीमा कोरेगांव हिंसा: आज की नहीं 200 साल पुरानी है जातीय संघर्ष की ये लड़ाई
पेशवा के पास 28000 सैनिक थे और महारों की सेना में सिर्फ 500 सैनिक थे. इसके बाद भीमा नदी के पास भीषण युद्ध हुआ और बहादुर माहरों ने पेशवा की भारी भरकम सेना को धूल चटा दी.
नई दिल्ली: महाराष्ट्र में पुणे के भीमा कोरेगांव में भड़की हिंसा के तार 200 साल पहले से जुड़े हुए हैं. पेशवा, दलित और अंग्रेज और इस की कहानी के तीन किरदार हैं. ये कहानी एक जनवरी साल 1818 को पेशवा बाजीराव द्वितीय से शुरू हुई थी.
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दरअसल महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में अछूत माने जाने वाले महार जाति के लोग ब्राह्मण पेशवाओं के अत्याचार से परेशान थे. इसी बीच अंग्रेंजों ने हिंदुस्तान में अपनी हुकूमत बढ़ाने की हसरत पाल रखी थी, महाराष्ट्र में उनका मुकाबला मराठाओं से था, जिसके पंत प्रधान या प्रधानमंत्री पेशवा हुआ करते थे.
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अंग्रेजों ने माहरों की दुखती रग पर हाथ रखा और तमाम अधिकारों से वंचित महारों को अधिकार दिलाने के सेना में शामिल होने का न्योता दिया. इस बात का जिक्र डॉक्टर भीम राव आंबेडकर vs ‘राइटिंग एंड स्पीचेज’ के 12वें खंड में किया है.
किताब में लिखा गया है कि अंग्रेजों ने 111 माहर्स बटालियन बनाई, जिसमें महार जाति के लोग शामिल थे. कद-काठी में मजबूत महारों ने सालों के चले आ रहे पेशवाओं के अत्याचार को खत्म करने के लिए कमर कस ली थी. अंग्रेजों के भी हाथ मजबूत हो गए और वो पेशवा पर हमले के लिए तैयार हो गए.
एक जनवरी 1818 को अंग्रेजों के महार सैनिकों ने बाजीराव पेशवा द्वितीय पर हमला बोल दिया. उस वक्त पेशवा के पास 28000 सैनिक थे और महारों की सेना में सिर्फ 500 सैनिक थे. इसके बाद भीमा नदी के पास भीषण युद्ध हुआ और बहादुर माहरों ने पेशवा की भारी भरकम सेना को धूल चटा दी और मराठा साम्राज्य को मिट्टी में मिला दिया.
उस दिन अछूत दलित माने जाने वाले महारों के शौर्य और साहस दुनिया ने देखा. लड़ाई में कुछ महार सैनिक में शहीद हुए जिनकी याद में पुणे के परने गांव में ‘जय स्तंभ’ बनाया गया. साल 1937 में डॉ भीम राम आंबेडकर भी वहां गए थे, जिसके बाद से हर साल एक जनवरी को वहां दलित समाज के लोग शौर्य दिवस मनाते हैं. इस साल भी शौर्य दिवस मनाय जा रहा और वहां हिंसा हो गई.
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