उम्र-भर ख़्वाब-ए-मोहब्बत से न बेदार हुए
इसी किरदार से हम साहब-ए-किरदार हुए
साहब-ए-किरदार होने के सलीके को किसी से सीखना हो तो एपीजे अब्दुल कलाम के व्यक्तित्व से सीखना चाहिए. कलाम होना इसलिए भी आसान नहीं है क्योंकि उसके लिए संघर्षों की आग में तपना पड़ता है. कलाम साहब का कहना था कि बनावटी सुख की बजाय ठोस उपलब्धियों के पीछे समर्पित रहिए. यही उनके जीवन का एकमात्र मंत्र भी था. वह किसी भी तरह से बनावटी नहीं थे. वह तो बस ख्वाब देखते थे और उसको पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत करते थे. इसी कारण दुनिया उन्हें 'मिसाइल मैन' के तौर पर याद करती है.
एपीजे अब्दुल कलाम के व्यक्तित्व को किसी एक दायरे में सीमित नहीं किया जा सकता. जिंदगी ने जब उन्हें जिस भूमिका को निभाने का दायित्व सौंपा, वह उसपर खरे उतरे. वे देश के राष्ट्रपति रहे, एक महान विचारक रहे, लेखक रहे और वैज्ञानिक भी रहे. हर क्षेत्र में उनका अहम योगदान रहा. कलाम की ज़िंदगी का सार है ख्वाब देखिए, ख़्वाब पूरे जरूर होते हैं. चाहे परिस्थितियां कैसी भी रहे. ख़्वाब के बारे में उनका ख़ुद का कहना है ‘‘ख़्वाब वह नहीं होते जो हम सोते हुए देखते हैं, बल्कि ख़्वाब वह होते हैं जो हमें सोने ही न देते’’
आज एपीजे अब्दुल कलाम का जन्मदिन है. आज ही के दिन साल 1931 में कलाम साहब पैदा हुए थे. आज बेशक हम उन्हें एक चहेते शिक्षक, देश के सबसे बेहतरीन राष्ट्रपति, एक शानदार वैज्ञानिक और सबसे खास एक बेहतरीन इंसान के तौर पर याद करते हैं, लेकिन उनकी जिंदगी का सफर इतना आसान नहीं रहा. जीवन में संघर्ष करते हुए उन्होंने सफलता तक का सफर तय किया.
जीवन के संघर्ष से सफलता तक का सफर
अब्दुल कलाम का जन्म तमिलनाडु के रामेश्वरम में 15 अक्टूबर को हुआ था. उनका परिवार नाव बनाने का काम करता था. कलाम के पिता नाव मछुआरों को किराए पर दिया करते थे. बचपन से ही कलाम की आंखें कुछ बनने का ख़्वाब देखती थी. हालांकि उस वक्त परिस्थियां इतनी अच्छी नहीं थी. वह स्कूल से आने के बाद कुछ देर तक अपने बड़े भाई मुस्तफा कलाम की दुकान पर भी बैठते थे, जो कि रामेश्वरम रेलवे स्टेशन पर थी. फिर दूसरे विश्व युद्ध के शुरू होने पर जब ट्रेन ने रामेश्वरम रेलवे स्टेशन पर रूकना बंद कर दिया था, तब अख़बार के बंडल चलती ट्रेन से ही फेंक दिए जाते थे. उनके भाई शम्सुद्दीन को एक ऐसे इन्सान की ज़रूरत थी जो अख़बारों को घर-घर पहुंचाने में उनकी मदद कर सके, तब कलाम ने यह ज़िम्मेदारी निभाई. जब उन्होंने अपने पिता से रामेश्वरम् से बाहर जाकर पढ़ाई करने की बात कही तो उन्होंने कहा कि हमारा प्यार तुम्हें बांधेगा नहीं और न ही हमारी जरूरतें तुम्हें रोकेंगी. इस जगह तुम्हारा शरीर तो रह सकता है, लेकिन तुम्हारा मन नहीं.
इसके बाद कलाम ने 1950 में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए त्रिची के सेंट जोसेफ कालेज में दाख़िला लिया. इसके बाद उन्होंने बीएससी की. फिर अचानक उन्हें लगा कि उन्हें बीएससी नहीं करना चाहिए था. उनका सपना कुछ और था. वह इंजीनियर बनना चाहते थे. बीएससी करने के बाद उन्होंने ठान लिया कि अब वह किसी भी तरह मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग में एडमीशन लेकर रहेंगे.
