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Sedition Law: भारत में कैसे आया था राजद्रोह कानून? आजादी के बाद पंडित नेहरू ने रखा बरकरार, अब खत्म करने जा रही मोदी सरकार

Sedition Law: केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में ऐलान करते हुए बताया है कि राजद्रोह कानून को खत्म किया जा रहा है. इसको लेकर सरकार की तरफ से एक प्रस्ताव पेश किया गया.

Sedition Law News: विपक्ष के अविश्वास मत को विश्वास मत में बदलने के बाद अब मोदी सरकार पंडित नेहरू की एक और बड़ी भूल को सुधारने की तैयारी में है. इसी कड़ी में गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में अंग्रेजों का राजद्रोह कानून हटाने के लिए बिल पेश किया है. अगर ये बिल पहले लोकसभा और फिर राज्यसभा से पास हो जाता है तो राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ये बिल कानून बन जाएगा.  

भारत में चल रहा राजद्रोह कानून पंडित नेहरू की गलतियों में से एक माना जाता है. अब इसे खत्म करने के लिए लंबे समय से कोशिश की जाती रही है. हालांकि ऐसा नहीं था कि आजादी के ठीक बाद ये कानून भारत में लागू हुआ था. दरअसल अंग्रेजों के जमाने में जब 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम हुआ तो उसके बाद अंग्रेजों को ऐसे कानून की जरूरत महसूस हुई, जिसके जरिए वो भारतियों के अपराध के हिसाब से सजा दे सकें. 

अंग्रेजों ने ली थी चार्टर ऐक्ट ऑफ 1833 की मदद

इसके लिए अंग्रेजों ने थॉमस बेबिंगटन मैकाले की अध्यक्षता में बने चार्टर ऐक्ट ऑफ 1833 का सहारा लिया, जो फर्स्ट लॉ कमीशन की सिफारिश पर बनाया गया था. इसके जरिए अपराध और उसके हिसाब से सजा तय की गई और नाम दिया गया इंडियन पीनल कोड. ये लागू हुआ 1860 में, लेकिन तब इस पीनल कोड में राजद्रोह जैसा कोई कानून नहीं था. धारा 124 तो थी, लेकिन 1860 वाले कानून में धारा 124 (A) नहीं थी. 

भारतीयों पर भारी पड़ी थी अग्रेजों की गलती 

1870 में ब्रिटिश वकील और जज रहे जेम्स फिटजेम्स स्टीफन की सलाह पर इस आईपीसी में अलग से धारा 124 में ए जोड़ा गया. अंग्रेजों ने तर्क दिया कि गलती से ये कानून ओरिजिनल ड्राफ्ट में छूट गया था और अब हम इस गलती को सुधार रहे हैं. अंग्रेजों ने गलती सुधारी और ये गलती भारतीयों पर बहुत भारी पड़ी. 1891 में इस कानून के तहत पहला केस एक पत्रकार पर दर्ज हुआ, जिनका नाम था जोगेंद्र चुंदर बोस. 

उन्होंने अपनी बंगाली पत्रिका बांगोबाशी में अंग्रेजों के बनाए एज ऑफ कंसेंट ऐक्ट 1891 की मुखालफत की थी. इसके बाद 1897 में इस कानून का चाबुक चला लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर, जिन्हें इस कानून का दोषी ठहराकर 18 महीने की सजा भी दे दी गई. महात्मा गांधी से लेकर भगत सिंह और जवाहर लाल नेहरू तक को इस क्रूर कानून के जरिए सजा सुनाई गई थी.

15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ और भारत ने अपना संविधान बनाने पर काम शुरू किया तो उस वक्त पूरी संविधान सभा ने एक सुर में तय किया कि अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध नहीं रहेगा. इसे देखते हुए संविधान से राजद्रोह शब्द को ही पूरी तरह से हटा दिया गया. 26 नवंबर, 1949 को जब भारत का संविधान बनकर तैयार हो गया तो उसमें आर्टिकल 19 (1) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता का जिक्र किया गया था. 

पंजाब हाई कोर्ट के फैसले ने बदल दिया सबकुछ 

हालांकि तब भी आईपीसी में सेक्शन 124 (A) बना हुआ था, लेकिन जब संविधान में ही राजद्रोह का जिक्र नहीं था तो आईपीसी का सेक्शन 124 (A) भी बेकार ही था. 26 जनवरी, 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ, तब भी ऐसी ही स्थिति थी. फिर पंजाब हाई कोर्ट का एक ऐसा फैसला आया, जिसने सब बदल दिया. हुआ ये कि 1951 में पंजाब हाई कोर्ट ने तारा सिंह गोपी चंद बनाम राज्य के मामले में आदेश दिया कि सेक्शन 124 A निर्विवाद रूप से अभिव्यक्ति की आजादी में बाधक है और ये संविधान के आर्टिकल 19 के मौलिक अधिकार के तहत मिली बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का हनन करता है. 

