132nd Birth Anniversary Of B R Ambedkar: आसान नहीं होता एक ऐसे तबके से आकर दुनिया के फलक पर छा जाना जो शोषण और दमन का शिकार रहा हो, लेकिन बाबा साहेब आंबेडकर तो किसी और ही मिट्टी के बने थे. खुद के शोषण का अंधेरा उन्होंने अपनी इल्म की रोशनी से मिटा डाला.


यही वजह है कि आज देश में उनके जन्म के अवसर 14 अप्रैल को आंबेडकर जयंती के तौर पर मनाया जाता है. इस साल भी उनकी 132वीं जयंती पूरे देश में मनाई जाएगी.


उनकी जिंदगी ऐसे लोगों के लिए मिसाल है जो जिंदगी की मुश्किलों के आगे घुटने टेक देते हैं. तो चलिए हम उन्हीं बाबा साहेब की जिंदगी के सफर पर आपको ले चलते हैं, जिन्होंने भारत के संविधान को बनाने में अहम भूमिका निभाई है. एक ऐसा गणतंत्र बनाने में सहयोग किया जिसमें गण को ही तंत्र चलाने की शक्ति दी गई है.


भेदभाव सहा,लेकिन टूटे नहीं हौसलें


जब भारत गुलामी के बेड़ियों में जकड़ा हुआ था. तब मध्य भारत यानी अब के मध्य प्रदेश महू नगर सैन्य छावनी में रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई के घर 14 अप्रैल 1891 एक बच्चे ने जन्म लिया. तब शायद इस दंपत्ति को भी नहीं पता होगा कि 14 वीं संतान के रूप में जन्मा ये बच्चा पूरी दुनिया में उनका नाम रोशन करेगा. उनका कुनबा कबीर पंथ को मानने वाला मराठी मूल का था.


ये कुनबा मूल रूप से वर्तमान महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में आंबडवे गांव के रहने वाले और अछूत माने जाने वाली महार जाति से थे. इस वजह से उन्हें बचपन से ही सामाजिक और आर्थिक तौर से गहरा भेदभाव सहना पड़ा था. आलम ये था कि अंग्रेजी सेना में काम करते हुए बालक भीमराव के पिता सूबेदार बने थे, लेकिन समाज हमेशा उनसे दोयम दर्जे का व्यवहार करता रहा.


इस सबका असर भीमराव के बाल मन पर गहरा पड़ा. स्कूल की पढ़ाई में बेहतरीन होने के बाद भी एक छात्र के तौर पर उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ा. 7 नवम्बर 1900 को उनके पिता रामजी सकपाल ने सातारा की गवर्नमेंट हाई स्कूल में बेटे भीमराव का नाम भिवा रामजी आंबडवेकर लिखवाया था. बाबा साहेब के बचपन का नाम 'भिवा' था.


उनके मूल नाम सकपाल की जगह उनके गांव आंबडवे पर उनका नाम आंबडवेकर लिखवाया था. इस दौरान बालक भीमराव की प्रतिभा के कायल उनके ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा केशव आंबेडकर आंबडवेकर नाम हटाकर अपनी जाति आंबेडकर उनके नाम के साथ जोड़ दी. तब से लेकर आज तक वो आंबेडकर नाम से ही पहचाने जाते हैं. उन्होंने मराठी और अंग्रेजी को अपनी पढ़ाई का जरिया बनाया.


15 साल में हो गया था बाल विवाह


कुछ वक्त बाद 1897 में उनका परिवार बंबई यानी मुंबई चला आया. आंबेडकर ने सातारा नगर में राजवाड़ा चौक पर स्थित शासकीय हाईस्कूल (अब प्रतापसिंह हाईस्कूल) में 7 नवंबर 1900 को अंग्रेजी की पहली कक्षा में एडमिशन लिया. यही वजह है कि महाराष्ट्र में 7 नवंबर विद्यार्थी दिवस के तौर पर मनाया जाता है.


जब वो चौथी क्लास में अंग्रेजी से पास हुए तो उनके समुदाय के बीच ये दिन उत्सव के तौर पर मनाया गया. उनके परिवार के दोस्त और लेखक दादा केलुस्कर ने उन्हें खुद की लिखी 'बुद्ध की जीवनी' उन्हें तोहफे में दी. इसे पढ़कर ही उन्हें पहली बार गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म के बारे में जाना और उससे वो बहुत प्रभावित हुए.


