Allama Iqbal's Birthday: 'जिन्हें काफिर मुसलमान, और मुसलमान काफिर समझता है'
शुरुआती दिनों में जब वह गजल लिखते थे तो उसे दुरुस्त करवाने के लिए डाक से मशहूर शायर दाग देहलवी के पास भेजते थे. धीरे-धीरे उनकी शायरी में धार आती गई. वह वतन परस्ती को मजहब परस्ती से उपर रखते थे.
अल्लामा इकबाल एक ऐसे शायर हैं जिन्हें किसी एक खांचे में बांध कर रख पाना बहुत मुश्किल है. उनकी शायरी किसी नई सुबह की पहली किरण जैसी है. उन्होंने नज़्म की शक्ल में उर्दू शायरी को एक बेमिसाल रचना दी है. उर्दू भाषा में उनके लिखे शेर ने उर्दू साहित्य को एक नया आयाम दिया. इकबाल का जन्म 9 नवम्बर 1877 को आज के पाकिस्तान में पंजाब प्रांत के सियालकोट में हुआ. इकबाल मूलतः कश्मीर के रहने वाले थे. उनके पुरखों ने उनके जन्म से तीन सदी पहले इस्लाम स्वीकार कर लिया था. 19 वीं शताब्दी में कश्मीर पर सिक्खों का राज था तब उनका परिवार पंजाब आ गया. उनके पिता शेख नूर मोहम्मद सियालकोट में दर्जी का काम करते थे. महज चार साल की उम्र में उनका दाखिला मदरसे में करवा दिया गया. तालीम का यह सिलसिला लम्बा चला. इकबाल ने कानून, दर्शन,फारसी और अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई की.
शुरुआती दिनों में जब वह गजल लिखते थे तो उसे दुरुस्त करवाने के लिए डाक से मशहूर शायर दाग देहलवी के पास भेजते थे. धीरे-धीरे उनकी शायरी में धार आती गई. शुरुआत से ही वह मजहबी और ढोंगी बातों के विरोधी थे. वह वतन परस्ती को मजहब परस्ती से ऊपर रखते थे. वह अपनी शायरी की वजह से वह सारी जिंदगी हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे. इस को लेकर उन्होंने खुद लिखा है
जाहिद-ए-तंग नजर ने मुझे काफिर जाना और काफिर ये समझता है मुसलमान हूं मैं
हालांकि वो हमेशा से मानते रहे कि हिन्दू और मुसलमान सांस्कृतिक तौर पर बहुत अलग हैं. अलग मुस्लिम राज्य की मांग के पीछे यही सबसे मजबूत तर्क था. लेकिन वो राम को ‘इमामे-ए-हिन्द’ भी बताते हैं.
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़ अहल-ए-नज़र समझते हैं उस को इमाम-ए-हिंद
1905 में जब इकबाल पढ़ने के लिए यूरोप गए तब उनकी सोच में कुछ बदलाव आने लगा. उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से बीए और जर्मनी की लुडविग मैक्सिमिलन यूनिवर्सिटी से दर्शन में डॉक्टरेट किया. इंग्लैंड में उन्हें फिर प्रोफ़ेसर अर्नाल्ड का साथ मिला. वहां उन्हें लगा कि साम्राज्यवाद के हितों को साधने के लिए ‘राष्ट्रवाद’ का चोला पहना दिया जाता है. और जहां ‘तराना-ए-हिंद’ में वे हिंदुस्तान को सारे जहां से अच्छा बताते हैं, ‘तराना-ऐ-मिल्ली’ में उन्होंने लिखा-
चीन-औ-अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा, मुस्लिम हैं हम वतन हैं, सारा जहां हमारा
यहां से इकबाल की सोच में एक अलग राह दिखने लगी. इलाहाबाद में 29 दिसंबर, 1930 के दिन इकबाल ने मुस्लिम लीग के अध्यक्ष के तौर पर भाषण दिया तो 'द्विराष्ट्र सिद्धांत’ सुझाया. उनके इस भाषण से लग रहा था कि जैसे एक वतन परस्त शायर पर कौमी रंग चढ़ गया हो. उन्होंने उस दिन अपने भाषण में कहा,''न हमारे ख़यालात एक हैं, न रिवाज़, तारीख में दर्ज जो लोग हमारे आदर्श हैं वो हिंदुओं के नहीं और जो उनके हैं, वो हमारे नहीं.’ कुछ ऐसी ही बात हिंदू संगठन भी कह रहे थे. सबको अपना-अपना हिस्सा चाहिए था.
ग़ालिब और इकबाल एक-दूसरे से बिलकुल जुदा
अल्लामा इकबाल की पैदाइश ग़ालिब के इंतेकाल के कोई आठ साल बाद हुई. 'मिर्जा गालिब' और 'अल्लामा इकबाल' दो ऐसे नाम जिनके बिना उर्दू साहित्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती. अगर उर्दू साहित्य को देखे तो मीर के बाद इन दोनों का ही नाम आता है. उर्दू-फारसी में लिखने वाले इन दोनों शायरों का अंदाज एक दूसरे से बिलकुल जुदा था. दोनों के जुदा अंदाज का एक उदाहरण देखिए.
मिर्ज़ा ग़ालिब
उड़ने दे इन परिंदों को आजाद फिजा में ए ग़ालिब, जो तेरे अपने होंगे वो लौट आएंगे किसी रोज़
अल्लामा इकबाल
ना कर ऐतबार इन परिंदों पर ए इकबाल जब 'पर' निकल आते हैं तो अपने भी आशियाना भूल जाते हैं
अल्लामा इकबाल की शायरी के जितने कदरदान हैं उतने ही लोग उनकी द्विराष्ट्र सिद्धांत को लेकर आलोचना भी करते हैं. पकिस्तान की पाठ्य पुस्तकों में उनके इलाहाबाद में दिए गए भाषण को ‘आइडिया ऑफ़ पाकिस्तान’ के रूप में पढ़ाया जाता रहा है. लेकिन कई लोगों का कहना है कि उनके उस भाषण को सावधानी से पढ़ने पर समझ में आता है कि उन्होंने मुल्क के भीतर ही एक खुदमुख्तार मुस्लिम राज्य की मांग रखी थी. ये अलग मुल्क की मांग से कई मायनों में अलग है. इकबाल मुस्लिमों के लिए अलग राज्य की मांग करते रहे लेकिन खुद बंटवारे के गवाह नहीं बने और 21 अप्रैल 1938 को लाहौर में आखिरी सांस ली.