कलाम का विश्वास और मेहनत ही थी कि उन्हें दाखिला मिल गया. उस वक्त एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की फ़ीस 1000 रूपये थी. फ़ीस भरने को उनकी बड़ी बहन ने अपने गहने गिरवीं रखे और उन्होंने गिरवीं गहनों को अपनी कमाई से ही छुड़ाने की बात मन में ठानी. इसके बाद पढाई शुरू तो हुई लेकिन कॉलेज में जैसे-जैसे वक़्त बीतने लगा वैसे-वैसे विमानों में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी. अब पायलट बनने का ख्याल दिल में आया. जब उन्होंने इंजीनियरिंग की पढाई कर ली तो उनके सामने दो रास्ते थे. पहला एयरफ़ोर्स में पायलट बनने का ख़्वाब जो कलाम ने देखा था तो वहीं दूसरा रक्षा मंत्रालय के वैज्ञानिक बनने का. कलाम ने अपने ख्वाबों को तरजीह दी और एयरफ़ोर्स में पायलट के इन्टरव्यू के लिए दक्षिण भारत से उत्तर भारत रवाना हो गए.
इंटरव्यू में कलाम साहब ने हर प्रश्न का जवाब दिया लेकिन जब इंटरव्यू के परिणाम आए तो उनको मालूम हुआ कि जिंदगी अभी और कठिन परीक्षा लेगी. आठ लोग चुने गए और कलाम साहब का नंबर नौवां था. वह समझ गए हालात अभी मुश्किल होने वाले हैं. कलाम दिल्ली आकर एक जगह वैज्ञानिक के पद पर काम करने लगे तब उनका मासिक वेतन दो सौ पचास रूपये मात्र था. यहां वह विमान बनाने का काम करते थे. फिर तीन साल बाद ’वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान’ का केन्द्र बंगलुरू में बनाया गया और उन्हें इस केन्द्र में भेज दिया गया.
इसके बाद उन्हें उन्हें स्वदेशी हावरक्राफ़्ट बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई जो काफी मुश्किल मानी जाती थी. लेकिन कलाम ने यह भी कर दिखाया. उन्होंने और उनके सहयोगियों ने हावरक्राफ़्ट में पहली उड़ान भरी. रक्षा मंत्री कृष्णमेनन ने कलाम की खूब तारीफ की और कहा कि इससे भी शक्तिशाली विमान अब तैयार करो. उन्होंने वादा किया कि वह ऐसा करेंगे लेकिन जल्द कृष्णमेनन रक्षा मंत्रालय से हटा दिए गए और कलाम साबह उन्हें दोबारा कमाल कर के नहीं दिखा पाए.
नासा से लौटकर बनाया पहला स्वदेशी उपग्रह ‘नाइक अपाची’
इसके बाद कलाम ने ‘इंडियन कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च’ का इंटरव्यू दिया. यहां उनका इंटरव्यू विक्रम साराभाई ने लिया लिया और वह चुन लिए गए. उनको रॉकेट इंजीनियर के पद पर चुना गया. यहां से कलाम के ख्वाब को पंख मिले. उन्हें नासा भेजा गया. नासा से लौटने के बाद उन्हें ज़िम्मेदारी मिली भारत के पहले रॉकेट को आसमान तक पहुंचाने की. उन्होंने भी इस ज़िम्मेदारी को पूरी तरह निभाया. रॉकेट को पूरी तरह से तैयार कर लेने के बाद उसकी उड़ान का समय तय कर दिया गया, लेकिन उड़ान से ठीक पहले उसकी हाईड्रोलिक प्रणाली में कुछ रिसाव होने लगा. फिर असफ़लता के बादल घिर कर आने लगे, मगर कलाम ने उन्हें बरसने न दिया. रिसाव को ठीक करने का वक़्त न हो पाने की वजह से कलाम और उनके सहयोगियों ने रॉकेट को अपने कंधों पर उठाकर इस तरह सेट किया कि रिसाव बंद हो जाए. कलाम ने रॉकेट को कंधों पर नहीं उठाया था, बल्कि उस ज़िम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाया था जो उन्हें नासा से लौटने के बाद दी गई थी. फिर भारत के सबसे पहले उपग्रह ‘नाइक अपाची’ ने उड़ान भरी. रोहिणी रॉकेट ने उड़ान भरी और स्वदेशी रॉकेट के दम पर भारत की पहचान पूरी दुनिया में बन गई.
इसके बाद कलाम की भव्यता और भव्य हो गई. दुनिया उन्हें जानने लगी. उन्होंने अपनी मेहनत और साधारण पृष्ठभूमि की सादगी को जीवन भर बनाए रखा. उनकी सादगी किसी भी बाहरी चमक दमक की मोहताज नहीं होती.