5 वीं कक्षा में पढ़ने के दौरान साल 1906 में जब वो 15 साल के हुए थे उनकी शादी 9 साल की रमाबाई से कर दी गई.


पीछे मुड़कर नहीं देखा फिर कभी...


आंबेडकर ने अपने समुदाय के लोगों से ऐसी बात कही जो आज भी बेहद अहमियत रखती है. उन्होंने कहा, "शिक्षित हो जाओ, आंदोलन करो और संगठित हो"  मैट्रिक का एग्जाम 1907 में पास करने के बाद बाबा साहेब ने अगले साल एल्फिंस्टन कॉलेज में दाखिला लिया. शिक्षा में इस स्तर तक पहुंचने वाले वो अपने समुदाय से पहले शख्स थे.


साल1912 तक बॉम्बे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान में ग्रेजुएशन करने के बाद वो बड़ौदा सरकार में काम करने लगे. 22 साल की उम्र में वो संयुक्त राज्य अमेरिका गए. वहां सयाजीराव गायकवाड़ तीसरे की एक योजना के तहत न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में वजीफे पर पोस्ट ग्रेजुएशन किया.


इसके बाद लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पोस्ट ग्रेजुएशन किया. वो विदेशी यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने वाले पहले भारतीय रहे. वजीफा खत्म होने के बाद उन्हें पढ़ाई बीच में छोड़कर 1917 में वापस भारत लौटना पड़ा था. इसके 4 साल बाद ही वो अपनी थीसिस के लिए लंदन लौट पाए थे. हालांकि इस बीच उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा था.


आंबेडकर ने कहा था "छुआछूत गुलामी से भी बदतर है. दरअसल उन्हें पढ़ाई का मौका बड़ौदा के रियासत की वजह से मिला था. उन्हें महाराजा गायकवाड़ का सैन्य सचिव बनाया गया था, लेकिन उन्हें वहां जाति की वजह से भेदभाव का सामना करना पड़ा. उन्होंने ये नौकरी छोड़ दी. इस बात का जिक्र उन्होंने इस घटना को अपनी ऑटोबायोग्राफी " वेटिंग फॉर ए वीजा" में लिखा है. 


देश की आजादी की लड़ाई में दिया योगदान


इसके बाद पेशेगत जिंदगी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और वकालत भी की, लेकिन उनकी बाद की जिंदगी राजनीतिक गतिविधियों में अधिक बीती. वो भारत की आजादी के लिए सक्रिय रहे. उन्होंने इसके लिए पत्रिकाएं ही प्रकाशित नहीं की बल्कि चर्चाओं भी कीं. वो अकेले भारतीय शख्स थे जिन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने साइमन कमीशन का मेंबर बनाया था.


वो राजनीतिक अधिकारों की वकालत करने और अपने समुदाय की सामाजिक आजादी की वकालत की. हिंदू धर्म में फैली कुरीतियों और छुआछूत की प्रथा से तंग आकार सन 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था. पहले वो सिख धर्म अपनाना चाहते थे. कहा जाता है कि सिख नेताओं से मुलाकात के बाद उन्होंने अपना ये इरादा छोड़ दिया था. 


आंबेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और काननू के जानकार की थी. यही वजह रही कि गांधी व कांग्रेस मुखर आलोचना के बाद भी उनकी देश को 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने के बाद कांग्रेस सरकार ने उन्हें पहले क़ानून और न्याय मंत्री के तौर पर चुना गया.


उन्हें 29 अगस्त 1947 को आजाद भारत के नए संविधान निर्माण के लिए बनी संविधान की मसौदा समिति का अध्यक्ष पद बनाया गया. भारत के संविधान निर्माण के काम में आंबेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बेहद काम आया. 


पूना पैक्ट के जरिए उन्होंने अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट का इंतजाम किया तो देश के पहले वित्त आयोग का गठन करने में उनका अहम योगदान है. 


साल 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न सम्मानित किया गया. यही वजह है कि समाज में समानता की बात करने वाले बाबा साहेब आंबेडकर की पैदाइश के दिन14 अप्रैल को आंबेडकर जयंती के तौर पर भारत सहित पूरी दुनिया में मनाया जाता है.


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