पंजाब हाई कोर्ट के इस फैसले से प्रधानमंत्री नेहरू नाराज हो गए. यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में इंस्टिट्यूट ऑफ कामनवेल्थ स्टडीज में पोस्टडॉक्टोरल फेलो त्रिपुरदमन सिंह अपनी किताब 'वे सोलह दिन, नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन' में लिखते हैं कि उस वक्त नेहरू के खिलाफ अखबारों में भी छपना शुरू हो गया था और उनके कई फैसलों पर अखबार विरोध में संपादकीय लिखने लगे थे. इस दौरान आम चुनाव भी नज़दीक आ रहे थे, जो आजाद भारत के पहले आम चुनाव थे. इन परिस्थितियों से निपटने की कोशिश के तहत जून 1951 में भारत का पहला संविधान संशोधन हुआ, जिसका प्रस्ताव खुद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने ही पेश किया था. 

संसद में हुआ था काफी हंगामा

16 दिनों तक संसद में खूब बहस हुई, जिसमें सबसे गरमा गरम बहस प्रधानमंत्री नेहरू और विपक्ष के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बीच हुई थी, लेकिन जब वोटिंग की बारी आई तो पक्ष में 228 वोट पड़े, विपक्ष में 20 वोट पड़े और करीब 50 सांसद वोटिंग से गायब रहे. इस तरह भारत का पहला संविधान संशोधन लागू हुआ, जिसमें कई बड़े बदलाव हुए थे और जिसके लिए संविधान विशेषज्ञ उपेंद्र नाथ बख्शी ने कहा था कि ये दूसरा संविधान है.

संविधान संशोधन के जरिए सबसे बड़ा बदलाव हुआ था आर्टिकल 19 (1) (A) में. इसके साथ ही 19 (2) को संविधान संशोधन के जरिए जोड़ा गया, जिसके जरिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर दिया गया और इसके साथ ही आईपीसी का सेक्शन 124 ए फिर से मान्य हो गया और फिर राजद्रोह अपराध बन गया. रही सही कसर इंदिरा गांधी ने 1974 में पूरी कर दी. उन्होंने 1898 का क्रिमिनल कोड ऑफ प्रोसीजर हटाकर कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर 1973 लागू कर दिया. 1974 से लागू हुई इस सीआरपीसी के जरिए पुलिस को ये ताकत मिल गई कि बिना वॉरंट के भी पुलिस राजद्रोह के आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है.

SC के इस फैसले के बाद इस कानून को मिली वैधता

समय-समय पर अदालतें भी इस कानून को लेकर फैसले देती रही हैं. आजादी के बाद तारा सिंह गोपी चंद बनाम राज्य मामले में पंजाब हाई कोर्ट ने 1951 में तो कह ही दिया था कि राजद्रोह का कानून अभिव्यक्ति की आजादी की स्वतंत्रता का हनन करता है. संविधान संशोधन के बाद भी इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1959 में रामनंदन बनाम राज्य मामले में कहा कि 124 ए संविधान का उल्लंघन है. फिर 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा फैसला दिया कि अंग्रेजों के जमाने के इस कानून को भारत में पूरी तरह से वैधता मिल गई.

केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य

इस केस को कहा जाता है केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य. इस मामले में केदार नाथ सिंह ने सीआईडी के अधिकारियों के लिए अपशब्दों का का इस्तेमाल किया था. वहीं, सरकार के सदस्यों को कांग्रेस के गुंडे कहा था. पुलिस ने केदारनाथ सिंह पर राजद्रोह का केस दर्ज किया था. बिहार की एक मैजिस्ट्रेट अदालत ने केदार नाथ सिंह को राजद्रोह का दोषी भी करार दे दिया था. 

पटना हाई कोर्ट ने भी केदार नाथ सिंह को दोषी ही माना और सुप्रीम कोर्ट ने भी पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने अपने फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में ‘भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर कुछ प्रतिबंधों का जिक्र है. 1951 में इसको संविधान संशोधन के जरिए लागू किया गया था. इसका सीधा सा मतलब यही है कि अगर कोई शख्स सार्वजनिक व्यवस्था या फिर प्रदेश की सुरक्षा को लेकर धमती देता है तो ये समाज के खिलाफ अपराध है और इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती है. यही राजद्रोह है.

क्या अब खत्म हो जाएगा राजद्रोह कानून?

अब इस राजद्रोह कानून को खत्म करने के लिए खुद गृह मंत्री अमित शाह संसद में बिल लेकर आए हैं. लोकसभा में अमित शाह ने भारतीय न्याय संहिता विधेयक, 2023, भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक को पेश किया. उन्होंने कहा अगर तीन कानून बदल जाएंगे तो देश में आपराधिक न्याय प्रणाली में बड़ा बदलाव होगा.

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